भारत का समृध्दशाली इतिहास और वर्तमान चुनौतियां

संजीव कुमार दुबे, असिस्टेंट कमिश्नर, एक्साइज

Update: 2024-03-31 13:53 GMT

यह स्थापित सत्य है कि योग मूलतः भारतीय अवधारणा है तथा यह भी स्थापित है कि पश्चात देशों ने योग संस्कृति को हड़प कर न सिर्फ पोषित किया है बल्कि लोकप्रिय बनाया। उसका उपयोग या दोहन पूर्णतया व्यावसायिक रूप से किया गया है। दूसरा पहलू यह है कि योग को भारतीय लोग ही अमेरिका या अन्य देशों में ले गए अर्थात योग स्वेच्छा से भारत से अमेरिका पहुंचा। जिस प्रकार से अमेरिका के लोग अफ्रीका के लोगों को गुलाम बनकर अमेरिका ले गए थे। उस तरह से कम से कम योग नहीं पहुंचा अमेरिका।

भगवान बुद्ध की जितनी भी प्रतिमाएं हैं उनमें से 99% प्रतिमाएं एक योग मुद्रा में बैठी हुई पाई जाती हैं। इत्तेफाक यह भी देखिए की किसी भी सितारा स्पा सेंटर में जाइए वहां भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्पा सेंटर पर लगी मिलेगी अर्थात बुद्ध के योगिक आसन को स्पा से जोड़कर उसे पूंजीवादी स्वरूप दिया गया है। ऊपर लिखित तत्व यह स्थापित करते हैं कि कब कौन सी अवधारणा हमारे जीवन पद्धति से हटकर विराट व्यावसायिक गतिविधि में बदल जाए। यह तय करने का काम बाजार का है और इसे रोकने का काम धर्म का है।

मत्स न्याय का सिद्धांत आपने सुना होगा जहां प्रकृति में बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। समाज में जब यह व्यवस्था आने लगी तब मनु ने समस्त छोटी मछलियों को मत्स्य न्याय से बचने के लिए अपने कमंडल में रख लिया। उनकी रक्षा की इस प्रतिबल को हम धर्म कहते हैं। डार्विनवाद और सनातन धर्म के दशावतार में युगों का फर्क है। डार्विन क्रमिक विकास को स्थापित करते हैं जबकि दशावतार विभिन्न रूपों में जब भी अवतरित हुआ अधर्म के नाश के लिए हुआ तथा जगत में सत्य और धर्म की स्थापना के लिए हुआ।

एक बड़ी अजीब बात देखी कि हिंदू धर्म अनेकता पर आधारित है और पश्चात दुनिया समानता पर आधारित है। दोनों धारणाओं के बीच एक मौलिक असंगति है अनेकता में शक्तिशाली और शक्तिहीन के बीच की गतिशीलता की सराहना की जाती है, तथा प्राकृतिक रूप से मजबूत शक्तिशाली को शक्तिहीन के विरुद्ध धर्म नियंत्रित करता है। जबकि पश्चात में शक्तिशाली को दुश्मन माना गया है, तथा शक्तिहीन को स्वर्ग के वारिस। वास्तव में धर्म की भाषा और समानता की भाषा में अंतर अभी तक पश्चात संस्कृति समझ नहीं पाई। समानता को खारिज कर अनेकता के सिद्धांत को स्थापित करने का प्रयास मैं नहीं कर रहा हूं। परंतु यह मानता हूं कि हर कोई एक जैसा वजन नहीं उठा सकता, परंतु हर किसी को वह वजन उठाना चाहिए जो उठाने में सक्षम है। अर्थात हर व्यक्ति को अपने राष्ट्र के लिए 100 फ़ीसदी योगदान देना चाहिए।

आज राष्ट्र स्वयं की परिभाषा के संक्रमण के दौर से गुजर रहा। राष्ट्र क्या है?  इस विचार को स्थापित करने के लिए भ्रमित स्कूल या पाठ्यक्रम विकसित पूरे भारत में है। राष्ट्र को कभी पश्चिम से परिभाषित किया जाता है। कभी वामपंथी विचारधारा से परिभाषित किया जाता है। कभी राष्ट्र को नागरिक स्वतंत्रताओं की मात्रा से तय किया जाता है तो कभी समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों से परिभाषित किया जाता है। उसकी ऐतिहासिकता के आधार पर और कभी विदेशी स्कूलों विचारों और कॉफी हाउस कलर के बुद्धिजीवियों की वैचारिकता से परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है।

कभी भी राष्ट्र को राम की अवधारणा, चाणक्य के राजनीतिक विचार, भारत की परंपरागत सनातन संस्कृति अथवा जंबूदीपे भारत खंडे की अवधारणा से स्थापित करने का शैक्षणिक प्रयास नहीं किया गया। हजारों साल की मुगलियत और अंग्रेजी गुलामी के बाद हिंदुस्तान का सनातनी समाज रोटी कपड़ा मकान, सामाजिक व्यवहार और कुरितियां से लड़ता रह गया, राष्ट्र कभी भी मनुष्य के माथे पर सवार केसरिया तिलक ना बन सका। राष्ट्र के बारे में सोचना आजादी के बाद से यायू कहे कि अंग्रेजों की गुलामी काल से बहुत प्राथमिक विचार आम जनमानस में नहीं रहा। जिसके कारण राष्ट्र अपनी परिभाषा के भ्रमजाल में फसता गया।

मैं क्या हूं ? या हम क्या है ?

जैसे व्यक्तिगत सवाल आज भी किसी पढ़े-लिखे मनुष्य को उत्तर देने के लिए चिंतित कर देते हैं। उसी तरह राष्ट्र के सामने कि राष्ट्र क्या है ? उसकी परिभाषा क्या है ? और ऐसी कौन सी परिभाषा या विचार है ? जिस पर बहुमत राजी हो वह क्या है ? राष्ट्र के समक्ष प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं और राष्ट्र इस चुनौती का उत्तर नहीं दे पा रहा है यह वर्तमान समय में राष्ट्र की सबसे बड़ी चुनौती है।

मुझे लगता है यही राष्ट्र के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है कि राष्ट्र अपने मानस को यह समझाने में असफल है कि राष्ट्र क्या है। मानस अपनी समस्याओं, अपने पूर्वाग्रहों अपने विचारों से इतना जकड़ा हुआ है कि वह स्वयं राष्ट्र की सुसंगठित सर्वमानित परिभाषा नहीं दे पा रहा। यदि किसी राष्ट्र के मानस अपने राष्ट्र को संबोधित नहीं कर सकते हैं, उसे परिभाषित नहीं कर सकते। उनकी संपूर्ण शिक्षा, जागरूकता और सोच और बौद्धिक ज्ञान तथा परवरिश, एक प्रश्न चिन्ह के अलावा कुछ नहीं है।

वास्तव में भारत एक राष्ट्र के रूप में अपने परिभाषा की सबसे बड़ी चुनौती इस वर्तमान मीडिया के युग मे झेल रहा है। इतने विचारों और वादों के पश्चात भी इतने पाठ्यक्रमों और स्रोतों के पश्चात भी हम यह स्थापित करने में असफल रहे हैं कि यह वही सनातन राष्ट्र है जिसने ऋग्वेद में सबसे पहले सूर्य की आराधना और गायत्री मंत्र जैसा अमृत संजीवनी इस मानव जीवन को दिया। एक ऐसी यात्रा प्रारंभ की जो अभी सरयू के किनारे से होती हुई प्रस्थान रत है।

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