शिंजो आबे की हत्या के भारत हेतु मायने ?

के. विक्रम राव

Update: 2022-07-13 13:53 GMT

जब गत शुक्रवार (8 जुलाई 2022) को टोक्यो से खबर आयी कि भारतमित्र शिंजो आबे की हत्या हो गयी। उस रात बीजिंग में दिये प्रज्ज्वलित किये गये। नजारा दीपावलि नुमा था। संवाद समिति की रपट ने कहा कि कम्युनिस्ट नेता आपस में बधाई भी दे रहे थे। इस जुनून का कारण भी है। आबे ने विस्तारवादी लाल चीन की आक्रमकता के खतरे को बाधित करने हेतु एक चतुष्कोणीय सुरक्षा संवाद (क्वाड) गढ़ा था। जापानी प्रधानमंत्री उसके शिल्पी थे। यह 66—वर्षीय शिंजो आबे अपनी पैनी दूरदर्शी रणनीति के तहत भारत, जापान, आस्ट्रेलिया तथा अमेरिका के संयुक्त सैन्य बल के सहयोग द्वारा क्षेत्रीय भौगोलिक सार्वभौमिकता सुदृढ कर रहे थे। पूर्वी एशिया में कम्युनिस्ट उपनिवेशवाद द्वारा ताइवान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम आदि पड़ोसी वामनाकार स्वाधीन गणराज्यों को दैत्याकार चीन हड़प न ले, हजम न कर ले। इस षड़यंत्र को रोकना था। चीनी ड्रेगन का आतंक आसन्न है। यही आधारभूत कारण रहा कि शिंजो आबे को हटा दिया जाये ताकि चीन का प्रमुख शत्रु ही खत्म हो जाये।

आबे और नरेन्द्र मोदी के बीच आत्मबंधुत्व, परम सौहार्द्र जैसा रिश्ता इन्हीं कारणों से रचित हुआ। दोनों बड़े राष्ट्रवादी माने जाते हैं। आबे कुछ ज्यादा। वे जापान की ऐतिहासिक शक्ति और भव्यता को दोबारा स्थापित करना चाहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की करारी हार से विजयी अमेरिका ने उसके संविधान में धारा 9 थोप दी थी। इसके तहत जापान की आत्मरक्षा वाली सेना का खात्मा कर दिया गया था। उसकी हिफाजत का अमेरिका ने पूरा ठेका स्वयं संभाल लिया था।

यह 1946 की घटना है। हिरोशिमा तथा नागासाकी पर अणुबम गिराकर ध्वस्त जापान को नतमस्तक कर दिया गया था। हालांकि द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के प्रति बहुलांश भारतीय जनता की पूर्ण सहानुभूति तथा समर्थन रहा। खुद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज के गठन में ब्रिटिश—भारतीय सैनिकों (जाट, सिख, राजपूत आदि) को अपनी कैद से मुक्त कर जापान ने नेताजी की मदद की थी। इन्हीं जापानी सैनिकों ने अण्डमानद्वीप समूह तथा इम्फाल (मणिपुर) को अक्टूबर 1943 में ब्रिटिश उपनिवेशियों के कब्जे से स्वतंत्र करा लिया था। स्वाभाविक है जापानी मुक्ति सेना के प्रति आम भारतीय की कृतज्ञता तो रही ही। यह स्मरणीय है कि इसी वक्त में अलमोड़ा जेल से रिहा होकर जवाहरलाल नेहरु ने रानीखेत की आम सभा में कहा था : ''हम अहिंसावादी भारतीयजन सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज के भारत में सैन्य बल से प्रवेश का लाठियों से विरोध करेंगे।''

उसी कालखण्ड में नेहरु अलमोड़ा कारागार (दूसरी दफा कैद) से रिहा होकर (15 जनवरी 1946) समीपस्थ (बरास्ते नैनीताल) रानीखेत नगर में जनसभा को संबोधित कर रहे थे। वहां इस कांग्रेसी नेता के उद्गार थे : ''अगर मैं जेल के बाहर होता तो राइफल लेकर आजाद हिन्द फौज के सैनिकों का अंडमान द्वीप में मुकाबला करता।'' यह उद्धहरण है सुने हुये उस भाषण के अंश का जिसे काकोरी काण्ड के अभियुक्त रामकृष्ण खत्री की आत्मकथा ''शहीदों के साये में'' (अनन्य प्रकाशन, नयी दिल्ली, तथा इसका ताजा पहला संस्करण (जनवरी 1968 : विश्वभारती प्रकाशन) में है। इसका पद्मश्री स्वाधीनता सेनानी स्व. बचनेश त्रिपाठी भी उल्लेख कर चुके हैं। खत्रीजी के पुत्र उदय (फोन नम्बर : 9415410718) लखनऊवासी हैं। अर्थात यह तो साबित हो ही जाता है कि त्रिपुरी (मार्च 1939) कांग्रेस सम्मेलन में सुभाष बाबू के साथ उपजे वैमनस्यभाव की कटुता दस वर्ष बाद भी नेहरु ने पाल रखी थी। नेहरु के आदर्श उदार भाव के इस तथ्य को जगजाहिर करने की दरकार है।

इसी सिलसिले में शिंजो आबे द्वारा टोक्यो के निकट यासूकूनि तीर्थस्थल में उपासना हेतु जाना भी विवादग्रस्त रहा। इस स्थल में गत सौ वर्षों के करीब ढाई लाख जापानी देशभक्तों की समाधि है। गत दशकों में राष्ट्र रक्षा में वे सब शहीद हुये थे। मगर माओवादी चीन यासूकूनि की तीर्थयात्रा को सम्राज्यवादी लिप्सा का घोतक मानता है। यहीं वे सब भी दफन है जिन्होंने दक्षिण—पूर्वी एशिया से ब्रिटिश थल तथा जल सेना को खदेड़ा था। उनके कमांडर का नाम था एडमिरल लूई माउन्टबेटन जिन्होंने ने जवाहरलाल नेहरु को प्रधानमंत्री की शपथ दिलवाई थी। टोक्यो के इस यासूकूनि तीर्थ स्थल का महत्व और पवित्रता साधारण जापानी नागरिकों के लिये वैसी ही है जितनी जलियांवाला बाग और सोमनाथ की हिन्दुस्तानियों के लिये है। इन पुनीत स्थलों में स्वाधीनताप्रेमी भारतीयों का लहू बहा था।

शिंजो आबे का आक्रोश रहा कि विजयी अमेरिकी सेनापति जनरल डगलस मैकआर्थर ने संविधान में धारा 9 जोड़ कर जापान के राष्ट्रवाद को क्लीब बना डाला था। आबे चाहते थे कि जापान नये परिवेश में अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा सेना का गठन करे। तभी कम्युनिस्ट चीन से युद्ध की बेला पर किसी अन्य राष्ट्र की सेना पर निर्भर न रहा जाये। नयी सैन्यशक्ति का एकमात्र उद्देश्य आत्म सुरक्षा है। उदाहरण भारत का है जो 1962 में चीन से हारकर, तबसे तगड़ी सेना का गठन कर रहा है। आबे की कोशिश भी रही कि हिन्द महासागर, प्रशान्त महासागर आदि तटीय क्षेत्रों में चीन की विशाल नौसेना का सशक्त मुकाबला किया जा सके। क्वाड रणनीति का यही मकसद है। आबे का नारा भी था : ''आजादी और विकास का वृत्तांश बनकर यह क्वाड उभरे।'' खतरे से भयभीत कम्युनिस्ट चीन आबे और नरेन्द्र मोदी से आशंकित और त्रस्त रहता है। आबे की हत्या से क्वाड समरनीति का सुष्टा तथा प्रणेता चला गया। लाल चीन खुश हुआ। अब क्वाड के संचालन का दारोमदार भारत पर है। कारण यही कि चीन को सैन्यशक्ति से अधिकतम खतरा भारत को है। उसके क्षेत्र लद्दाख, अरुणाचल तथा पूर्वोत्तर को खासकर।शिंजो आबे के असामयिक महाप्रस्थान से सर्वाधिक क्षति भारत को हुयी है। उसके राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री को कहीं​ अधिक।

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