आपातकाल का प्रतिरोध केवल पुरुषों की कहानी नहीं है। उस दौर में संख्या में कम, लेकिन संकल्प में अडिग, कई महिलाएं भी सत्ता की तानाशाही के सामने खड़ी हुईं। नवविवाहिता होने के बावजूद जेल की सलाखों के पीछे जाना, माफी नामे से इनकार करना और लोकतंत्र के पक्ष में डटे रहना उस महिला साहस की मिसाल है, जिसे इतिहास में अक्सर हाशिए पर रखा गया। भोपाल की श्रीमती उमा शुक्ला की यह आपबीती उसी अनकहे साहस की कहानी है।
संस्मरण: पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का विरोध, पुलिस की बर्बरता और मीसा के तहत जेल की यातनाएं केवल पुरुषों तक सीमित नहीं थीं। उस समय देश की सशक्त महिला शक्ति भी घर-परिवार की चिंता, सामाजिक उपेक्षा और भय के बावजूद लोकतंत्र की रक्षा के लिए सड़कों पर उतरी। ऐसी ही महिला लोकतंत्र सेनानी हैं बैरसिया, भोपाल की श्रीमती उमा शुक्ला, जिन्होंने आपातकाल के दौरान आंदोलन में भाग लेकर पूरे 21 महीने जेल में बिताए।
वार्ड क्रमांक 11, लक्ष्मीनारायण नगर निवासी 70 वर्षीय श्रीमती उमा शुक्ला बताती हैं कि वह ग्वालियर के एक राजनीतिक परिवार में पली-बढ़ीं। उनके बड़े पापा, विष्णुदत्त तिवारी, विधायक थे। वर्ष 1973 में मात्र 19 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हुआ और वह भोपाल ससुराल आईं। उनके पति, श्री योगेश शुक्ला, जनसंघ से जुड़े थे।
आपातकाल की घोषणा के बाद जब कई परिवारों के मुखिया जेल में बंद हो गए, तब श्री योगेश शुक्ला उन पीड़ित परिवारों के लिए राशन-पानी की व्यवस्था, संदेशों का आदान-प्रदान और अन्य आवश्यक जिम्मेदारियां निभा रहे थे। इसी बीच, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से आपातकाल के विरोध में आंदोलन का आह्वान हुआ। संघ के विचारों से प्रेरित होकर श्रीमती उमा शुक्ला ने 7 जुलाई 1975 को जनसंघ से जुड़ीं श्रीमती रामकली मिश्रा और श्रीमती सविता वाजपेयी के साथ पुराना भोपाल के चौक में प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में गिरफ्तारी की आशंका नहीं थी, लेकिन पुलिस ने श्रीमती उमा शुक्ला और श्रीमती रामकली मिश्रा को गिरफ्तार कर लिया। अन्य महिलाओं को छोड़ दिया गया। दोनों को रातभर थाने में रखा गया और अगले दिन सुबह 11 बजे जेल भेज दिया गया।
श्रीमती शुक्ला बताती हैं कि 21 वर्ष की उम्र में यह पहला अवसर था, जब उन्होंने जेल की सलाखें देखीं, वह भी शादी के केवल दो साल बाद। अचानक गिरफ्तारी से वह घबरा जरूर गई थीं, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। शुरुआत में जेल का वातावरण बहुत असहज लगा। धीरे-धीरे उन्होंने परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बैठा लिया। कुछ समय बाद, श्रीमती सविता वाजपेयी ने भी स्वयं गिरफ्तारी दी और वह भी जेल पहुंच गईं। भोपाल जेल में मीसा के तहत केवल यही तीन महिला बंदी थीं। श्रीमती रामकली मिश्रा की आठ वर्षीय दिव्यांग बेटी भी उनके साथ ही रहती थी।
श्रीमती शुक्ला बताती हैं कि जेल में उनकी महिला सेल मुख्य द्वार के पास थी। पुरुष मीसा बंदी भजन-कीर्तन, धार्मिक और राजनीतिक चर्चाओं तथा भाषणों में शामिल रहते थे। ऐसी गतिविधियों में वह तीनों महिलाएं भी शामिल होती थीं। जेल प्रशासन कभी-कभी टीवी पर फिल्म या धारावाहिक भी दिखाता था। महिला सेल में एक महिला गार्ड तैनात रहती थी।
भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर दातार सिंह, श्रीमती शुक्ला के बड़े पापा के मित्र थे। इसी कारण पति श्री योगेश शुक्ला को जेल में मिलने की सुविधा मिलती थी और दो बार पैरोल भी मिली। कलेक्टर ने माफी नामे पर हस्ताक्षर कर जेल से छूटने की सलाह दी थी, लेकिन पति ने ही उन्हें ऐसा करने से मना किया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के लिए जेल जाना अपराध नहीं है।
आपातकाल के बाद, श्रीमती उमा शुक्ला भाजपा की सक्रिय कार्यकर्ता रहीं। उन्होंने समाजसेवा के कई कार्य किए। पार्टी ने उन्हें भोपाल ग्रामीण महिला मोर्चा की अध्यक्ष बनाया। वर्ष 2000 से 2005 तक वह नगर पालिका बैरसिया की अध्यक्ष भी रहीं। बाद में उन्हें महिला मोर्चा में प्रदेश प्रतिनिधि की जिम्मेदारी सौंपी गई। उनका जीवन आज भी उस साहस की मिसाल है, जिसने आपातकाल के अंधेरे में लोकतंत्र की लौ जलाए रखी।