धुरंधर और बदलता भारतीय सिनेमा

राजेश कुमरावत

Update: 2025-12-17 05:25 GMT

फिल्म ने दशकों की चुप्पी तोड़ी

'धुरंधर' कोई साधारण फिल्म नहीं है; यह सिनेमा, मीडिया और नैरेटिव इकोसिस्टम पर एक वैचारिक हस्तक्षेप है-जो यह पूछने का साहस करता है कि आखिर भारत की कहानी किसके हाथ में रही है। भारतीय सिनेमा के इतिहास में कुछ फिल्में केवल मनोरंजन नहीं होतीं, वे समय का दस्तावेज बन जाती हैं। 'धुरंधर' उसी श्रेणी की कृति है। यह फिल्म किसी एक घटना की कथा नहीं कहती, बल्कि दशकों से निर्मित उस वैचारिक ढांचे पर प्रश्न उठाती है, जिसके माध्यम से दर्शक को यह तय करके दिखाया जाता रहा कि उसे क्या देखना, क्या समझना और क्या भूल जाना चाहिए।

सिनेमा बनाम नैरेटिव

बीते सात दशकों में बॉलीवुड ने इतिहास, आतंक और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विषयों को अक्सर रोमांटिक धुंध में प्रस्तुत किया। मुगल काल को प्रेम-कथाओं और भव्य दरबारों तक सीमित किया गया, वहीं सीमा-पार प्रायोजित आतंकवाद को 'गलतफहमी', 'मानवीय भावनाओं' और 'भाईचारे' की चाशनी में लपेट दिया गया। यह नैरेटिव प्रोजेक्शन था, जिसमें असहज सत्य को या तो सुंदर बना दिया गया या अदृश्य कर दिया गया। 'धुरंधर' इस परंपरा को तोड़ती है। यह फिल्म दर्शक से सहमति नहीं मांगती, बल्कि साक्ष्य प्रस्तुत करती है।

बिना धर्म का नाम लिए, आतंक का चेहरा-फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह कहीं भी धर्म या आम नागरिकों को कठघरे में खड़ा नहीं करती। इसका फोकस स्पष्ट है-आतंकवादी राज्य की संरचना, अंडरवर्ल्ड आतंक राजनीति की आपसी सांठगांठ, खुफिया युद्ध का अदृश्य मोर्चा और सूचना को हथियार बनाने की रणनीति। यही कारण है कि इस पर लगाए जा रहे आरोप 'फलां विरोधी' या 'ढांचागत पक्षपात' की समीक्षा नहीं, बल्कि असुविधा की प्रतिक्रिया अधिक प्रतीत होते हैं।

प्रदर्शन जो बयान बन जाते हैं

अक्षय खन्ना का अभिनय शोर नहीं करता, वह चीरता है। एक ठंडा, विश्लेषणात्मक और घातक संयम, जो पर्दे से उतरकर दर्शक की चेतना तक पहुंचता है। आर. माधवन का अभिनय भी इसी तरह रणनीतिक प्रस्तुति प्रतीत होता है। रणवीर सिंह ने अपने स्थापित 'स्टार-सुरक्षित दायरे' से बाहर निकलकर यह साबित किया कि अभिनेता का धर्म केवल लोकप्रियता नहीं, बल्कि सत्य के प्रति जोखिम उठाने का साहस भी है।

निर्देशक की दृष्टि: मनोरंजन नहीं, हस्तक्षेप

आदित्य धर यहाँ निर्देशक कम और विचारक अधिक दिखाई देते हैं। 'उरी' जैसी अनुशासित कथा संरचना, वृत्तचित्र जैसी तथ्यपरक ईमानदारी और एक नागरिक का आक्रोश—हर फ्रेम यह संकेत देता है कि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस से अधिक बौद्धिक और सांस्कृतिक स्पेस में हस्तक्षेप करने आई है।

क्यों घबराया नैरेटिव इकोसिस्टम?

'धुरंधर' की असली चुनौती इसकी कहानी नहीं, बल्कि इसका नियंत्रण से बाहर होना है। यह फिल्म तयशुदा वैचारिक एकाधिकार को तोड़ती है, दर्शक को स्वयं निष्कर्ष तक पहुंचने का अधिकार देती है और याद दिलाती है कि राष्ट्र केवल सीमाओं पर नहीं, कहानियों में भी सुरक्षित है। प्रतिक्रियाएं असहज हैं और सोशल मीडिया पर असंतुलन स्पष्ट दिखता है।

एक फिल्म, एक क्षण: 'धुरंधर' पर सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह फिल्म याद दिलाती है कि भारत केवल युद्ध सीमाओं पर नहीं लड़ रहा, बल्कि दूसरा युद्ध अपने ही नैरेटिव स्पेस में भी जारी है। यदि सिनेमा समाज का दर्पण है, तो 'धुरंधर' वह शीशा है जिसमें पहली बार बिना फिल्टर के चेहरा दिखाई देता है। और शायद यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

Similar News