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..तो सम्माननीय पूर्व पीएम अर्थसूत्र/मंत्र से पेड़ों पर पैसे उगा देते!

अब जब किसी राजा के नवरत्न सुझाव जैसा देंगे, तो जाहिर है कि तैयारियां उसी के अनुरूप होंगी. क्या ऐसा नहीं है?

Update: 2021-05-07 15:36 GMT

निश्चित ही, कोविड-19 दौर में जो सिस्टम फेल हुआ है, उसका दोष राजा को 'लेना' होगा. उसका दोष फेडरल ढांचे के बाकी 'राजाओं' को भी लेना होगा. समस्या आपातकाल सरीखी हो, या कैसी भी, सिंहासन पर बैठे राजा को आंशिक/पूर्ण दोष लेना होगा. जनता के बाण सहने ही होंगे. पर सच यह भी है कि पीएम को देश के दिग्गज वैज्ञानिक सलाहकारों की कमेटी ने सुझाव दिया था कि कोविड की दूसरी लहर जरूर आएगी, लेकिन यह पहली लहर की तुलना में कम मारक होगी. जी हां, कम मारक. अब जब किसी राजा के नवरत्न सुझाव जैसा देंगे, तो जाहिर है कि तैयारियां उसी के अनुरूप होंगी. क्या ऐसा नहीं है?

मगर हालिया सालों में एक अलग ही माहौल बना है. घर में कुकर भी फट गया, तो इसका दोष भी राजा को! बात घर में भोजन करने के दौरान या फिर किसी भी स्थान पर किसी भी विषय पर बात करते हुए अगर प्रधानमंत्री को अपशब्दों से कोसा न जाए, तब तक खाना ही नहीं पचता! विषय कोई भी हो, पीएम की इंट्री इसमें अनिवार्य तौर पर हो ही जाती है! जमीनी स्तर पर यह स्थिति अच्छे-खासे बड़े वर्ग की है. ऊपरी वर्ग के तो कहने ही क्या! बड़ी तादाद में "पक्षकार" हर सुबह उठते ही मौका ढूंढते हैं कि उन्हें थोड़ा सी भी "जगह" मिले, तो वह तमाम कुतर्कों के साथ पीएम पर टूट पड़ें. और जब उन पर तर्कों के साथ करारा जवाब मिले, तो वे सार्वजनिक मंच से गधे के सिर से सींग की तरह गायब होकर अपनी खोली में सिमट जाएं. जुबान को लकवा मार जाता है, कलम की स्याही सूख जाती है. और कोविड-19 दौर ने तो मानो इनकी मन की मुराद पूरी कर दी है! चढ़ायी के लिए स्पेस क्या पूरा गलियारा मिल गया है!

"पक्षकार" होना कोई गलत बात नहीं है. ऐसे प्राणी सब जगह पाए जाते हैं, लेकिन इसके लिए अनिवार्य शर्त यह है कि आपकी जेब में लोहे जैसे अकाट्य तर्क हों! जब ऐसा होता है, तो ये आपको न्याय की परिधि में लाकर खड़ा कर देते हैं! आपकी बातों में वजन रहता है, लेकिन ये 'पक्षकार' पूर्व की तरह व्यंग्यात्मक तरीके से मुस्कुरा रहे हैं, मन ही मन खुश हो रहे हैं. ठीक वैसे ही जब बालाकोट हुआ था! या देश के गौरव अभिनंदन को दुश्मन देश ने पकड़ लिया था. ये व्यंग्यात्मक मुस्कान और कुतर्क इन 'पक्षकारों' के बारे में सबकुछ और साफ-साफ बयां कर देता है कि वास्तव में ये क्या हैं! वास्तविक आलोचना के लिए जरूरी ज्ञान इनके पास नहीं है! अगर है, तो वह है कुतर्कों का भंडार, व्यंग्यात्मक मुस्कान, मन के भीतर की खुशी, टांग खिंचायी वगैरह-वगैरह! और जब हालात ऐसे हैं, जो इनमें और उस सड़कछाप शख्स में क्या अंतर रह जाता है, जिसे शौच करने की भी ढंग से तमीज नहीं है और जो पीएम को कुछ भी कह कर निकल जाता है. छोटी-छोटी बात पर, सोते-जागते, खाते-पीते, शौच करते मोदी इनकी मनोदशा में ऐसे समा गए हैं कि इन्हें एक अच्छे मनोचिकित्सक की दरकार है!

ज्यादा हैरानी तब और होती है, जब ऐसे पक्षकारों को बंगाल की तस्वीर नहीं दिखायी देती. ये कत्ले-आम देखकर 'अपने समूह' में मुस्कुराते हैं, आंख मारने के इमोजी भेजते हैं! ये लोग खुद ही तय करें कि ये किस श्रेणी में आते हैं? पर ऐसे लोगों को 'पत्रकार/एंकर' 'पत्रकार' तो कतई नहीं कहा जा सकता. क्या कहा जा सकता है? हां यह जरूर है कि ये "दोगले" (अपने-अपने चुनिंदा नेरेटिव (दृष्टिकोण) और सहूलियत के हिसाब से एक ही घटना का अलग-अलग ढंग से आंकलन करना, दूसरे की बर्बरता को बर्बरता समझना और अपनी बर्बरता का लुत्फ उठाना/आनंद लेना, न्याय की परिधि से बाहर सोचना, वगरैह-वगरैह) की पात्रता जरूर रखते हैं.

कुछ राजनीतिक दोगले ऐसे भी थे जिन्होंने कुछ महीने पहले CAA के वास्तविक/जायज मुद्दे पर दिल्ली में 'भारत बचाओ' के भड़काऊ नारे लगाकर देश को लगभग गृहयुद्ध की भट्टी में धकेलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी! जबकि इन्हीं के राज में CAA की सिफारिश की गयी थी. और हां ये तमाम और अपने-अपने क्षेत्र में भांति-भांति के "दोगले" कभी भी सुधरने नहीं जा रहे! ये कदम-कदम पर और नियमित अंतराल पर अपना रूप दिखाएंगे ही दिखाएंगे! आने वाले सालों में ये बार-बार अपने दोगले होने का सबूत देंगे! आप देखते रहिएगा और नजरें गड़ाए रखिएगा!

सवाल यह है कि अगर मोदी की जगह कोई और प्रधानमंत्री होता, तो वह क्या करता! इऩ 'दोगलों' के नैरेटिव से बात करें, तो माननीय और सम्माननीय मनमोहन सिंह तुरंत ही इस समस्या का समाधान कर देते! वो कर भी सकते थे क्योंकि वह विद्वान अर्थशास्त्री रहे हैं! मनमोहन सिंह का ऐतिहासिक बयान है-पैसे पेड़ पर नहीं उगते! पर पूर्व प्रधानमंत्री ने अपने अर्थसूत्र से पैसे पेड़ पर उगाए! उदाहरण सामने है. आजादी के बाद से साल 2008 तक करीब 18 लाख करोड़ रुपये का ऋण बांटा गया, लेकिन 2008 से लेकर 2011 तक करीब 53 लाख करोड़ ऋण बांटा गया!! ऐसा तभी ही हो सकता है, जब किसी विशिष्ट अर्थसूत्र/मंत्र से पेडों पर पैसा उगा दिया जाए! और जब पैसा पेड़ों पर उग जाता, तो चीन की तरह रातों-रात त्वरित गति से स्वास्थ्य ढांचा तैयार हो जाता, ऑक्सीजन के सिलेंडर सड़कों पर ऐसे बिखरे पड़े रहते कि कोई भी घर से बाहर निकलता और सिलेंडर उठाकर ले जाता!

यह बहुत ही मुश्किल समय है. टांग खिंचायी, कुतर्कों से वार करने, मजे लेते हुए मुस्कुराने, पीएम को अपशब्दों से कोसने आंख मारने के इमोजी भेजने के लिए बहुत लंबा समय पड़ा है. फिलहाल समय एक-दूसरे का हाथ पकड़ने का है. राजा को ठोस ज्ञान के आधार पर सलाह देने का समय है. विपदा बहुत ही बड़ी है. अपने किसी पड़ोसी की ओर हाथ बढ़ाएं, किसी मित्र का हाल-चाल बूझकर उसकी मदद करें, दुख साझा करें. जो चीज चाहिए, उसका निर्माण समय अपने आप कर देगा! लेकिन सबसे बड़ा सवाल कुछ और ही है और इसका जवाब करोड़ों देशवासियों को मिलना जरूरी है. सवाल यह कि ये "दोगले" आखिर चाहते क्या हैं ??

(इस लेख में व्यक्त किये गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। लेख के लेखक मनीष शर्मा हैं जोकि देश के शीर्ष टेलीविजन न्यूज चैनल में कार्यरत हैं। लेख को उनके फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है।)

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