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भारतीय शास्त्रों - ग्रन्थों को हथियाने की मजहबी साजिश

Update: 2019-10-21 13:39 GMT

-मनोज ज्वाला

'संस्कृत भाषा का आविष्कार सेंट टॉमस ने भारत में ईसाइयत का प्रचार करने के लिए एक औजार के रूप में किया था और वेदों की उत्पत्ति सन 150 ईस्वी के बाद ईसा मसीह की शिक्षाओं से हुई है।' जी हां! चौंकिए मत, आगे भी पढ़िये। भारत के प्राचीन शास्त्रों-ग्रन्थों को गुप-चुप, शांतिपूर्वक हथियाने में लगे तथाकथित पश्चिमी विद्वानों का यह भी दावा है कि 'भारत का बहुसंख्यक समुदाय मूल रूप से ईसाई ही है। अर्थात 'नूह' के तीन पुत्रों में से दो की संततियों के अधीन रहने को अभिशप्त 'हैम' के वंशजों का समुदाय है। किन्तु, भ्रष्ट होकर मूर्तिपूजक बन गया तो 'हिन्दू' या 'सनातनी' कहा जाने लगा।' उनका यह भी दावा है कि गीता और महाभारत भी ईसा की शिक्षा के प्रभाव में लिखे हुए ग्रन्थ हैं। साथ ही, यह भी कि दक्षिण भारत के महान संत-कवि तिरुवल्लुवर तो पूरी तरह से ईसाई थे। उन्हें ईसा के प्रमुख शिष्यों में से एक सेंट टॉमस ने ईसाइयत की शिक्षा दी थी। इस कारण उनकी कालजयी रचना 'तिरुकुरल' में ईसा की शिक्षायें ही भरी हुई हैं। भारत के ज्ञान-विज्ञान की चोरी करते रहने वाले पश्चिम के 'बौद्धिक चोरों' की ऐसी सीनाजोरी का आलम यह है कि कतिपय भारतीय विद्वान ही नहीं, सत्ता-प्रतिष्ठान भी उनकी हां में हां मिलाते रहे हैं। किसी सफेद झूठ को हजार मुखों से हजार बार कहलवा देने, किताबों में लिखवा देने से वह सच लगने लगता है। इसी रणनीति के तहत ईसाई-विस्तारवाद के झंडाबरदार बुद्धिजीवी-लेखक पिछली कई सदियों से 'नस्ल-विज्ञान' और 'तुलनात्मक भाषा-विज्ञान' नामक अपने छद्म-शास्त्रों के सहारे समस्त भारतीय वाङ्ग्मय का अपहरण करने में लगे हुए हैं। चिन्ताजनक बात यह है कि अपने देश का बुद्धिजीवी भी इस सरेआम बौद्धिक चोरी से या तो अनजान है या जान-बूझकर मौन है।

गौरतलब है कि माल-असबाब की चोरी करने के लिए घरों में घुसने वाले चोर जिस तरह से सेंधमारी करते हैं, उसी तरह की तरकीबों का इस्तेमाल इन 'बौद्धिक चोरों' ने भारतीय वाङ्ग्मय में घुसने के लिए किया। सबसे पहले इन लोगों ने 'नस्ल-विज्ञान' के सहारे आर्यों को यूरोपीय-मूल का होना प्रतिपादित कर गोरी चमड़ी वाले ईसाइयों को सर्वश्रेष्ठ आर्य व उतर-भारतीयों को दूषित आर्य एवं दक्षिण भारतीयों को आर्य-विरोधी 'द्रविड़' घोषितकर भारत में आर्य-द्रविड़ संघर्ष का कपोल-कल्पित बीजारोपण किया। फिर अपने 'तुलनात्मक भाषा विज्ञान' के सहारे संस्कृत को यूरोप की ग्रीक व लैटिन भाषा से निकली हुई भाषा घोषितकर तमिल-तेलगू को संस्कृत से भी पुरानी भाषा होने का मिथ्या-प्रलाप करते हुए विभिन्न भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अपने मनमाफिक अनुवाद से बे-सिर-पैर की स्थापनाओं को जबरिया प्रमाणित-प्रचारित भी कर दिया।

मालूम हो कि दक्षिण भारत की तमिल भाषा में 'तिरुकुरल' वैसा ही लोकप्रिय सनातनधर्मी ग्रन्थ है, जैसा उतर भारत में रामायण, महाभारत अथवा गीता। इसकी रचना वहां के महान संत कवि तिरुवल्लुवर ने की है। 19वीं सदी के मध्याह्न में एक कैथोलिक ईसाई मिशनरी जार्ज युग्लो पोप ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया, जिसमें उसने प्रतिपादित किया कि यह ग्रन्थ 'अ-भारतीय' तथा 'अ-हिन्दू' है और ईसाइयत से जुड़ा हुआ है। उसकी इस स्थापना को मिशनरियों ने खूब प्रचारित किया। उनका यह प्रचार जब थोड़ा जम गया, तब उन्होंने उसी अनुवाद के हवाले से यह कहना शुरू कर दिया कि 'तिरुकुरल' ईसाई-शिक्षा का ग्रन्थ है और इसके रचयिता संत तिरुवल्लुवर ने ईसाइयत से प्रेरणा ग्रहण कर इसकी रचना की थी। ताकि, अधिक से अधिक लोग ईसाइयत की शिक्षाओं का लाभ उठा सकें। इस दावा की पुष्टि के लिए उन्होंने उस अनुवादक द्वारा गढ़ी गई उस कहानी का सहारा लिया, जिसमें यह कहा गया है कि ईसा के एक प्रमुख शिष्य सेंट टॉमस ने ईस्वी सन 52 में भारत आकर ईसाइयत का प्रचार किया। उसी दौरान तिरुवल्लुवर को उसने ईसाई धर्म की दीक्षा दी थी। हालांकि मिशनरियों के इस दुष्प्रचार का कतिपय निष्पक्ष पश्चिमी विद्वानों ने उसी दौर में खंडन किया था, किन्तु उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार समर्थित उस मिशनरी प्रचार की आंधी में उनकी बातें यों ही उड़ गईं। फिर तो मजहबी मिशनरी संस्थाएं इस झूठ को सच साबित करने के लिए ईसा-शिष्य सेंट टॉमस के भारत आने और हिन्द महासागर के किनारे ईसाइयत की शिक्षा फैलाने सम्बन्धी किसिम-किसिम की कहानियां गढ़कर अपने-अपने स्कूलों में पढ़ाने लगीं। तदोपरान्त उन स्कूलों में ऐसी शिक्षा से शिक्षित हुए भारत की नई पीढ़ी के लोग इस नये ज्ञान को और व्यापक बनाने के लिए इस विषय पर विभिन्न कोणों से शोध-अनुसंधान करने लगे। भारतीय भाषा-साहित्य में पश्चिमी घुसपैठ को उजागर करने वाले विद्वान लेखक राजीव मलहोत्रा ने अपनी पुस्तक 'ब्रेकिंग इण्डिया' में ऐसे कई शोधार्थियों में से एक तमिल भारतीय एम. देइवनयगम के तथाकथित शोध-कार्यों का विस्तार से खुलासा किया है। उनके अनुसार, देइवनयगम ने मिशनरियों के संरक्षण और उनके विभिन्न शोध-संस्थानों के निर्देशन में अपने कथित शोध के आधार पर यह दावा कर दिया है कि 'तिरुकुरल' ही नहीं, बल्कि चारों वेद और भागवत गीता, महाभारत, रामायण भी ईसाई-शिक्षाओं के प्रभाव से प्रभावित एवं उन्हीं को व्याख्यायित करने वाले ग्रन्थ हैं। संस्कृत भाषा का आविष्कार ही ईसाईयत के प्रचार हेतु हुआ था। उसने वेदव्यास को द्रविड़ बताते हुए उनकी समस्त रचनाओं को गैर-सनातनधर्मी होने का दावा किया है। अपने शोध-निष्कर्षों को उसने 18वीं शताब्दी के यूरोपीय भाषाविद विलियम जोन्स की उस स्थापना से जोड़ दिया है, जिसके अनुसार सनातन धर्म के प्रतिनिधि-ग्रन्थों को 'ईसाई सत्य के भ्रष्ट रूप' में चिन्हित किया है।

सन 1969 में देइवनयगम की एक शोध-पुस्तक प्रकाशित हुई थी 'वाज तिरुवल्लुवर ए क्रिश्चियन?' उसमें देइवनयगम ने लिखा है कि 'सन 52 में ईसाइयत का प्रचार करने भारत आये सेंट टॉमस ने तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर का धर्मान्तरण कराकर उन्हें ईसाई बनाया था'। अपने इस मिथ्या-प्रलाप की पुष्टि के लिए उसने संत-कवि की कालजयी कृति- 'तिरुकुरल' की कविताओं की प्रायोजित व्याख्या भी कर दी और उसकी सनातन-धर्मी अवधारणाओं को ईसाई-अवधारणाओं में तब्दील कर दिया। खास बात यह है कि उस किताब की भूमिका तमिलनाडु की 'द्रमुक' सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा लिखी गई है।

इस बौद्धिक झूठ को मिले उस राजनीतिक संरक्षण से प्रोत्साहित होकर देइवनयगम दक्षिण भारतीय लोगों को 'द्रविड़' और उनके धर्म को 'ईसाइयत के निकट, किन्तु सनातन धर्म से पृथक' प्रतिपादित करने के चर्च प्रायोजित अभियान के तहत 'ड्रेवेडियन रिलीजन' नामक पत्रिका भी प्रकाशित करता है। उस पत्रिका में लगातार यह दावा किया जाता रहा है कि 'सन 52 में भारत आये सेंट टॉमस द्वारा ईसाइयत का प्रचार करने के औजार के रूप में संस्कृत का उदय हुआ और वेदों की रचना भी ईसाई शिक्षाओं से ही दूसरी शताब्दी में हुई है, जिन्हें धूर्त ब्राह्मणों ने हथिया लिया'। वह यह भी प्रचारित करता है कि 'ब्राह्मण, संस्कृत और वेदान्त बुरी शक्तियां हैं। उन्हें तमिल समाज के पुनर्शुद्धिकरण के लिए नष्ट कर दिये जाने की जरूरत है।' ऐसी वकालत करने की पीछे वे लोग सक्रिय हैं, जिनकी पुरानी पीढ़ी के विद्वानों-भाषाविदों विलियम जोन्स व मैक्समूलर आदि ने 18वीं सदी में ही संस्कृत को ईसा-पूर्व की और भारतीय आर्यों की भाषा होने पर मुहर लगा रखी है। दरअसल, संस्कृत को द्रविड़ों की भाषा बताने वाले इन साजिशकर्ताओं की रणनीति है- दो कदम आगे और दो कदम पीछे चलना।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

 

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