आपातकाल की आपबीती:विद्यालय की गणवेश में जेल की दहलीज तक

विनोद दुबे

Update: 2025-12-27 06:38 GMT

आपातकाल का दौर केवल नेताओं और संगठनों की परीक्षा नहीं था, बल्कि उसने यह भी दिखाया कि राष्ट्रभक्ति की लौ उम्र की मोहताज नहीं होती।

जब डर का माहौल था, तब कुछ किशोर ऐसे भी थे, जो विद्यालय की गणवेश में हाथों में पर्चे और जुबान पर नारे लेकर सड़कों पर उतर आए। भोपाल के आनंद नगर निवासी दिलीप कुमार शर्मा उन दिनों मात्र पंद्रह वर्ष के थे, लेकिन उनका साहस युवाओं से कहीं बड़ा था। यह संस्मरण उस समय की कहानी है, जब अवयस्कों को भी हथकड़ी लगाकर जेल भेजा गया।

संस्मरण - विद्यालय की गणवेश, हाथ में आपातकाल के विरोध में छपे पर्चे और जुबान पर सरकार के खिलाफ नारे। यह दृश्य भोपाल की सड़कों पर उस समय दिखा, जब भय और चुप्पी का वातावरण छाया हुआ था। दिलीप कुमार शर्मा आज पैंसठ वर्ष के हैं, फिर भी उस दौर को याद कर भावुक हो उठते हैं। वे बताते हैं कि आपातकाल के विरोध में आक्रोश तो चारों ओर था, लेकिन आंदोलन का रास्ता चुनने का साहस हर किसी में नहीं था।

संघ की शाखाओं में वीर शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह जैसी राष्ट्रभक्तों की कहानियों ने किशोर मन को भीतर तक झकझोर दिया था। इसी प्रेरणा ने अनिश्चित काल तक जेल जाने के भय के बावजूद आंदोलन का संकल्प मजबूत किया।

दिलीप शर्मा बताते हैं कि वे सभी नौ साथी अवयस्क थे। न तो परिजनों को जानकारी थी और न ही संघ के पदाधिकारियों को। गिरफ्तारी की आशंका के कारण आंदोलन से पहले बाजार से माला खरीदी गई और एक-दूसरे को पहनाई। यह एक तरह से अंतिम तैयारी थी। इसके बाद पर्चे बांटते हुए और नारे लगाते हुए वे सड़कों पर निकल पड़े।

ये सभी छात्र अलग-अलग विद्यालयों की आठवीं से ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते थे। उम्र पंद्रह से सोलह वर्ष के बीच थी। दिलीप शर्मा उस समय दसवीं के छात्र थे। पहले विद्यालय परिसर और रास्तों में पर्चे बांटे गए। फिर तय किया गया कि अब खुलकर आंदोलन किया जाएगा। तपन भौमिक, दौलत भारानी सहित नौ साथी विद्यालय की गणवेश में शहर में निकल पड़े। नारेबाजी के साथ जैसे-जैसे भीड़ बढ़ी, पुलिस हरकत में आई।

पुलिस ने चार छात्रों को गिरफ्तार कर पहले चौकी और फिर कोतवाली ले जाया। वहां चौबीस घंटे तक पूछताछ की गई और पिटाई भी हुई। इसके बाद छत्तीस घंटे बाद सभी को जेल भेज दिया गया। अवयस्क होने के बावजूद हथकड़ी लगाई गई और किसी प्रकार की रियायत नहीं दी गई।

दिलीप शर्मा बताते हैं कि हिरासत के दौरान भोजन की स्थिति बेहद खराब थी। छत्तीस घंटे में केवल तीन-तीन पूड़ियां दी गईं। जब जेल पहुंचे, तब भोजन का समय समाप्त हो चुका था। सभी भूख से बेहाल थे। उन्हें खूंखार बंदियों के साथ बंद किया गया। उनकी हालत देखकर एक बंदी को दया आ गई। उसने स्वयं भोजन नहीं किया और अपनी थाली तीनों किशोरों में बांट दी। यह मानवीयता उस भयावह माहौल में एक उजली स्मृति बन गई।

अगले दिन संघ के अन्य पदाधिकारियों को जानकारी मिली। प्रयास कर सभी किशोरों को मौसा बंदियों के बैरक नंबर छह में स्थानांतरित कराया गया। दिलीप शर्मा बताते हैं कि नाबालिग अवस्था में ही उन पर मौसा लगाया गया। तीन महीने बाद मीसा से रिहा किया गया, लेकिन एक सप्ताह बाद डीआईआर में फिर गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। बाद में परिजनों ने जमानत कराई, पर आपातकाल समाप्त होने तक उन्हें पेशियों पर जाना पड़ा।

गिरफ्तारी के समय तक परिजनों को कोई जानकारी नहीं थी। सूचना मिली तब तक वे जेल में थे। सर्दी के दिनों में दो दिन तक कपड़ों के बिना ठिठुरते रहे। बाद में परिजन कपड़े और आवश्यक सामान लेकर पहुंचे। परिजनों ने माफीनामा लिखने का दबाव बनाया, लेकिन उन्होंने साफ इनकार कर दिया। इससे परिजन नाराज भी हुए। पिता बीएचईएल में नौकरी करते थे, इसलिए आर्थिक संकट नहीं था, लेकिन मानसिक पीड़ा गहरी थी।

दिलीप शर्मा बताते हैं कि कोतवाली में थाना प्रभारी सबलोक ने आंदोलन के लिए प्रेरित करने वालों के नाम पूछे। मना करने पर पिटाई की गई। साथी दौलत भारानी टीआई की मार से बेहोश हो गए। इसके बाद पुलिस ने पिटाई बंद की और सभी को जेल भेज दिया।

आज भी दिलीप कुमार शर्मा मानते हैं कि वह अनुभव पीड़ादायक था, लेकिन उसी ने यह सिखाया कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए उम्र नहीं, साहस चाहिए।

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