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फिर दलित प्रेमी कौन?

Update: 2019-05-13 16:09 GMT

नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव-2019 के सातवें और अंतिम चरण की 69 सीटों के लिए आखिरी घमासान में दलित मुद्दा अब जोर पकड़ता दीख रहा है। बसपा प्रमुख मायावती अगर खुद को दलितों का रहनुमा समझती हैं तो राजस्थान के अलवर में दलित महिला के साथ बलात्कार जैसी जघन्य घटना के बाद क्यों नहीं गहलोत सरकार से समर्थन वापिस ले लेती? यही सवाल जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मायावती से पूछ लिया तो जवाब देने के बजाए वे बिफ़र पड़ीं। यानी सत्ता के लिए न सिद्धान्त और न ही विचार धारा। फिर दलितप्रेमी होने का स्वांग किस लिए? क्या शिक्षित दलितों को मायावती इतना नकारा और गया गुजरा समझतीं हैं कि वे उनके असली और नकली चेहरे नही पहचानते?

अलवर का हालिया दलित महिला के साथ बलात्कार कांड किसी भी सभ्य समाज को शर्मसार करने व झकझोरने वाला कांड है। पर गहलोत सरकार इस पर लगातार न केवल अपनी बल्कि कांग्रेस की किरकिरी करवा रही है। गहलोत चाहते तो दोषियों को अबतक सामने खड़ा कर देते। लेकिन, जिस तरह की पूरे मामले में लीपापोती हो रही है, उससे लगता है कि सरकार कही न कहीं आरोपियों को पनाह देती नजर आ रही है। यही कारण है कि अलवर की लपटें देश के दूसरे क्षेत्रों में पहुँच रहीं हैं। क्या इसके लिए कांग्रेस और बसपा दोनों ही समान रूप से जिम्मेदार नहीं? पिछले कुछेक सालों से मायावती की राजनीति दलित समाज के हितों से बढ़कर सत्ता समझौते के लिए ज्यादा होती नजर आ रही है। इसका भान दलित समाज को अब होने लगा है। इस हकीकत की ही यह परिणिति है कि 2014 में दलितों ने मोदी को झूर कर वोट देकर भाजपा को 71 के पार पहुँचाया था।

आजादी के बाद लंबे समय तक पहले कांग्रेस ने दलितों को छला। उन्हें वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया। उनका भावनात्मक शोषण किया। कांग्रेस के बाद यही काम बसपा कर रही है। मायावती का रहन-सहन। उनका राजसी अंदाज बताता है मानो वे इंद्रलोक से उतरी कोई अप्सरा हों। उनके इस अंदाज को शिक्षित दलितों ने दलित ब्राह्मणवाद की संज्ञा दी थी। पार्टी में टिकट के नाम पर करोड़ों की धन उगाही, सरकार में भ्रष्टाचार तो जैसे चरम पर पहुंच गया था। उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के अनगिनत मामले चल रहे हैं। सपा के साथ बेमेल गठबंधन इसी कृत्य की परिणिति है।

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