वर्ष 2025 के तानसेन सम्मान से अलंकृत संतूर सम्राट पंडित तरुण भट्टाचार्य से विशेष बातचीत

चंद्रवेश पांडेय

Update: 2025-12-08 06:10 GMT

संगीत ही जीवन है, और हर राग एक प्रार्थना  

भोपाल। भारतीय शास्त्रीय संगीत के विशाल आकाश में यदि संतूर की झंकार किसी प्रार्थना की तरह गूंजती है, तो उसके स्वर-साधक हैं पंडित तरुण भट्टाचार्य। मैहर घराने के गौरव, भारत रत्न पंडित रविशंकर जी के परम शिष्य, और भारतीय संगीत को विश्व मंच तक पहुँचाने वाले अग्रदूत। उनकी वादन शैली में तकनीक, रागदारी और भावनात्मक गहराई का अनूठा संगम देखने को मिलता है। हाल ही में उन्होंने अपने नए राग ‘त्रिवेणी’ की रचना की है, जो भारत की तीन नदियों - गंगा, यमुना और नर्मदा - को समर्पित है।उनका कहना है कि संगीत ही जीवन है और हर राग एक प्रार्थना है। मध्यप्रदेश सरकार ने उन्हें वर्ष 2025 के राष्ट्रीय तानसेन सम्मान से विभूषित किया है। सम्मान मिलने से अभिभूत पंडित तरुण भट्टाचार्य ने कहा यह गुरुजनों का प्रताप है जो मुझे संगीत सम्राट तानसेन के नाम का सम्मान दिया जा रहा है, मैं तो वास्तव में निमित्त मात्र हूँ,ये मेरे लिए तम्माम बड़े सम्मानों से बढ़कर है। उन्होंने स्वदेश से संगीत, साधना और संस्कृति के संगम परविस्तार से बात की . प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश -

प्रश्न :आप ग्वालियर पहले भी गए हैं ,तानसेन समारोह में प्रस्तुति दी है ,सम्मान मिलने पर क्या अनुभूति है ?

उत्तर :हाँ , मैं पहले भी तानसेन समारोह में दो से तीन बार जा चुका हूँ ,वहां का माहौल ही अलग है। सबसे खास बात ये की वहां के श्रोता संगीत के जानकार हैं और उतनी ही तन्मयता से मेहमान कलाकार को सुनते हैं। ग्वालियर वैसे भी ख्याल गायकी का बड़ा घराना रहा है। जहाँ तक सम्मान मिलाने की बात है तो मैंने कभी ऐसा सोचा नहीं था कि तानसेन के नाम का ये प्रतिष्ठित सम्मान मुझे मिलेगा। जब इसकी सूचना मिली तब मैं कोलकाता से बहार था। उसके बाद जैसे जैसे लोगों को पता चला ,बहुत बधाइयाँ मिली। वास्तव में मैं अभिभूत हूँ। ये मेरे लिए तानसेन जी का आशीर्वाद है।

प्रश्न: पंडितजी, आपके नए राग त्रिवेणी के पीछे क्या प्रेरणा रही?

उत्तर : जब मैंने कुछ वर्ष पहले राग गंगा की रचना की थी, तब सोचा नहीं था कि यह एक श्रृंखला बनेगी। लेकिन महामारी के दौरान जब जीवन ठहर-सा गया, तब नदियों का प्रवाह मुझे जीवन का प्रतीक लगा। इससे पूर्व हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने स्वच्छ गंगा अभियान की घोषणा की। गंगा, यमुना और नर्मदा - ये केवल नदियाँ नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की आत्मा हैं। उसी भाव ने मुझे ‘त्रिवेणी’ रचने के लिए प्रेरित किया। यह राग तीन रागों - ललित, रागेश्री और जोगेश्वरी - का संगम है। ललित ताजगी और नई शुरुआत का प्रतीक है, रागेश्री मधुरता और प्रेम की गहराई लाता है, जबकि जोगेश्वरी भक्ति और विरह का रंग भरता है। इन तीनों के मेल से बना ‘त्रिवेणी’ मनुष्य की समस्त भावनाओं को एक साथ बहा ले जाने वाला राग है - ठीक वैसे ही जैसे तीन नदियाँ संगम पर मिलती हैं।

प्रश्न: आपने यह राग अपने गुरु पंडित रविशंकर जी को भी समर्पित किया है?

उत्तर: मेरे जीवन में गुरुजी सर्वस्व हैं। वे केवल कलाकार नहीं, एक दार्शनिक, एक दूरदृष्टा थे। उन्होंने हमें सिखाया कि संगीत में ठहराव नहीं, केवल प्रवाह होना चाहिए। ‘त्रिवेणी’ उनकी 100 वीं जयंती पर मेरी श्रद्धांजलि के रूप में था । गुरुजी ने हमेशा हमें प्रेरित किया कि “कुछ नया करो, क्योंकि मौलिकता ही तुम्हें अमर बनाती है।” यह राग उसी भावना का प्रतीक है - एक नई शुरुआत, एक नई आशा और हमारी नदियों की तरह सतत प्रवाहित जीवनदृष्टि।संगीत जगत के बड़े विद्वानों ने मेरे इस नए राग को मान्यता दी और पद्म विभूषण विदुषी गिरिजा देवी ने इसकी सीडी जारी की।

प्रश्न: आपने इस राग को नदियों के संरक्षण से जोड़ा है, इसके पीछे क्या मंशा रही ?

उत्तर: बिल्कुल। संगीत केवल आनंद नहीं देता, वह चेतना भी जगाता है। जब कोई व्यक्ति किसी राग की तन्मयता में डूबता है, तो उसका मन निर्मल होता है। यही निर्मलता अगर हम प्रकृति के प्रति महसूस करें, तो नदियाँ, जल, वायु - सब सुरक्षित रहेंगे। ‘त्रिवेणी’ का संदेश यही है - अभी नहीं तो कभी नहीं ! हमें जल की रक्षा करनी होगी, क्योंकि नदियों का जीवन ही मानव जीवन की गारंटी है।


प्रश्न: आपने जी-20 समिट के दौरान भी रो एक विशेष कार्यक्रम की प्रस्तुत की थी। वह अनुभव कैसा रहा?

उत्तर: हमारे सुर तीन दशकों से महाद्वीपों में गूंज रहे हैं। जी-20 के अवसर पर वह प्रस्तुति विशेष रही, क्योंकि वह केवल एक संगीत कार्यक्रम नहीं था, बल्कि विश्वगुरु भारत की भावना का प्रतीक था। आज भारत विश्व मंच पर नेतृत्व कर रहा है - और मुझे गर्व है कि संगीत और संस्कृति ने इस छवि को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब मैं विदेशों में संतूर बजाता हूँ और लोग मंत्रमुग्ध हो जाते हैं, तब महसूस होता है कि यह सिर्फ मेरा नहीं, बल्कि पूरे भारत का स्वर है जो गूंज रहा है।इस प्रस्तुति में मेरे मित्र प्रख्यात बांसुरी वादक पंडित रोनू मुजुमदार भी मेरे साथ थे।

प्रश्न: आप शततंत्री वीणा को पुनर्जीवित करने की बात करते हैं। यह आपकी साधना का नया अध्याय है क्या?

उत्तर: निश्चय ही। बहुत कम लोग जानते हैं कि संतूर का मूल स्वरूप भारत का ही है। ऋग्वेद में ‘शततंत्री वीणा’ यानी सौ तारों वाली वीणा का उल्लेख मिलता है। कालांतर में हम इस वाद्य को भूल गए और उसका श्रेय मध्य एशिया को देने लगे। मेरी कोशिश है कि हम अपनी इस धरोहर को पुनः जीवंत करें। मैं चाहता हूँ कि आने वाली पीढ़ियाँ इसे केवल इतिहास की वस्तु न मानें, बल्कि घर-घर में इसकी ध्वनि फिर गूंजे। यही मेरा विनम्र योगदान होगा , इस अमृतकाल में अपनी खोई हुई सांस्कृतिक विरासत को पुनः स्थापित करने का।

प्रश्न: आपने पिछले दिनों न्यूयॉर्क में भारतीय और लैटिन अमेरिकी कलाकारों के साथ एक फ्यूजन प्रस्तुत किया। वह अनुभव कैसा रहा?

उत्तर: वह अनुभव अद्भुत था। भारतीय वीणा, लैटिन अमेरिकी यूकुलेले, शहनाई और गिटार - सबने मिलकर एक वैश्विक संगीत संसार रच दिया। विभिन्न परंपराओं के ये कलाकार जब एक मंच पर आए, तो लगा कि संगीत सचमुच सीमाओं से परे है। वह प्रदर्शन केवल मनोरंजन नहीं था, बल्कि यह संदेश था कि संगीत ही सबसे बड़ी मानवीय भाषा है। जहाँ शब्द चूक जाते हैं, वहाँ सुर संवाद करते हैं।

प्रश्न :संगीत में गुरु शिष्य परंपरा का खासा महत्व है आप इसे कैसे देखते हैं ?

उत्तर : भारतीय संगीत में प्रचलित गुरु - शिष्य परम्परा आज के दौर में भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जीतनी पहले थी। इस परंपरा में शिष्य को गुरु का सतत सानिध्य प्राप्त होता है। इसका लाभ यह होता है की शिष्य को गुरु से अनेक ऐसी बातें सीखने को मिलती हैं जो कुछ घंटों में नहीं सीखी जा सकती और जो जीवन के दूसरे क्षेत्रों में काम आती हैं। गुरु का शिष्य परिवार आपस में भाईचारा रखते हुए एक दूसरे के प्रर्ति आदर प्रेम का भाव रखना सीखता है फलस्वरूप एक दूसरे से गलाकाट स्पर्धा न होकर सामंजस्य रखते हुए शिष्य को अपनों से बड़ों के प्रति सम्मान का भाव रखना व समाज के प्रति उत्तरदायित्व का भी बोध होता है। शिष्य इस प्रकार गुरु के परिवार में शामिल हो जाता है जैसे वह उसी परिवार का अंग हो। पंडित रविशंकर इसके सबसे अच्छे उदहारण रहे । हमारे जैसे शिष्य उनके परिवार का हिस्सा रहे। पंडित रविशंकर बचपन से ही उस्ताद अलाउद्दीन के घर में रहे। उन्होंने पुत्रवत शिक्षा दी। यह परंपरा संस्कारवान बनाती है।

प्रश्न: आने वाले समय में आपकी योजनाएँ क्या हैं?

उत्तर: मैं ‘राग त्रिवेणी’ के संदेश को हर श्रोता तक पहुँचाना चाहता हूँ - केवल एक संगीत प्रस्तुति के रूप में नहीं, बल्कि एक चेतना के रूप में। साथ ही, शततंत्री वीणा के पुनर्जागरण का कार्य मेरी प्राथमिकता है। मेरा सपना है कि भारतीय संगीत - शास्त्रीय, लोक और फ़िल्म संगीत सहित - विश्व का सबसे बड़ा संगीत उद्योग बने। और यदि उसमें मेरा थोड़ा-सा योगदान भी जुड़ सके, तो मैं अपने जीवन को सार्थक मानूँगा।

"पंडित तरुण भट्टाचार्य का जीवन स्वयं एक राग की तरह है - साधना, संवेदना और सृजन का राग। उनकी वाणी में विनम्रता है, उनके स्वर में आशा। वे मानते हैं कि संगीत केवल सुना नहीं जाता, जिया जाता है। उनके शब्दों में - “संगीत आत्मा की नदी है , उसे बहते रहना चाहिए, निर्मल, निस्सीम, निरंतर।” और शायद यही त्रिवेणी का सच्चा अर्थ भी है - जीवन, प्रकृति और साधना का अनंत संगम।

Tags:    

Similar News