आजादी के प्रथम महासमर में क्रांतिवीर तात्या टोपे का बलिदान : अमूल्य धरोहर एवं प्रेरणा

प्रहलाद भारती पूर्व विधायक एवं पूर्व उपाध्यक्ष म.प्र. पाठ्यपुस्तक निगम

Update: 2024-04-16 14:03 GMT

वेबडेस्क। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायक रामचन्द्र पांडुरंगराव येवलेकर अर्थात 'तात्या टोपे' का 18 अप्रैल को बलिदान दिवस है। अपनी वीरता और रणनीति के लिये विख्यात महानायक तात्या टोपे का जन्म 1814 में येवला ग्राम में एक देशस्थ कुलकर्णी परिवार में हुआ था। तात्या की माँ का नाम श्रीमती रुक्मिणी बाई और पिता पाण्डुरंगराव भट्ट येवलेकर थे। तात्या का परिवार 1818 में नाना साहब पेशवा के साथ ही बिठूर आ गया था। अंग्रेजों द्वारा हर कदम पर भारत और भारतीयों के विरुद्ध खेली जा रही चालों के विरुद्ध एक देशव्यापी अभियान संगठित रूप से चलाने में नाना साहब पेशवा के साथ तात्या टोपे का एक बड़ा योगदान था। यह अभियान 1857 के संग्राम से काफी पहले से आरम्भ होकर तात्या टोपे की मृत्यु तक निर्बाध चलता रहा। 1857 की क्रांति में तात्या टोपे ने छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा शुरू की गई ‘गुरिल्ला युद्धशैली‘ (छापामार युद्धशैली) को अपनाकर आजादी की लड़ाई को अपनी शहादत तक निरन्तर जारी रखा।

 तात्या टोपे के साहसपूर्ण कार्य और विजय अभियान रानी लक्ष्मीबाई के साहसिक कार्यों और विजय अभियानों से कम रोमांचक नहीं थे। रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध अभियान जहां केवल झांसी, कालपी और ग्वालियर के क्षेत्रों तक सीमित रहे थे वहीं तात्या टोपे एक विशाल राज्य के समान कानपुर से राजपूताना और मध्य भारत तक फैल गए थे। कर्नल ह्यूरोज, जो मध्य भारत युद्ध अभियान के सर्वेसर्वा थे, ने यदि रानी लक्ष्मीबाई की प्रशंसा ‘उन सभी में सर्वश्रेष्ठ वीर‘ के रूप में की थी तो मेजर मीड को लिखे एक पत्र में उन्होंने तात्या टोपे के विषय में यह कहा था कि - "वह भारत की आजादी के युद्ध के राजनेताओं में बहुत ही विप्लवकारी प्रकृति के थे और उनकी संगठन क्षमता भी प्रशंसनीय थी।'‘ तात्या टोपे ने आजादी के आंदोलन के उस समय के सभी क्रांतिकारी नेताओं की अपेक्षा शक्तिशाली ब्रिटिश शासन की नींव को कहीं अधिक ताकत और सामर्थ्य के साथ हिलाकर रख दिया था। उन्होंने शत्रु के साथ लंबे समय तक संघर्ष जारी रखा। जब स्वतंत्रता संघर्ष के सभी नेता एक-एक करके अंग्रेजों की श्रेष्ठ सैनिक शक्ति से पराभूत हो गए तो उस स्थिति में भी तात्या टोपे अकेले ही क्रांति की पताका फहराते रहे। उन्होंने लगातार नौ महीनों तक उन आधे दर्जन ब्रिटिश कमांडरों को छकाया जो उन्हें पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। वे अपराजेय ही बने रहे। तात्या टोपे अंग्रेज सेनापतियों को नाकों चने चबवाते रहे। उदाहरण है उत्तर में अलवर से लेकर दक्षिण में नयापुरा तक और पश्चिम में उदयपुर से लेकर पूर्व में सागर तक का इतिहास।

तात्या के व्यक्तित्व में विशिष्ट आकर्षण

तात्या के व्यक्तित्व में विशिष्ट आकर्षण था। जानलैंग ने जब उन्हें बिठूर में देखा था तो वे उनके व्यक्तित्व से प्रभावित नहीं हुए थे। उन्होंने तात्या के विषय में लिखा है कि - "वह औसत ऊंचाई, लगभग पांच फीट आठ इंच और इकहरे बदन के लेकिन दृढ़ व्यक्तित्व के थे। देखने में सुंदर नहीं थे। उनका माथा नीचा, नाक नासाछिद्रों के पास फैली हुई और दांत बेतरतीब थे। उनकी आंखें प्रभावी और चतुरता से भरी हुई थी। जैसी कि अधिकांश एशियावासियों में होती हैं किंतु उसके ऊपर उनकी विशिष्ट योग्यता के व्यक्ति के रूप में कोई प्रभाव नहीं पड़ा।‘'

तात्या न तो खूबसूरत हैं और न ही बदसूरत, किंतु वह बुद्धिमान हैं

 बाम्बे टाइम्स‘ के संवाददाता ने तात्या टोपे से उनकी गिरफ्तारी के बाद भेंट की थी और 18 अप्रैल 1859 के संस्करण में लिखा था कि- ‘‘तात्या न तो खूबसूरत हैं और न ही बदसूरत, किंतु वह बुद्धिमान हैं। उनका स्वभाव शांत और निर्बाध है। उनका स्वास्थ्य अच्छा और कद औसत है। उन्हें मराठी, उर्दू और गुजराती का अच्छा ज्ञान था। वे इन भाषाओं में धारा-प्रवाह बोल सकते थे। वह रूक-रूक कर, किंतु स्पष्ट रूप से, एक नपी-तुली शैली में बोलते थे। किंतु उनकी अभिव्यक्ति का ढंग अच्छा था और वे श्रोताओं को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। यह सच है कि तात्या अपनी वाक-शक्ति और समझाने की अपनी शक्ति से प्रायः अपने विरोधियों की सेनाओं को भी समझाकर अपने पक्ष में मिला लिया करते थे।‘‘

तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ 

पाड़ौन के जंगल में तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ। राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और उसकी गद्दारी के कारण तात्या टोपे 08 अप्रैल, 1859 को सोते समय में पकड लिए गये। रणबाँकुरे तात्या को कोई जागते हुए नहीं पकड सका। विद्रोह और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लडने के आरोप में 15 अप्रैल, 1859 को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। कोर्ट मार्शल के सब सदस्य अंग्रेज थे। परिणाम जाहिर था, उन्हें मौत की सजा दी गयी। शिवपुरी के किले में उन्हें तीन दिन बंद रखा गया। 18 अप्रैल 1859 को शाम पाँच बजे तात्या को अंग्रेज कंपनी की सुरक्षा में बाहर लाया गया और हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया। कहते हैं तात्या फाँसी के चबूतरे पर दृढ कदमों से ऊपर चढ़े और फाँसी के फंदे में स्वयं अपना गला डाल दिया। इस प्रकार तात्या टोपे मध्यप्रदेश और शिवपुरी जिले की मिट्टी का अभिन्न हिस्सा बन गये। 

तात्या सारे भारत के ’हीरो‘ बन गये

 कर्नल मॉलसन ने 1859 में 1857 की क्रांति का इतिहास लिखा है। उन्होंने लिखा है कि - "तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती की घाटियों के निवासियों के ’हीरो‘ बन गये हैं। सच तो ये है कि तात्या सारे भारत के ’हीरो‘ बन गये हैं।" पर्सीक्रास नामक एक अंग्रेज ने लिखा है कि - "भारत की आजादी के पहले समर 1857 की आजादी के आंदोलन की जंग में तात्या सबसे प्रखर मस्तिष्क के नेता थे। उनकी तरह कुछ और लोग होते तो अंग्रेजों के हाथ से भारत छीना जा सकता था। मित्र ही नहीं शत्रु भी तात्या टोपे के सैनिक अभियानों को जिज्ञासा और उत्सुकता से देखने और समझने का प्रयास करते थे। उनके विरोधी भी उनकी प्रशंसा करते थे।" कर्नल माल्सन ने उनके संबंध में कहा है ‘‘ भारत में संकट के उस क्षण में जितने भी सैनिक नेता उत्पन्न हुए, तात्या टोपे उनमें सर्वश्रेष्ठ थे।‘‘ सर जार्ज फॉरेस्ट ने उन्हें ‘‘ सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय नेता ‘‘ कहा है। आधुनिक अंग्रेजी इतिहासकार पर्सीक्रास स्टेडिंग ने सैनिक क्रांति के दौरान देशी पक्ष की ओर से उत्पन्न ‘विशाल मस्तिष्क‘ कहकर उनका सम्मान किया है। पर्सीकास स्टेंडिंग ने उनके विषय में यह भी लिखा है कि - ‘‘तात्या टोपे विश्व के प्रसिद्ध छापामार नेताओं में से एक थे।‘‘   

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