पुण्यतिथि 'प्रभात झा' : वे न्याय दिलाने तक की पत्रकारिता के पक्षधर थे

डॉ. सुरेश सम्राट

Update: 2025-07-25 10:57 GMT

बाएं से प्रथम पंक्ति में प्रभात झा जी 

संभवत: यह 1980 की बात होगी। मैं तब स्वदेश में ही था, जब प्रभात जी (श्री प्रभात झा) ने 'स्वदेश' ज्वाइन किया। उन दिनों जयकिशन शर्मा, महेश खरे, पुरुषोत्तम मालवीय, आलोक तोमर, विनोद सूरी, प्रभात आर्य, नवल गर्ग, शर्मा जी (व्यापार) के साथ बल्देव भाई शर्मा, और बालेन्द्र मिश्र भी 'स्वदेश' से जुड़ चुके थे। श्री श्रीवास्तव प्रबंधक के रूप में कार्य कर रहे थे। संपादक श्री राजेन्द्र शर्मा के स्नेह मेरे अनुशासन की महक पूरे कार्यालय में बिखरी रहती थी।

कार्य विभाजन के साथ उपलब्धियों और त्रुटियों पर रोज चर्चा होती थी। प्रभातजी के सहज प्रवेश के संबंध में बताया गया कि किसी पूर्व अनुभव के बिना वे पत्रकारिता से जुड़ रहे हैं। तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि 'इतिहास रच देने वालाÓ प्रभात जी का 'स्वदेशÓ प्रवेश, कभी धमाकेदार प्रवेश की संज्ञा ग्रहण करेगा। आलोक तोमर को सिटी का प्रभार मिलने से पहले महेश खरे और जयकिशन जी स्वयं सिटी रिपोर्टर रह चुके थे। आलोक तोमर के जनसत्ता में चले जाने के बाद भाई साहब ने प्रभात जी और हरिमोहन शर्मा को इस दिशा में आगे बढ़ाया। प्रभातजी को, भाई साहब ने 'खुला हाथÓ दिया, जिसे उस समय विशेष संवाददाता जैसी संज्ञा दी गई। फिर खुले हाथों से प्रभात जी ने ग्वालियर की पत्रकारिता को जो ऊँचाई दी, वह सबके सामने है। कुछ ही महीनों बाद भाई साहब ने उन्हे 'पालेकर अवार्ड में शामिल कर लिया। विचारधारा-निष्ठ होने के बावजूद, अन्य विचारधाराओं के प्रति वे सहिष्णु रहे। व्यवहार, मिलनसारिता और स्पष्टवादिता के साथ उनके जुड़ाव ने जो जनसम्पर्क बनाया वह एक कीर्तिमान है और उसका दूसरा उदाहरण दुर्लभ है। वे खबर की किसी (बीट) तक सीमित नहीं रहे। व्यष्टि से समष्टि तक की खबरों को ढूंढा, परखा, समेटा और फिर पूरी जिम्मेदारी के साथ उन्हें प्रकाशित किया। शोषित, पीड़ितों से जुड़ी खबरों के साथ वे तब तक स्वयं को जोड़े रखते थे, जब तक उन्हें न्याय नहीं मिल जाता था। तत्कालीन अधिकारी उनके इस मंतव्य को जल्दी ही समझ गए थे। वस्तुत: वे न्याय दिलाने तक की पत्रकारिता के पक्षधर थे।

पत्रकार संगठनों में बिना कोई पद लिए, उन्होंने जहाँ जरूरी समझा सक्रिय भागीदारी निभाई। प्रेस की स्वतंत्रता पर हुए किसी भी हमले का उन्होंने डटकर मुकाबला किया और अकेले ही डटे रहे। प्रेस की स्वतंत्रता पर आंच तक नहीं आने दी।

एक निश्चित विचारधारा के साथ लक्ष्य तय करने, फिर उन्हें प्राप्त करने के लिए कमर कस लेने, अभावों, उपेक्षाओं और रुकावटों की परवाह किए बगैर, उन्हें पा लेने का जो उदाहरण प्रभात जी ने जिया, उसके प्रति आज उन्हें चाहने वाले नतमस्तक हैं। पत्रकारिता उनका प्रथम प्रेम था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति समर्पण और उससे जुड़े मार्ग पर चलते रहना उनके संस्कार थे। इन्हीं दोनों के समन्वय ने उन्हें जिस ऊँचाई पर पहुंचाया, हम उसे भले ही लक्ष्य प्राप्ति कहें, लेकिन उनकी दृष्टि में वह सतत् प्रस्थान था केवल सतत् प्रस्थान। जून 1981 में मैंने 'दैनिक भास्कर Ó ज्वाइन कर लिया। इस तरह प्रभात जी का और मेरा स्वदेश में कुछ ही महीनों का साथ रहा। वस्तुत: यह वह दौर था जब ग्वालियर की पत्रकारिता के स्वर्ण युग के अध्याय लिखना शुरू हो चुके थे। प्रभात जी द्वारा रचे गए अध्याय को सदैव रेखांकित किया जाता रहेगा।

(लेखक : डॉ. सुरेश सम्राट, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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