SwadeshSwadesh

माफ करो 'महाराज, हमारा नेता 'कमलनाथ'

अतुल तारे

Update: 2018-12-15 05:15 GMT

सिंधिया फिर शिकस्त खा गए। आज से 25 साल पहले स्व. माधवराव सिंधिया मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे। बीते दिन फिर इतिहास दोहराया गया। राघौगढ़ रियासत के 'राजा' ने फिर एक बार 'ग्वालियर महाराज' को मात दे दी। यही नहीं 'राजा' ने वर्ष 2003 का व्यवहार भी लौटा कर अपने बड़े भाई कमलनाथ को गद्दी सौंप कर स्वयं के लिए 'किंग मेकर' की भूमिका सुनिश्चित कर ली। गौरतलब है कि तब श्री दिग्विजय सिंह को मुख्यमंत्री बनवाने में कमलनाथ की भी भूमिका थी। बेशक मध्यप्रदेश में सशक्त विपक्ष की मौजूदगी, दो कदम दूर लोकसभा चुनाव एवं आसन्न चुनौतियों के चलते एक परिपक्व नेतृत्व की आज जरूरत थी और कमलनाथ ही उसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त थे, पर यह भी एक सच्चाई है कि कांग्रेस ने हर नाजुक मौके पर ग्वालियर के साथ अन्याय ही किया है। श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का मुख्यमंत्री न बन पाना उसका एक और ताजा उदाहरण है।

इतिहास साक्षी है, पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी भी भाजपा की वरिष्ठतम नेत्री स्व. राजमाता के आभा मंडल से भयभीत रहीं। इतिहास के पन्नों को और पलटें तो राजमाता ने ही दमन के खिलाफ स्वर बुलंद कर कांग्रेस सरकार को अपदस्थ किया था। वह स्वयं कभी मुख्यमंत्री नहीं बनीं, यह अलग बात है। आपातकाल में स्व. श्रीमती गांधी ने राजमाता को जेल में भी रखा पर राजमाता अडिग रहीं। आपातकाल की भयावहता के बाद स्व. माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस की तरफ कदम बढ़ाए लेकिन स्व. श्रीमती गांधी इसके पक्ष में नहीं थी। यही कारण रहा कि 1977 का लोकसभा चुनाव माधवराव सिंधिया निर्दलीय लड़े। पर स्व. श्री संजय गांधी के दबाव के आगे श्रीमती गांधी झुकीं और माधवराव कांग्रेसी हुए। बेशक माधवराव सिंधिया कांग्रेस में आ गए, पर पहले स्व. अर्जुन सिंह एवं बाद में उनके राजनीतिक शिष्य दिग्विजय सिंह ने हमेशा कांग्रेस की गुटीय राजनीति में माधवराव को शिकस्त दी। एक के बाद एक शिकस्त के चलते माधवराव सिंधिया भी इतने खिन्न हो गए कि वे राज्य की राजनीति को ही 'डर्टी पालिटिक्स' कहने लगे। यह दौर वर्ष 1993 का ही था। लगभग तय था कि मध्यप्रदेश की कमान माधवराव सिंधिया को दी जाएगी। वह दिल्ली में इंतजार भी करते रहे कि भोपाल से बुलावा आएगा। पर तब कांग्रेस की राजनीति में स्थापित हो चुके एवं गांधी परिवार के करीबी कमलनाथ एवं अर्जुन सिंह ने मिलकर दिग्विजयसिंह की ताजपोशी करा दी। श्री सिंह 93 से 2003 तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और कांग्रेस की राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि इन सालों में माधवराव सिंधिया किस प्रकार प्रदेश की राजनीति में हाशिए पर आते गए। कालांतर में माधवराव सिंधिया की हादसे में दुखद मृत्यु हो गई और उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पिता की राजनीतिक विरासत संभाली। श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने पिता की तरह राजनीति नहीं करते। उन्होंने कई बार राघौगढ़, आरोन जो कि श्री सिंह का परम्परागत क्षेत्र है, शक्ति प्रदर्शन भी किया। नतीजा दोनों में राजनीतिक दूरी भी बढ़ी जो पहले 2013 के विधानसभा चुनाव में दिखी। तब भी मांग की गई थी कि श्री सिंधिया को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रस्तुत किया जाए पर यह नहीं हुआ। खैर सरकार भी नहीं बनी।

माफ करो 'महाराज', हमारा...

2018 में फिर यही मांग उठी। प्रदेश अध्यक्ष की मांग उठी पर श्री सिंधिया 2013 की तरह ही 2018 में प्रचार अभियान समिति के संयोजक ही रहे। 2013 में श्रीमती गांधी अध्यक्ष थी। 2018 में उनके बेटे राहुल गांधी। कांग्रेस में एक बड़े वर्ग में और कांग्रेस के बाहर भी ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाने की मांग उठी। ग्वालियर चम्बल संभाग के नतीजों में इसका परिणाम भी दिखा। पर एक बार फिर वही हुआ। कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में ज्योतिरादित्य सिंधिया को फिर हथियार डालने पड़े। कारण नर्मदा यात्रा के जरिए प्रदेश के अधिकांश हिस्से को नाप चुके दिग्विजयसिंह ने अपने पुराने राजनीतिक अनुभव का लाभ लेते हुए टिकिट वितरण में भी अपने ही चहेतों को अधिक नवाजा। इधर भोपाल से लेकर दिल्ली तक ऐसी बिसात जमाई कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी समझ में आ गया कि वह कांग्रेसी राजनीति के चाणक्य दिग्विजय सिंह के आगे अभी राजनीतिक विद्यार्थी ही हैं। रही सही कसर उनके मित्र एवं हाईकमान राहुल गांधी ने यह कह कर पूरी कर दी कि धैर्य एवं समय ही ताकतवर योद्धा है। फिलहाल इसकी आवश्यकता कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया को ही है, कारण इन्हीं योद्धाओं के बलबूते कमलनाथ आज मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और श्री सिंधिया को धैर्य रखना ही होगा।

नि:संदेह कांग्रेस ने प्रदेश को एक परिपक्व नेतृत्व दिया है पर यह सवाल आज कांग्रेस के अंदरखाने से निकलकर बाहर भी है कि आखिर सिंधिया घराने के साथ यह छल बार-बार होता क्यों है? स्वयं श्री सिंधिया को भी यह विचारना होगा कि आखिर उनके स्तर पर कहां कमी रह गई क्योंकि उनके पास समय और धैर्य दो ताकतवर योद्धा जो हैं।

इस बीच कांग्रेसी यह अवश्य कह रहे हैं कि भाजपा ने अपने प्रचार अभियान की विषय वस्तु माफ करो महाराज नेता शिवराज को केन्द्र में रख कर ही की थी। सरकार कांग्रेस की आ गई। कांग्रेस ने नारे को थोड़ा बदला है। माफ करो महाराज, हमारा नेता कमलनाथ। 

Similar News