बाहर कुछ आहट हुई, मैंने जाकर दरवाज़ा खोला, वहाँ देखा, दसेक साल का एक लड़का खड़ा था। मुझे देखते ही बोला, ‘‘प्राइस दो।‘‘ मैंने पूछा, ‘‘क्या?‘‘ तब वह फिर बोला, ‘‘इनाम दो।‘‘ मैंने पूछा, किस चीज का इनाम, अभी न तो दीवाली है, न होली? कौन है तुम्हारे साथ, किसके कहने पर आए हो?‘‘ मेरे प्रश्नों को सुनते ही वह इतनी तेज़ी से भागा कि देखते ही देखते वह मेरी नज़रों से ओझल हो गया; किन्तु खुले दरवाजे़ से दौड़-दौड़ कर बहुत सारी मेरी स्मृतियाँ मेरे घर के भीतर आ गईं और मेेरे चारों तरफ़ मण्डराने लगीं। उनमें से कोई कह रही थी, ‘‘अरे इतनी अनजान क्यों बन रही हो, वह बच्चा तो ग्रहण का दान लेने आया था ना, रात को ही तो ग्रहण था, भूल गईं क्या?‘‘
कोई स्मृति मुझे भण्डार गृह में ले जाकर बोली, ‘‘याद नहीं क्या?, कि ग्रहण छूटते ही आजी माँय ग्रहण का दान देती थीं।‘‘ कोई स्मृति कह रही थी, ‘‘ग्रहण छूटते ही सब नदी पर नहाने नहीं जाते थे क्या? क्यों भूल रही हो, कैसे पूरे ग्रहण अवधि में गीत और भजन होते थे, कव्हाड़ा कहते थे? क्या शहर में आकर इतना भी भूल गईं? वो तो बच्चा था, तुम उसे समझाती ना, इसे इनाम, प्राइस नहीं, दान कहते हैं।‘‘ मुझे सच में बड़ा अफ़सोस हो रहा था, कि मैंने उस बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया था? मेरी स्मृतियों ने मुझे उन दिनों की सभी यादें याद दिला दीं, जब ग्रहण छूटते ही गलियों में आवाज़ आने लगती थी- ‘‘ले आओ, वो मोठी माँय ग्रहण का दान।‘‘ तो कोई दूसरी आवाज़ आती, ‘‘लेे आओ काकी, उतारा-पुतारा, हारी-मारी, दुःख-बीमारी, बाधा-बीमारी निकाल देओ, सब मुसीबत का छुटकारा कर लेओ, देवो मावसी गिरण का दान।‘‘
मेरी स्मृतियों में अभी भी, ग्रहण के वे दिन जस के तस बैठे हैं। उन दिनों ग्रहण मुक्ति के बाद सबसे बड़ा तो ग्रहण के दान का ही महत्त्व होता था। ग्रहण लगने से ग्रहण छूटने तक की पूरी अवधि में सब लोग जप-तप, भजन-कीर्तन, नाम-स्मरण में लगे रहते थे, ताकि चाँद या सूरज, जिसको भी ग्रहण का कष्ट हो रहा होता था, वह कम हो जाय। जैसे ही ग्रहण छूटता, वैसे ही घर में लीपा-पोती की जाती थी। सबसे पहले हमारी आजी माँय स्नान कर पूरे घर में नर्मदा जल छिड़कती थीं, तत्पश्चात़ बहुत सारी दान की वस्तुएँ सूपड़ों में रखती थीं। वे सूपड़ों में जुवार, जुवार पर लोहे की कीलें, काला कोयला, नमक की गड़ी, साबुत उड़द, पहननेे के कपड़े, नगद पैसे आदि सामान रखकर दान के लिए सामग्री तैयार कर देती थीं। कहते हैं, ‘‘ग्रहण के दान से घर की अला-बला टल जाती हैं।’’ जैसे यह ग्रहण के बाद की क्रियाएँ हैं, ऐसे ही ग्रहण के पूर्व की तैयारियाँ भी बड़ी सावधानी से की जाती थीं।
ग्रहण लगने के पूर्व पंचांग के अनुसार, वेद (सूतक) बैठ जाते थे। इस अवधि में सभी सूखी-पाकी वस्तुओं पर कपड़ा ढक दिया जाता था। खाने-पीने की चीज़ों को बन्द कर दिया जाता था। दूध-दही-मही, तेल, घी, पानी आदि में तुलसी दल डाल कर सबको बन्द कर देते थे। बच्चों, बीमारों, वृद्धों और अशक्तों को छोड़कर कोई भी व्यक्ति ग्रहण की अवधि में कुछ भी खाता-पीता नहीं था। वेद सूर्य ग्रहण लगने से बारह घण्टे और चन्द्र ग्रहण लगने से नौ घण्टे पहले से ही लग जाते हैं। इसे ग्रहण का सूतक भी कहते हैं।
सूर्य ग्रहण अमावस्या को और चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा को लगता है। निमाड़ में वैसे भी अमावस्या और पूर्णिमा पर्वों पर पूजापाठ, पवित्र नदियों में स्नान और दान-दक्षिणा का बड़ा महत्त्व रहा है।
ग्रहण की अवधि में बहुत सारी बातों की सावधानियाँ रखी जाती थीं। प्रमुख रूप से गर्भवती महिलाओं को ग्रहण न देखने की हिदायत दी जाती थी। ग्रहण में काट-पीट करना और कूटना, धोना आदि इन सब क्रियाओं का निषेध रहता था। जहाँ तक संभव हो, ग्रहण के समय खुले आसमान के नीचे न जाने और नंगी आँखों से ग्रहण न देखने की बार-बार समझाइश दी जाती थी। मुझे बहुत सारे ग्रहणों की याद है। देर रात के चन्द्र ग्रहण के समय आजी माँय कहती थीं, ‘‘बच्चो! सो जाओ, नहीं तो आधी रात को ग्रहण छूटते ही नहाना पड़ेगा।’’ ठंड के ग्रहण में ठंडे पानी से नहाने का भय, ग्रहण देखने के आनन्द से बहुत छोटा होता था। कितनी ही ठिठुरती रात हो, हम ग्रहण देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे। अगर मध्य रात्रि का ग्रहण रहता था, तब भी हम जाग लेते थे, क्योंकि हमारा सोच रहता था कि ग्रहण कोई रोज़-रोज़ तो लगता नहीं है...।
हमारे स्कूल में गुरुजी ने कितना ही पढ़ा दिया था, समझा दिया था कि ‘चन्द्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण क्यों लगते हैं, क्यों दिखाई देते हैं?’ गुरुजी श्याम पट (ब्लेक बोर्ड) पर चाॅक से सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी की स्थितियों को रेखांकित कर समझाते थे, ‘कि जब यह तीनों ग्रह एक रेखा में आ जाते हैं, तब उनकी छाया से यह स्थिति निर्मित होती है।’ वे बताते थे, कि ‘यह तो एक खगोलीय स्थिति है’। कभी-कभी तो हमारे न समझ पाने की हालत में गुरुजी तीन बच्चों को एक के बगल में एक खड़ा करके टार्च से प्रकाश डालकर समझाते थे, ‘‘देखो, यह एक बच्चे की छाया दूसरे बच्चे पर पड़ी। सूर्य तो स्थिर है, चन्द्रमा और पृथ्वी घूमते हैं। घूमते-घूमते जब वे एक सीद में आ जाते हैं, तब एक दूसरे की परछाई से जो भाग काला हो गया, वही ग्रहण है।‘‘ और अधिक स्पष्ट करने के लिए गुरुजी गेंदों के माध्यम से भी ग्रहण को समझाते थे। वे यह भी कहते थे, ‘‘यह कोई डर की बात नहीं है।’’ हम गुरुजी का हर कहा तो मान लेते थे; किन्तु ग्रहण वाली धारणा नहीं समझ पाते थे और न ही उसे मानते थे। गुरुजी ऐसा भी समझाते थे - ‘‘ग्रहण की स्थिति में सूर्य और चन्द्रमा से हानिकारक किरणें निकलती हंै, जिसका हमारे शरीर और अन्य वस्तुओं पर उनका दुष्प्रभाव पड़ता है। सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण को नंगी आँखों से नहीं देखना चाहिए, वर्ना आँखों की रोशनी को ख़तरा हो सकता है।’’
ग्रहण देखने के लिए पहले लोगों के पास काले चश्मे तो होते नहीं थे, लेकिन हम लोग काला काँच तैयार कर लेते थे। कंदील या चिमनी के टूटे हुए काँच को कंदील की बत्ती की लौ से काला कर लेते थे, फिर उसे इस प्रकार पकड़ते थे कि हाथ या शरीर के किसी अंग में कालिख न लगे। उस बनाये गए काले काँच को एक हाथ से पकड़ कर एक आँख के सामने रख लेते थे और दूसरी आँख पर दूसरा हाथ रख कर आँख बन्द कर लेते थे। इस प्रकार हम बड़ी जोड़-तोड़ कर बड़ी सावधानी से ग्रहण देख लेते थे; किन्तु कभी-कभी जब ग्रहण की अवधि बहुत कम होती थी और काले काँचों की संख्या भी कम होती थी, तब बड़ी छीना-झपटी भी करनी पड़ती थी। कारण, उस समय सबके घरों में न ही कंदील होते थे और न ही पाई वाली चिमनियाँ होती थीं, साथ ही तब काँच भी कम ही फूटते थे, क्योंकि लोग बड़ी सावधानी से चीज़ों को रखते थे। ग्रहण कितना लगेगा, कितना छूटेगा, यह जानने की हमें बड़ी जिज्ञासा रहती थी। हम बच्चे भी कम सयाने नहीं थे। हमारे भी ग्रहण देखने के अपने तजु़र्बे और तरीके़ होते थे, जिससे हम बिना रोक-टोक के ग्रहण देखते भी थे और जी भर के उस आनन्द को भोगते भी थे।
ग्रहण लगने से पूर्व ही उसकी चर्चाएँ सभी दूर शुरू हो जाती थीं। तमाम हिदायतें देना शुरू हो जाता था- ‘खेत में मत जाना, तो पर गाँव मत जाना, तो क्या करना और क्या नहीं करना आदि आदि’। तब तक पंडित और शुकुल भी बता देते थे, कि किसको ग्रहण देखना है और किसको नहीं। वे यह भी बताते थे कि किस राशि वाले के लिए ग्रहण देखना शुभ है ओर किस राशि वाले के लिए अशुभ। पर हम बच्चों को इन सब लफड़ों में पड़ना ही नहीं रहता था, हम तो आजी माँय से पूछ लेते थे-‘‘ग्रहण किस दिन है, कौन-सा ग्रहण है, कितने बजे से कितने बजे तक है, बस। हम बच्चे मनन्तक ही मनन्तक ग्रहण देखने की जुगाड़ कर लेते थे, क्योंकि बड़े लोग काँच चुभने के डर से काँच हम बच्चों को देने से तो रहे, पर हम बच्चे बड़ों से ज्यादा अच्छे तरीके़ से ग्रहण देखते थे।
हमारी एक बहन, बिन्दु के धाबे की छत कवेलू की थी। हम ग्रहण लगने से दो-चार रोज़ पहले ही देख लेते थे कि इसमें कितने वायसरे (कवेलू से रोशनी की किरण आने की जगह) हंै। वहीं से मुआयना कर लेते थे, कि वहाँ से सूरज की किरणें किस तरह अन्दर पड़ती जायँगी और किस तरह हमें ग्रहण की स्थिति सही दिखाई देती जायगी। दूसरा बढ़िया साधन था हमारे पास हमारे घर की गोठान के पास का कोठा, जिसमें पशुओं का चारा-घास भरा रहता था। कोठे की छत टीन की थी। उस पर बन्दर खूब कूदते थे। उनके कूदने से टीन कीे एक दो कीलें तो निकल ही जाती थीं और एक दो कीलें उचक कर वहीं अटक जाती थीं। उचकी हुई कीलों को हमारे भाई लोग टीन पर चढ़कर निकाल लेते थे। इस प्रकार टीन में गोल छेद हो जाते थे। उन छेदों से सूरज की स्थिति दीवालों और ज़मीन पर स्पष्ट दिखाई देती थी। उस स्थान से हमें ग्रहण का पूरा दृश्य स्पष्ट दिखाई देता था।
ग्रहण जैसे ही लगने को होता था, हम सभी बच्चे अपने घास वाले कोठे में चले जाते थे। जैसे ही ग्रहण लगता, सूर्य की किरणें उस आकार की घास के पूलों (पिण्डियों) पर दिखाई देते थीं। हम एक घर के कम से कम चार-छह भाई बहिन तो होते ही थे, पर इतने कम से हमारा मन कहाँ मानता था, ग्रहण लगने के पूर्व ही मंत्रणा कर ली जाती थी कि ग्रहण हम सब मिलकर साथ ही देखेंगे। ग्रहण न रोज़-रोज़ लगता है, न बार-बार लगता है, जब तक पूरे भाई-बहन-सखी-सहेली न हांे, तब तक उसका क्या आनन्द। अतः हम लोग अनाज वाला सन का बोरा ओढ़कर चुपचाप सबकी नज़रें बचाकर बाहर निकलते और सबको इकट्ठा कर लेते थे। और फिर हम सब कोठे का दरवाज़ा बन्द कर मजे़ से ग्रहण देखते थे।
हम दादा की एक सफ़ेद धोती पहले से ही घास के पूलों (पिण्डियों) के नीचे छुपाकर रख देते थे। जैसे ही ग्रहण लगता, धोती के चार कोने पकड़ कर हम में से चार लोग खड़े हो जाते थे। जितने छेद होते छत में, उतनी ही ग्रहण की परछाइयाँ धोती पर उतर आती थीं, धोती पर ग्रहण ही ग्रहण दिखाई देते थे, क्या मज़ा आता था ग्रहण देखने में! उस समय हम बच्चों को नये नये तरीक़े भी खूब सूझते थे। कभी हथेली पर ग्रहण उतार लेते थे, तो कभी छोटे भाई को औंधा लिटाकर उसकी उघाड़ी पीठ पर ग्रहण देखते थे, तो कभी अपना मुँह खोलकर जीभ पर ग्रहण उतार कर एक दूसरे को दिखाते थे- ‘देखो हमारे मुँह में ग्रहण कैसा दिखाई दे रहा है।’ और फिर साथ में चलता खूब चिल्लाना, खूब कूदना और खूब मस्ती करना। ग्रहण छूटते ही कोठे का दरवाज़ा खोल कर हम बाड़े में खूब उछल-कूद-मस्ती करते थे। इस शोर शराबे से कभी-कभी तो गोठान में बँधे वाछरू (गाय के बच्चे) इतने डर जाते थे, कि वे अपने खम्बे के पास ही पूरी ताक़त से उछल कूद करने लगते थे। फिर हम एक दूसरे से कहते थे, ‘‘देखो सूतक कहाँ लगा? दिखा क्या? गुरुजी सच तो कहते थे कि सूतक नहीं लगता।‘‘
हमारे दिमागों में तो बहुत अच्छे से बैठा था समुद्र मंथन वाला आख्यान। समुद्र मंथन की पूरी कथा हमने सुनी थी। दाजी की बैठक में भी उसका एक चित्र लगा था। चित्र में यह कथा दर्शायी गई थी - ‘देवता एक पंक्ति में बैठे हैं। समुद्र मंथन से निकले अमृत के घट को विष्णु भगवान् ने मोहिनी रूप रखकर अपने हाथ में ले लिया और देवताओं को अमृत पिला रहे हैं। दूसरी पंक्ति में राक्षस बैठे हैं। जब विष्णु भगवान् अमृत परोस रहे थे, तब देवताओं की पंक्ति में स्वरभानु नामक एक राक्षस अपना स्वरूप बदल कर चुपचाप आकर बैठ गया। वह भी अमृत पान करने लगा, किन्तु ठीक उसी समय सूर्य और चन्द्र ने उसे पहचान लिया। उन्होंने तत्काल विष्णु भगवान् को यह रहस्य बता दिया। विष्णु भगवान् ने अपना चक्र चला दिया। चूँकि उस राक्षस ने अमृत पान तो किया; किन्तु उसे कंठ के नीचे नहीं उतार पाया था। अतः सिर धड़ से कट गया। उसके दो हिस्से हो गये, सिर और धड़। सिर राहु कहलाया और धड़ केतु कहलाया। राहू मरा नहीं, क्योंकि वह अमृत पान कर चुका था। तभी से राहु की सूर्य और चन्द्रमा से शत्रुता बनी हुई है। यही राक्षस राहू सूर्य और चन्द्र को ग्रसते हैं।’ तब ऐसा कहा जाता है, उसका पाप धरती के सभी प्राणियों को लगता है। सूर्य या चन्द्र के इस कष्ट को दूर करने के लिए लोग अपने-अपने इष्टों से प्रार्थना करते हैं, कि वे सूर्य व चन्द्र को कष्ट से मुक्त कर दें।
इस अवसर पर सामान्यतः मंदिरों के कपाट-पट बन्द कर दिए जाते हैं, जप, तप, अनुष्ठान, प्रार्थना भजन-कीर्तन आदि आध्यात्मिक क्रियायें चलती रहती हैं। सूर्य ग्रहण के अवसर पर मंत्र दीक्षा ली जा सकती है, पर चंद्र ग्रहण के अवसर पर नहीं। लोक में शाबर मंत्रों का अधिक प्रचलन है। कुछ मंत्र इस प्रकार हैं-बिच्छु के काटे का ज़हर उतारने का मंत्र, मकड़ी उधलने का मंत्र, आधे सिर के दर्द के उतारे का मंत्र, बवासीर दूर करने का मंत्र, तिजारे का बुखार झाड़ने का मंत्र, पीलिया रोग झाड़ने का मंत्र आदि आदि। ऐसी मान्यता है कि ग्रहण काल में जपे गए मंत्र सिद्ध हो जाते हैं तथा उनका फल कई गुना बढ़ जाता है। जो लोग मंत्र भूल जाते हैं, या उनमें कुछ संशय होता है, तो ग्रहण काल में उस मंत्र को सही कर उसे अवढ़ाते (पुनरावृत्ति करना) हैं, मंत्र से झाड़ फूँक करने वाले व्यक्ति को झाड़-फूँक के लिए धन आदि लाभ नहीं लेने का उपदेश उसके दीक्षा गुरु द्वारा दिया जाता है। इसका उल्लंघन करने वाले के पास से मंत्र सिद्धि चली जाती है। यही सब साधना-अनुष्ठान करते-करते ग्रहण से मोक्ष हो जाता है सूर्य/चन्द्रमा का। मोक्ष होने पर गीत गाते-गाते महिलाएँ स्नान के लिए नदी या जलाशय पर जाती थीं। गीत है-
मिजाज मति करजो गोरा बदन सी
राम अरू लछमन ईऽ दुई भइया
इनखऽ भी दुख पड़ी गयो सीता हरणऽ सी
चाँद अरू सूरज ईऽ दुई भइया
इनखऽ दुख पड़ी गयो गिरण लगनऽ सी
भावार्थः हे मुनष्य, तू मिजाज़ मत कर, घमण्ड कर मत। राम और लक्ष्मण ये दोनों भाई हैं, पर इनको सीता हरण का दुःख आ गया। तू अपने आप पर गरूर मत कर, सूरज और चन्द्रमा दो भाई हैं, इनको भी भारी दुःख हो गया है ग्रहण लगने से। हे शेष शैया पर शयन करने वाले विष्णु, तुम इनके दुःख दूर करो।
जैसे ही ग्रहण छूटने को होता था, हम लोग जोर जोर से गीत गाने लगते थे, ताकि सूर्य चन्द्र का कष्ट दूर हो जाय। फिर सब गीत गाते-गाते नदी पर नहाने चले जाते थे।
तब मान्यता थी कि ग्रहण का सूतक होता था, अतः हम अळगनी (बाँस, जिस पर कपड़े सूखते हैं) पर से लम्बे डंडे से अपने कपड़े निकालते थे तथा उन्हें उसमें ही अटका लेते थे और डंडे को पकड़कर नहाने के लिए जाते थे। इतनी सावधानी रखते थे कि कपड़ों का स्पर्श किसी से भी नहीं हो पाय, सूतक का डर जो रहता था। यह एक परम्परा-सी ही बन गई थी। सब लोग अपने-अपने कपड़े डंडे पर अटका कर बिना छुए नदी, जलाशय तक ले जाते थे। लकड़ी को नदी के किनारे पटक देते थे, फिर डुबकी मारकर उन कपड़ों को स्पर्श करते थे। इतने पर भी मन नहीं मानता था, तो कपड़े पहनकर अपने ऊपर शुद्ध जल या नर्मदा जल से छींटे दे लेते थे।
सब लोग शुद्ध होकर सूतक से मुक्त होकर मंदिर में भगवान् के दर्शन करते थे। तब तक गलियों से आवाज़ आने लगती थी- ‘‘ले आओ ग्रहण का दान। निकाल लेओ कष्ट बीमारी का उतारा। दे देवो ग्रहण का दान। उतार लेवो अपना-अपना दरिद़्दर...।’’
मैं अपने बचपन के ग्रहण के दिनों को याद कर रही थी, इतने में ही मुझे दरवाजे़ पर से आवाज़ आई - ‘‘ओ बैनजी! ले आओ गिरण का दान।‘‘ मैंने देखा, एक बड़े से घाघरे पर देड़ पट्टी की साड़ी ओढ़े एक वृद्ध-सी महिला खड़ी थी। उसका हाथ पकड़े वही बच्चा खड़ा था। वह महिला बोली, ‘‘बैनजी तमने कई पूच्छ्यो, तो यो छोरो भागी गीयो। मने तो असी की कि गिरण को दान माँगले, इको कोनी याद न रई, तो इनाम बोलनऽ लग्यो...।’’ मैंने एक सूपड़े में सब वस्तुएँ रखकर विधि विधान से उस बाई को ग्रहण का दान दिया। वह आभार वयक्त करती हुई चली गई। मुझे लगा वह पारंपरिक ग्रहण का दान लेने के लिए एक नई पीढ़ि तैयार करने का जिम्मा लेकर जा रही थी।