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शिवाजी की बढ़ती ताकत को देख घबरा गए थे मुगल सम्राट

लेखक - चौहान कुलभूषण पदमश्री महाराजाधिराज महाराव रघुवीर सिंह, सिरोही

Update: 2021-06-22 13:05 GMT

छत्रपति शिवाजी महाराज मेवाड़ के सूर्यवंशी क्षत्रिय सिसोदिया महाराणा के वंशज थे। मेवाड़ के शासक महाराणा अजयसिंह जी सिसोदिया 1319 ई.सन् में जंगल में घुमने गये, वहां पर मुंज नाम के डाकू ने उन्हें अपने ही राज्य में लूट लिया और शरीर पर जितने भी आभूषण थे, वे सभी उतरवाकर अपने कब्जे में कर लिए। तब महाराणा अजयसिंह जी को बहुत बुरा लगा और अपने महल में लौटते ही अपने दोनों पुत्रो को बुलाकर आदेश दिया, की तुम दोनों जाकर मुंज डाकू का सीर काटकर मुझे पेश करो। वो दोनों तो मुहं देखते रह गए और महाराणा अजयसिंह जी के भतिज हमीर उसी वक्त तलवार लेकर घोड़े पर चढ़ कर रवाना हुये, उन्होंने मुंज का सीर काटकर एंव महाराणा के सारे आभूषण लाकर महाराणा को पेश किये। तब महाराणा बहुत खुश हुए एंव हमीर को उत्तराधिकारी घोषित करते हुए उनका राज तिलक कर दिया। तब महाराणा के दोनों पुत्र सज्जनसिंह और क्षेमसिंह समझ गये और अपने भाग्य की तलाश में दक्षिण भारत की ओर चले गये। सज्जनसिंह की 16वी पीढ़ी में छत्रपति शिवाजी हुए।

सज्जनसिंह के पुत्र राणा दिलीपसिंह को दिल्ली के सुल्तान मोहमद बिन तुगलक ने खुश होकर देवगिरी क्षेत्र में दस गाँव इनायेत किये। मराठों के साथ वैवाहिक संबंध होने से सज्जनसिंह के वंशज भोंसले कहलाये ।

शिवाजी महाराज के दादा मालोजी, (1552 ई.सन् -1597 ई.सन्) अहमदनगर सल्तनत के एक प्रभावशाली देशमुख थे और पुना, चाकन और इन्द्रापुर उनके अधिनस्त थे।

मालोजी के बेटे शाहजी भी बीजापुर सुल्तान के दरबार में बहुत प्रभावशाली सरदार थे। शाहजी भोसले की पत्नी जीजाबाई से शिवाजी का जन्म 19 फरवरी 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ। उनके पिता शाहजी भोसले एक शक्तिशाली सामंत थे। उनकी माता जीजाबाई जाधव कूल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली महिला थी। शिवाजी के बड़े भाई का नाम संभाजी था, जो अधिकत्तर समय अपने पिता शाहजी भोंसले के साथ ही रहते थे। शिवाजी के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। उनका बचपन उनकी माता के मार्गदर्शन में बिता। उन्होंने राजनीती, रणनीति व युद्ध की शिक्षा ली थी। वो बचपन से युद्ध नीतियों में परिपूर्ण थे। उनके ह्रदय में हमेशा स्वाधीनता की आग जलती रहती थी।

दस वर्ष की आयु में शिवाजी महाराज का विवाह 14 मई 1640 ई.सन् को साईंबाई के साथ पुना में हुआ। उन्होंने कुल आठ विवाह किये। वैवाहिक राजनीती के जरिये उन्होंने सभी मराठा सरदारों को एक छत्र के निचे लाने में सफलता प्राप्त की ।

1644 ई.सन् में बीजापुर राज्य आपसी संघर्ष एंव विदेशी आक्रंताओ के दौर से गुजर रहा था, साथ-साथ शिवाजी महाराज भी बड़े हो गये थे और अपनी युद्ध विधा में कुशल होते जा रहे थे। धीरे-धीरे समय के साथ उन्होंने ये निश्चय किया की सुल्तान की सेवा करने के बजाय वे स्वयं की सेना एंव संगठन बनांएगे। शिवाजी महाराज ने एक ऐसा अभियान चलाया, जिससे मावलो को बीजापुर के खिलाफ संगठित कर दिया। मावल प्रदेश 150 किलोमीटर लम्बा और 30 किलोमीटर चौड़ा है एवं पश्चिमी घाट से जुड़ा हुआ है। मावल लोग संघर्षपूर्ण जीवन बिताने के कारण कुशल योधा माने जाते थे। इस प्रदेश में मराठा एंव विभिन्न जाति के लोग रहते थे। छत्रपति शिवाजी इस क्षेत्र का मावळा नाम रखकर सभी जाति के लोगो को संगठित किया और उनसे अच्छे संबंध बनाकर उनके प्रदेश से परिचित हो गये। मावल युवको को काम में लगाकर दुर्ग का निर्माण करवाया। मावलो का सहयोग छत्रपति शिवाजी के लिए उनता ही महत्वपूर्ण साबित हुआ, जितना शेरशाह सूरी के लिए अफगानों का साथ होना ।

1646 ई.सन् में बीजापुर आपसी संघर्ष तथा मुगलों के आक्रमण से परेशान था। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गो से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासको या सामंतो को सौंप दिया था। जब आदिलशाह बीमार पड़ गये और बीजापुर में अराजकता फैल गयी। तब शिवाजी महाराज ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश करने का निर्णय लिया। शिवाजी महाराज ने इसके बाद बीजापुर के दुर्गो पर अधिकार करने की नीति अपनाई। उन्होंने सबसे पहले रोहिदेश्वर के दुर्ग पर अपना अधिपत्य स्थापित किया ।

शिवाजी महाराज ने अपनी छोटी-सी उम्र में ही रोहिदेश्वर के दुर्ग पर सबसे पहले जीत हासिल की। उसके बाद तोरणा का दुर्ग जो पूना के दक्षिण पश्चिम में 30 किलोमीटर की दुरी पर है। शिवाजी महाराज ने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना दूत भेजकर खबर भिजवाई की अब वे पहले वाले किलेदार से ज्यादा रकम देने को तैयार है और यह क्षेत्र उन्हें सौंप दिया जावे। उन्होंने आदिलशाह के दरबारियों को पहले ही रिशवत देकर अपने पक्ष में कर लिया था। अपने दरबारियों की सलाह लेकर आदिलशाह ने शिवाजी महाराज को उस दुर्ग का अधिपत्य सौंप दिया। तोरणा के दुर्ग में मिली सम्पति से छत्रपति शिवाजी ने दुर्ग की पूरी मरम्मत करवाई एंव दुर्ग की कुछ कमियों को सुधार कर दुर्ग की सुरक्षा बड़ाई ।

इस दुर्ग से 10 किलोमीटर दूर राजगढ़ का दुर्ग था, जिस पर शिवाजी महाराज ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया। छत्रपति शिवाजी की इस साम्राज्य विस्तार नीति की खबर जब आदिलशाह को मिली तो वह आग बबूला हो गया और उसने शिवाजी महाराज के पिता शाहजी को अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने को कहा। शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किये बिना, राजगढ़ किले का नियंत्रण अपने हाथो में ले लिया और वहां की प्रजा जो सुल्तान को वार्षिक नियमित कर देती थी वो बंद करवा दिया। राजगढ़ के बाद उन्होंने चाकन दुर्ग जो पुणे में स्थित है, को अपने अधीन कर लिया। तदुपरांत कोड़णा के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।

अपनी छोटी सी जागीर से उन्होंने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की एंव मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता दी। उन्होंने कई मंदिर व मस्जिदों का निर्माण करवाया। वे हिन्दू संस्कृति को बढ़ावा देते थे। वे एक के बाद एक महाराष्ट्र के किले जीतते गये और अपने साम्राज्य का विस्तार करते गये।

शिवाजी महाराज की बढती ताकत को देखते हुए मुग़ल सम्राट औरंगजेब ने अपने सबसे कुशल सेनापति, जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह को शिवाजी महाराज पर आक्रमण करने के लिए भेजा। मिर्जा राजा जयसिंह एक विशाल सेना लेकर मराठो पर आक्रमण करने निकल गये। उन्होंने छत्रपति शिवाजी के 23 किलो पर कब्ज़ा कर लिया और पुरंदर का किला भी नष्ट कर दिया। फलस्वरूप शिवाजी ने मिर्जा राजा जयसिंह की संधि की शर्तो को मानते हुए, अपने जेष्ट पुत्र संभाजी को मिर्जा राजा जयसिंह को सौंपना पड़ा की वो मुग़ल दरबार में जाकर सेवा करे।

बीजापुर का सुल्तान आदिलशाह शिवाजी महाराज की हरकतों से पहले से ही आक्रोश में था, उसने कुछ झूठे आरोप लगाकर शिवाजी महाराज के पिताजी शाहजी को बंदी बनाने का आदेश दिया। शाहजी महाराज को इस शर्त पर मुक्त किया की वे शिवाजी पर लगाम कसेंगे। अगले चार वर्षो तक छत्रपति शिवाजी ने बीजापुर के खिलाफ कोई आक्रमण नही किया, परन्तु उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की।

1656 ई.सन् में शिवाजी ने अपनी सेना को लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे वहां के शासक थे। और उनके दोनों पुत्रो ने शिवाजी के साथ युद्ध किया, परन्तु अंत में वे बंदी बना लिए गये और चन्द्रराव मौका पा कर भाग निकला। स्थानिय लोगो ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया, पर वे विरोध को कुचलने में सफल रहे। इससे शिवाजी को उस किले से बहुत भारी धन राशी मिली और कुछ आभूषण भी मिले और कई मावल सैनिक और वहां के घुडसवार शिवाजी महाराज की सेना में शामिल हो गये।

शिवाजी महाराज के बीजापुर सल्तनत तथा मुग़ल साम्राज्य दोनों दुशमन थे। नवम्बर 1656 ई.सन् को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गयी और उसके बाद औरंगजेब ने दक्षिण भारत और बीजापुर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उस पर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर सोने चांदी के सिक्के, बहुमूल्य आभूषण एंव ढेर सारी सम्पति के साथ कुछ घोड़े व हाथी लूट लिए।

1658 ई.सन् में औरंगजेब ने बीजापुर के साथ संधि कर ली और इसी समय शाहजहाँ बीमार पड़ गये और औरंगजेब को उत्तर भारत लौटना पड़ा और मुग़ल साम्राज्य का सम्राट बन गया।

दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति से शिवाजी महाराज के रास्ते खुल गये। बीजापुर की डगमगाती स्थति को देखकर छत्रपति शिवाजी ने जंजीरा पर आक्रमण कर दक्षिण में कोकण पर अपना अधिकार जमा लिया। अब शिवाजी 40 दुर्गो के मालिक बन चुके थे। 1670 ई.सन् में शिवाजी महाराज के सेनापति तानाजी मालुसरे ने रायगढ़ का महत्वपूर्ण किला जीता, परन्तु अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। इसलिए छत्रपति शिवाजी ने टिप्पणी की :- "गढ़ आयेला पर सिंह गेयला"

इधर औरंगजेब के आगरा लौट जाने के बाद बीजापुर के सुल्तान ने राहत की साँस ली। अब शिवाजी ही बीजापुर के एक मात्र शत्रु रह गये थे।

शिवाजी पर दुबारा आक्रमण करने के लिए इस बार बीजापुर के सुल्तान ने अफजल खां को भेजा।1659 ई.सन् में अफजल खां ने 1,20,000 सैनिको के साथ आक्रमण किया। अफजल खां ने रास्ते में आये मंदिरों को नष्ट करते हुए मराठो की राजधानी सतारा पहुंचा। अफजल खां ने अपने दूत को संधिवार्ता के लिए भेजा। उसने यह सन्देश भिजवाया की अगर शिवाजी बीजापुर सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर लेते हैं तो सुल्तान उन्हें उन सभी क्षेत्रो का अधिकार दे देगें, जो शिवाजी के नियंत्रण में है। उनको बीजापुर सुल्तान के दरबार में एक सम्मानित पद भी दिलवाने का वादा किया।

शिवाजी के मंत्री और सलाहकार उस संधि के पक्ष में थे, परन्तु शिवाजी को इस बात पर विश्वास नही था। उनको लगा की अफजल खां संधि का षड्यंत्र रचकर उन्हें बंदी बनाना चाहता है। उन्होंने अफजल खां के दूत को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया। उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खां को संधिवार्ता के लिए राज़ी किया।

संधि वाले स्थान पर दोनों पक्षों ने अपने-अपने सैनिक अपने स्थान पर लगा रखे थे। परन्तु अफजल खां विश्वासघाती निकला, उसने अपनी कटार से छत्रपति शिवाजी पर वार किया। किन्तु शिवाजी बच गये और उन्होंने अफजल खां को अपनी तलवार से 10 नवम्बर 1659 को मौत के घाट उतार दिया। अफजल खां की मृत्यु का लाभ उठाते हुए शिवाजी ने पन्हाल के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद आस- पास के सभी दुर्गों पर शिवाजी का राज स्थापित हो गया।

1510 ई.सन् में पुर्तगाल से गोमंतक (गोवा) पर आक्रमण आया, जिसमे यहुदी भी शामिल थे। विदेशियों की विजय हो गई एंव गोमंतक का नाम रखा गोवा। यहुदियो ने ये सोचा की जब तक वो अपने आप को ब्राह्मण न बताये, तब तक भारत की जनता उनके चरणों में पड़ने को तैयार नही होगी। तब यहुदियो ने अपने आप को चितपावन ब्राह्मण बताया और भारतीय प्रजा उन्हें मान्यता देने लगी।1662 ई.सन् में ये चितपावन ब्राह्मण शिवाजी महाराज की सेवा में आये और दीवान भी बने।

अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहां के सामन्तो ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी महाराज पर आक्रमण करने का निशचय किया। 2 अक्टूबर 1665 ई.सन् को बीजापुरी की सेना ने पन्हाल दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी महाराज संकट में फंस गये, वे रात्रि के अँधेरे का लाभ उठाकर भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्भालकर पन्हाल एंव पवनगढ़ के किले पर अपना अधिकार पुनःजमा लिया। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता की।

1665 ई.सन् में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान द्वारा स्वतंत्र शासक की मान्यता मिली और उत्तर में कल्याण से लेकर दक्षिण में पोण्डा तक (250 किलोमीटर) का और पूर्व में इंद्रापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक (150 किलोमीटर) का भू-भाग शिवाजी के नियंत्रण में आ गया । शिवाजी महाराज की सेना में अब तक 30000 पैदल और 1000 घुड़सवार सैनिक हो गए थे ।

उत्तर भारत में बादशाह बनने की होड़ खत्म होने के बाद औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ गया । वो शिवाजी की बढ़ती प्रभुसत्ता से परिचित था और उसने शिवाजी महाराज पर नियन्त्रण रखने के उद्येश्य से अपने मामा शाइस्ता खान को दक्षिण भारत का सूबेदार नियुक्त किया। शाइस्ता खान अपनी 1,50,000 सेना लेकर सूपन और चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुँच गया। उसने 3 साल तक मावल में लुटमार मचाई।

एक रात शिवाजी ने अपने 350 मावलो के साथ उन पर हमला कर दिया । शाइस्ता खान तो खिड़की के रास्ते से बच निकला, परन्तु उसकी चार अंगुलिया कट गई। शाइस्ता खान के पुत्र अब्दुल फतह तथा चालीस रक्षकों और अनगिनत सैनिकों का वध कर दिया। यहॉ पर मराठों ने अन्धेरे मे स्त्री-पुरूष के बीच भेद न कर पाने के कारण शाइस्ता खान के जनानखाने में बहुत सी औरतों को मार डाला। इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता खान को दक्षीण के बदले बंगाल का सूबेदार बना दिया ।

इस जीत में शिवाजी महाराज की प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि हुई।6 साल बाद शाईस्ता खान ने अपनी 1,50,000 सेना के साथ मिलकर शिवाजी के राज्य को तबाह कर दिया। इसलिए उस का हर्जाना वसूल करने के लिये शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों में लूटपाट मचाना आरम्भ किया। सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ हुआ करता था और हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए हज पर जाने का द्वार। यह एक समृद्ध नगर था । इसका बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण था। शिवाजी ने चार हजार की सेना के साथ 1664 ई.सन् में छः दिनों तक सूरत के धनाड्य व्यापारियों को लूटा और फिर लौट गए।

सूरत में शिवाजी महाराज की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खान के स्थान पर जियासुद्दीन खान को सूरत का फौजदार नियुक्त किया और शहजादा मुआज्जम तथा उपसेनापति राजा जसवंत सिंह, जोधपुर की जगह दिलेर खान और मिर्जा राजा जयसिंह, जयपुर की नियुक्ति की गई। जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी और हार की सम्भावना को देखते हुए शिवाजी ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा। शर्तो के अनुसार शिवाजी को 23 दुर्ग ओरंगजेब को देने होंगे। शिवाजी को तो मुग़ल दरबार में हजारी मुक्त कर दिया, परन्तु उनके पुत्र संभाजी को मुगल दरबार में खिदमत करनी होगी।

1666 ई.सन् में शिवाजी महाराज को आगरा बुलाया गया, जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है । इसके विरोध में उन्होंने अपना रोश भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया ।औरंगजेब ने शिवाजी को नजरबन्द कर दिया और उन पर 5000 सैनिकों के पहरे लगा दिये। कुछ ही दिनों बाद (18 अगस्त 1666 को) शिवाजी महाराज को मार डालने का इरादा औरंगजेब का था। लेकिन अपने अदम्य साहस और युक्ति के साथ, जयपुर के मिर्जा राजा जयसिंह की साजिश से शिवाजी महाराज फलो के बड़े टोकरो में छिपकर, जो आदमियों के सीर पर रखे हुए थे, शिवाजी ने मुग़ल सल्तनत आगरा से विदाई ली और काफी दूर जाकर अपने घोड़ो पर बैठकर पुणे चले गये । दुबारा शिवाजी मुगलों की बातो में नही आये और ना कभी दिल्ली व आगरा आये । संभाजी को मथुरा में एक विश्वासनीय ब्राह्मण के वहां छोड़ शिवाजी महाराज बनारस गये और पुरी होते हुए राजगढ़ पहुँच गए। इससे मराठों को नवजीवन सा मिल गया। औरंगजेब ने मिर्जा राजा जयसिंह पर शक करके उन्हें जहर देकर उनकी मृत्यु करवा दी।

1668 ई.सन् में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार सन्धि की। औरंगजेब ने शिवाजी महाराज को राजा की मान्यता दी एंव संभाजी को 5000 की मनसबदारी मिली और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया। परन्तु सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुग़लों का अधिपत्य यथावत बना रहा। 1670 ई.सन् में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा। नगर से 132 लाख की सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते समय उन्होंने मुगल सेना को सूरत के पास पुनः हराया।

शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था, जो पुरन्दर की सन्धि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। 1674 ई.सन् में पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, तब मुस्लिम सैनिको ने ब्राहमणों को धमकी दी कि जो भी शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक करेगा उसकी हत्या कर दी जायेगी। जब ये बात शिवाजी महाराज तक पहुंची की मुगल सरदार ऐसे धमकी दे रहे है तब शिवाजी ने इसे एक चुनौती के रुप मे लिया और कहा की अब वो उस राज्य के ब्राह्मण से ही राज्याभिषेक करवायेंगे जो मुगलों के अधिकार में है।

शिवाजी के निजी सचिव बालाजी विश्वनाथ ने काशी में तीन दूतो को भेजा, क्योंकि काशी हिन्दुओ की पीठ थी एंव मुगल साम्राज्य के अधीन थी । जब दूतों ने संदेश दिया तब काशी के ब्राह्मण काफी प्रसन्न हुये। किंतु मुगल सैनिको को यह बात पता चल गई तब उन ब्राह्मणों को पकड लिया, परन्तु युक्ति पूर्वक उन ब्राह्मणों ने मुगल सैंनिको के सामने उन दूतों से कहा कि शिवाजी कौन है हम नहीं जानते है, वे किस वंश से हैं ? शिवाजी के दूतों को पता नहीं था इसलिये उन्होंने कहा हमें पता नहीं है। हम उनका राज्याभिषेक कैसे कर सकते हैं, हम तो तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और काशी का कोई अन्य ब्राह्मण भी राज्याभिषेक नहीं करेगा । जब तक राजा के वंश का पूर्ण परिचय न हो तब तक हम राज्याभिषेक नही कर सकते, अत: आप वापस जा सकते हैं। मुगल सरदार ने खुश होकर ब्राह्मणो को छोड दिया और दूतो को पकड कर औरंगजेब के पास दिल्ली भेजने की सोची पर वो चुपके से भाग निकले ।

वापस लौट कर उन्होने ये बात बालाजी विश्वनाथ तथा शिवाजी महाराज को बताई, परन्तु आश्चर्यजनक रूप से दो दिन बाद वही ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ रायगढ पहुचें। अगस्त 1674 ई.सन् में छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इसके बाद मुगलों ने फूट डालने की कोशिश की और छत्रपति शिवाजी के राज्याभिषेक के बाद भी पुणें के ब्राह्मणों को धमकी दी, कहा कि छत्रपति शिवाजी को राजा मानने से मना करो, ताकि प्रजा भी इसे न माने !! लेकिन उनकी नहीं चली । शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना की, विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। परन्तु उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता जिजाबाई का देहांत हो गया। इस कारण 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि धारण की।

इस समारोह में हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना का उद्घघोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था । एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया । इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण को हतियाने के लिए अपने दो सेनाध्यक्षो को छत्रपति शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए भेजा परन्तु वे विफल रहे और अपनी पराजय स्वीकार कर वहां से भाग निकले ।

उनकी सेना में अधिकतर मंत्री, सरदार और सलहाकार मुसलमान थे। छत्रपति शिवाजी के राज्य में चितपावन ब्राह्मण भी थे जो आगे शिवाजी के दीवान भी बने और उन्होंने पेशवा पद की उपाधि भी धारण की।

छत्रपति शिवाजी के आठ रानियों में से एक कुमानीति रानी थी। जिस पर छत्रपति शिवाजी कभी अपना प्रेम नही दिखाते थे। हरामखोर पेशवा कुमानिती रानी के महल में पहुंचा और उस महारानी को समझाया, की ज़िन्दगी भर तो तुम कुमानिती रानी रही हो इसलिए छत्रपति शिवाजी का मुहं देखने को नही मिला। इसलिए हम किसी न किसी तरह से छत्रपति शिवाजी को समझाकर आपके महल में ले आयेंगे । तब आप उनके खाने में जहर डाल देना, जिससे उनकी अन्तेष्टि हो जायेगी और आप जीवन भर का बदला उनसे ले लेगें। 3 अप्रैल 1680 ई.सन् को पेशवा ने शिवाजी महाराज को बहला फुसला कर कुमानिती रानी के महल में ले गये और कहा की कब तक आप इनका तिरस्कार करते रहंगे। रणनीति के अनुसार रानी ने खाने में जहर दे दिया और उसी रात्रि को छत्रपति शिवाजी महाराज का देहांत हो गया और एक महान छत्रपति एंव हिन्दू संस्कर्ती को बढावा देने वाले अपना साम्राज्य छोड़कर परलोक सिधार गये ।

छत्रपति शिवाजी के जेष्ट पुत्र संभाजी गद्दी पर आये। संभाजी बहुत शक्तिशाल थे एंव पहलवानी में निपूर्ण थे। शिवाजी की दूसरी पत्नी से राजाराम नाम एक दूसरा पुत्र था। उस समय राजाराम की उम्र मात्र1010 वर्ष थी, अतः मराठों ने संभाजी को राजा मान लिया। छत्रपति शिवाजी की मृत्यु की सूचना मिलते ही, मुग़ल सम्राट औरंगजेब अपनी पूर्ण 5,00,000 सेना लेकर दक्षिण की ओर पलायन किया ।

औरंगजेब ने दक्षिण में आते ही अदिल्शाही बीजापुर सल्तनत को 2 दिन में समाप्त कर दिया और कुतुबशाही गोलकुंडा सल्तनत को 1ही दिन में समाप्त कर दिया। परन्तु छत्रपति संभाजी के नेतृत्व में मराठाओ ने 9 साल युद्ध करते हुये अपनी स्वतन्त्रता बरकरा‍र रखी।

संभाजी के तीन पत्निया होते हुए भी प्रति अर्धरात्रि के बाद अपनी राजधानी रायगढ़ के किले से उतरकर, अपने पन्दरह सोलह सखाओं के साथ रायगढ़ के शहर में जाकर वेशयो के साथ अपनी पूर्ति करते। जब चितपावन ब्राह्मणों को इस बात का पता चला तो, उन्होंने मुग़ल सम्राट औरंगजेब को सूचना दी, की आप दस हजार सशस्त्र सेना भेज कर छत्रपति संभाजी को प्रति अर्धरात्रि के बाद अपने पन्द्रह-सोलह सखो के साथ रायगढ़ का किला छोडकर रायगढ़ शहर की तरफ प्रस्थान करे तब आप उन्हें आसानी से गिरफ्तार कर लेना। 16 जनवरी 1689 को जब छत्रपति संभाजी रायगढ़ के किले से उतरकर अपने सखाओ के साथ रायगढ़ शहर की ओर जा रहे थे, तब दस हजार मुग़ल सेना ने उनको गिरफ्तार करके दिल्ली ले गये ।अन्ततः चितपावन ब्राह्मणों की चुगली से संभाजी को बन्दी बना लिया गया एंव दिल्ली ले जाके औरंगजेब ने संभाजी का बुरा हाल कर 11मार्च 1689 ई.सन् को मार दिया। अपने छत्रपति को औरंगजेब द्वारा मारने से पूरा मराठा स्वराज्य क्रोधित हुआ। उन्होने अपनी पुरी ताकत से राजाराम के नेतृत्व में मुगलों से संघर्ष जारी रखा।

1691 ई.सन् छत्रपति राजाराम ने चितपावन पेशवा को पन्त प्रधान की सर्वोपरि उपाधि दी 30 वर्ष की आयु में 1700 ई.सन् में राजाराम की मृत्यु हो गई संधिगद अवस्था में, भला हो चितपावन ब्राह्मणों का । उसके बाद राजाराम की पत्नी ताराबाई 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय की संरक्षिका बनकर राज करती रही ।1714 ई.सन् में ताराबाई की तबियत ख़राब होने से बाजीराव ने मराठा साम्राज्य का सम्पूर्ण अधिकार अपने हाथ में लेकर, राज करने लगा और अपने आप को पेशवा घोषित किया। 1717 ई.सन् में ताराबाई की मृत्यु हो गयी, और बाजीराव पेशवा का सम्पूर्ण मराठा साम्राज्य पर अधिकार हो गया और वंशानुगत पेशवा शासन करने लगे। इधर छत्रपति के वंश का नमो निशान मिटा दिया गया ।

यह चितपावन यहुदी हरामखोरी से बाज नही आते थे, उनकी दो लाख सेना थी और प्रति सैनिक को दो रूपए तनखा थी। जिस शहर में उनकी सेना होती, और महीने की अंतिम तारिख को सेनापति के आदेश से वो सेना जाकर उस पुरे शहर को लुटती और जो धन एकत्रित होता उसी में से सेना को उसी दिन तनखा वितरित होती।

इन चितपावन येहुदी पेशवों को पहला झटका 1761 ई.सन् में पानीपत के तृतीय युद्ध में लगा। जब परसिया के अहमदशाह अब्दाली ने उन्हें बुरी तरह परास्त कर दिया एंव सदाशिव राव भाऊ व नारायण राव तथा उनके सभी सेनापतियों को जान से मार डाला । उस झटके से मराठा साम्राज्य कभी ऊपर नही आया और इन्ही के सरदार व सेनापति होलकर ने इन्दोर, सिंधिया ने ग्वालियर व गाईकवार्ड ने बड़ोदा राज्य स्थापित किये, जिससे पेशवाओ के मराठा साम्राज्य को ओर क्षति पहुंची और 1818 ई.सन् में ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी ने चितपावन यहूदी पेशवा साम्राज्य की पूर्णतय अंतेष्टि कर दी ।

आज संभाजी के वंशज तो है सतारा राज्य के महाराजा और राजाराम के वंशज कोलापुर राज्य के महाराजा है ।


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