प्रभात झा पुण्यतिथि स्मरण : 'बाबा' सिर्फ पिता नहीं, एक विचार थे
तुष्मुल झा
पिता स्वर्ग: पिता धर्म: पिता हि परमं तप:। पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वा: प्रीयन्ति देवत:
अर्थात पिता स्वर्ग के समान है, पिता ही धर्म है, पिता ही परम तपस्या है। पिता के प्रसन्न होने पर सभी देवता प्रसन्न होते हैं।
हर शख्स के जीवन में पिता की एक महनीय भूमिका होती है। आज बाबा की प्रथम पुण्य तिथि है। बहुत कुछ लिखना चाहता हूं। लेकिन जिस कलम ने सच के लिए लड़ना सिखाया, आज उसी कलम से शब्द गुम हो गए हैं..। बचपन में जब पहली बार हाथ में कलम थामी, तो बाबा ने मुस्कराकर कहा था, लिखो बेटा, शब्द सिर्फ अक्षर नहीं होते, ये समाज की जुबान होते हैं। आज वही कलम कांप रही है। जैसे बाबा के बिना उसमें स्याही तो है पर आत्मा नहीं। मैं एक ऐसे घर में पला-बढ़ा जहां किताबें सांसों की तरह थी और जनसेवा एक विरासत। यह विरासत किसी की धरोहर नहीं, मेरे पिता प्रभात झा की दी हुई सौगात थी। बाबा की अनुपस्थिति में इन एक वर्षों में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से लेकर कार्यकर्ताओं तक का जो साथ मिला, उसने मुझे संबल प्रदान किया है। बाबा के नाम और उनके काम को आगे ले जाना मेरी प्रतिबद्धता है। मैं प्रतिदिन बाबा से बात करता हूं, पूछता हूं, बाबा क्या मैं सही जा रहा हूं। क्या अपनी सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारी का सही से निर्वहन कर रहा हूं। बाबा सिर्फ एक पिता नहीं थे, वह एक विचार थे। वह एक दृष्टि थे, जो समाज को पत्रकारिता की जमीन से लेकर संसद की ऊँचाइयों तक देखते रहे। 'स्वदेशÓ में उन्होंने कलम से जनजागरण किया और फिर जनसेवा की राह पर चल पड़े। वही विचार, वही संवेदना लेकर। उनकी सोच कभी सीमित नहीं रही। वह गाँव के अंतिम आदमी से लेकर संसद के गलियारों तक हर आवाज के साथी रहे। उन्होंने समाज के लिए जिया, विचार के लिए लड़ा, और हमेशा संवाद के माध्यम से सच्चाई को सामने लाने का काम किया। बाबा से जुड़ी अपनी एक स्मृति आप सब से साझा करना चाहता हूं। मेरे बारहवीं के परीक्षा परिणाम आने वाले थे गर्मियों की छुट्टियां थी। मैं अपने दोस्तों के साथ साइबर पर रिजल्ट देखने गया। जब आपने बहुत तैयारी की हो तो परिणाम को लेकर आप काफी आश्वस्त रहते हंै लेकिन मन में एक डर भी बना रहता है, मैंने देखा मुझे 90 प्रतिशत अंक प्राप्त हुए है। मैं वहां से दौड़ते हुए घर की तरफ भागा। घर पहुंचा, गेट खोला। बाबा के पैर छूकर उन्हें बताया बाबा मैंने 90 प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं। उन्होंने सहजता से कहा बहुत बढ़िया। आशीर्वाद और बेहतर हो सकते थे तुष्मुल। मुझे लगा बाबा ने एकदम सामान्य सी प्रतिक्रिया दे दी। उनके कुछ दिन बाद मां ने बताया कि बाबा ने सारे रिश्तेदारों और अपने निकट संबंधियों को फोन करके बताया था तुष्मुल ने कितना अच्छा किया। बारहवीं में 90 प्रतिशत अंक प्राप्त किए। बाबा का स्वभाव था कि वो प्रेम को कभी प्रदर्शित नहीं करते थे। बाबा के संघर्ष भरे जीवन में मां की महत्वपूर्ण भूमिका रही। आज जब वह शारीरिक रूप से हमारे बीच में नहीं हैं, तब भी उनके विचार, उनके मूल्य, उनकी भाषा और उनके कर्म जीवित हैं। मैं महसूस करता हूं कि बाबा केवल चले नहीं गए, वह अपनी सोच मेरे भीतर बीज की तरह बो गये हैं। उनका जाना केवल एक व्यक्तिगत शून्य नहीं हैं, बल्कि एक ऐसी चुप्पी हैं जिसमें पूरी पीढ़ी को एक सच्चे लेखक, एक संवेदनशील जनसेवक और एक विचारशील पिता की कमी खलती रहेगी।
जब 6 दिसंबर 1992 को देश की राजनीति थर्रा रही थी, तो वे ग्वालियर से अयोध्या तक मोटरबाइक से निकल पड़े-सिर्फ एक पत्रकार नहीं, एक साक्षी बनकर। बाबरी मस्जिद विध्वंस को उन्होंने अपनी आँखों से देखा, और उसकी सच्चाई को कलम से दुनिया के सामने रखा। उनकी पत्रकारिता सिर्फ घटनाओं का लेखा-जोखा नहीं थी, वह विचारों की लड़ाई थी, और सच्चाई की खोज थी। 'स्वदेश' में उन्होंने वर्षों तक लेखनी से जनचेतना जगाई, और फिर उसी चेतना को संसद तक ले गए। राज्यसभा में बैठकर भी उनकी आत्मा वही रही एक पत्रकार की, एक लेखक की, एक जनसेवक की। बाबा का जीवन सीमाओं में नहीं बंधा। वे गाँव के अंतिम जन से लेकर संसद के गलियारों तक हर आवाज के साथ खड़े रहे। प्रदेश अध्यक्ष बने तो मध्यप्रदेश के 650 मंडलों का प्रवास किया। हर मंडल अध्यक्ष को व्यक्तिगत रूप से जानना, समझना और सम्मान देना, यही उनका स्वभाव था। कर्मठ कार्यकर्ताओं को सिर माथे बैठाना, उनकी प्राथमिकता थी। हमेशा कहते, पार्टी का कार्यकर्ता मेरी आत्मा है। बाबा के लिए राजनीति केवल सत्ता का माध्यम नहीं थी, वह सेवा, विचार और कर्म की भूमि थी। उनका स्वास्थ्य पिछले दस वर्षों से प्रतिकूल था, पर कभी भी उन्होंने खुद को प्राथमिकता नहीं दी। हर बार अस्पताल से लौटते तो हम कहते, अब दिनचर्या बदलिए, बाबा। मगर उन्हें अपने स्वास्थ्य की चिंता कम और कार्यकर्ताओं, लेखन और जनसेवा की चिंता ज्यादा रहती थी।
छोटे भाई से हमेशा स्नेह करते, गर्व से कहते-तुष्मुल बहुत मेहनत करता है, पर अपने स्वास्थ्य का भी ख्याल रखा कर। मुझे कभी ये महसूस नहीं होने दिया कि उनके भीतर कोई पीड़ा है। 25 जुलाई 2024 को दिल्ली के मेदांता अस्पताल में उन्होंने अपनी अंतिम साँस ली। जिस देह ने विचार जिए, संघर्ष जिए, समाज के लिए लिखा- वह देह अब मौन है। लेकिन उनकी सोच, उनके मूल्य, उनका जीवनदर्शन आज भी मेरे भीतर जीवित है। मैं आज जब उनके बारे में लिखने बैठा हूँ, तो शब्द पीछे छूट जाते हैं। क्योंकि जिन्होंने लिखना सिखाया, उन्हीं पर लिखना आज सबसे कठिन हो गया है। जीवन में संयम इतना कि उसकी कोई सीमा नहीं, समर्पण ऐसा कि 2020 में जब सभी दायित्वों से मुक्त हुए तब वो कहते कि अब लिखने पढ़ने में पूरा समय दूंगा तो उनके सहयोगी, कार्यकर्ता कहते कि आपके लिए कुछ तो होना चाहिये। बाबा ने कहा जो पार्टी ने दिया वो पर्याप्त है, ऐसे विचार आज कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का साधन है। बाबा कभी किसी बात पर चर्चा कर लेते या राय जानना चाहते तो यह लगता कि अब मैं बड़ा हो गया हूं। बाबा हॉस्पिटल में थे अंतिम समय में हम दोनों भाई डरते थे कही बाबा को कुछ हो न जाये जिसका डर था अंत में वहीं हुआ। 25 जुलाई 2024 को बाबा नश्वर शरीर त्यागकर स्वर्ग सिधार गए, आपने जो कलम थमाई थी, वो अब मेरी जिम्मेदारी है। आपके विचार, आपकी जिद, आपकी निर्भीकता ये सब मेरे भीतर धड़कती रहेंगी।श्रद्धांजलि बाबा। आप अमर हैं।
(लेखक : तुष्मुल झा, स्व.प्रभात जी के बड़े बेटे हैं। )