सारे जहां से अच्छा क्यों लिख दिया मैंने?

Update: 2023-06-24 19:58 GMT

कै. आर. विक्रम सिंह

स न् 1930 के इलाहाबाद में आयोजित मुस्लिम लीग के सालाना जलसे में मशहूर शायर अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान का विचार दिया था। उन्होंने पाकिस्तान तो नहीं कहा। उनके प्रस्ताव के मुताबिक ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर पश्चिम के तीन राज्यों फ्रंटियर पंजाब व सिंध को मिला कर मुसलमानों के लिए एक राज्य बनाया जाये जहां मुसलमान अपने मजहब कल्चर के मुताबिक रह सकें। ध्यान देने योग्य है कि बंगाल का मुसलमान उनके विचार में नहीं था। पाकिस्तान का नाम तो बाद में चौधरी रहमत अली ने 1933 में दिया था। फिर इकबाल ने पाकिस्तान के बारे में जिन्ना से लंबी खतो किताबत की। और जिन्ना को अपने विचारों के काफी करीब ले आये। ये वही जिन्ना हैं जो गोखले को अपना गुरू मानते थे। वे कभी भारतीय राष्ट्रवादी रोमांस में मुब्तला रहे थे। 1928 के बाद सब बदलने लगा था।

इकबाल जब यूरोप की लम्बी यात्रा पर गये तो उनके सामने कभी स्पेन तक विस्तारित रहे इस्लाम का वह परिदृश्य प्रकट हुआ जो उन्होंने पढ़ा तो था, देखा न था। जहां मसजिदें थीं वहां आज चर्च खड़े हैं। जो सात सौ साल तक मुसलमान रहे थे वे सब वापस ईसाई बना लिए गये थे। इस्लाम का वहां कोई नामलेवा नहीं था। पानी के जहाज से इंग्लैंड से वापस आते हुए उनका जहाज सुबह के वक्त भूमध्यसागर से गुजरता है। जहाज के डेक पर खड़े इकबाल सुबह की रोशनी में अपने बायें से पीछे छूटते हुए स्पेन के समुद्र तट को देख कर भावुक हो उठते हैं कि कभी यह सब इस्लाम का इलाका, बतौर दारुल इस्लाम रहा था। इस्लामिक काल के उस व्यतीत स्वर्णिम दौर को याद करते हुए वे वहीं डेक पर एक भावनात्मक सी नज्म लिखते हैं।

उस यात्रा के दौरान इकबाल स्पेन के मसजिदे कुर्तबा, जो आज कोरडोबा का विशाल चर्च है, के प्रांगण में नमाज पढ़ने की इजाजत मांगते हैं। उन्हें एक बड़ा शायर, हिंदुस्तान से आया हुआ एक इंटेलेक्चुअल मानते हुए एक साइड में नमाज अदा करने की इजाजत दे दी जाती है। वह इकबाल के लिए एक ऐतिहासिक लम्हा है जिसमें इतिहास के गुजिश्ता दौर से उनकी मुलाकात होती है। कभी इस मसजिद में हजारों हजार मुसलमान एक साथ नमाज अदा करते थे, आज यह एक चर्च है। वैश्विक इस्लाम के दिग्दर्शन के बाद भारत आकर उनके विचारों में बदलाव दिखने लगता है। अब इकबाल सेकुलर नहीं रह गये थे। उन्हें अफसोस हुआ कि उन्होंने सारे जहां से अच्छा। जैसी गजल क्यों लिखी। फिर उसी तर्ज पर उन्होंने एक मिल्ली तराना लिखा। मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा। संभवत: यह दुनिया का अकेला कौमी तराना या राष्ट्रगान के स्तर का गीत है जिस पर खुद उसके लिखने वाले ने ही अफसोस जाहिर किया । और हम इस दुनिया की अकेली बेशर्म कौम हैं जो खुद शायर द्वारा हिकारत से खारिज कर दी गयी उनकी उस गजल को पूरे सम्मान से गाते हैं।

दुनिया में हिंदू एकमात्र धर्म है जिसके हम मानने वालों को बेगैरत बेचारा असहाय व दया का पात्र बनाने के लिए हमारे शांतिवादी नेताओं ने बड़ी मेहनत की थी। वे कोई विवेकानंद नहीं थे जो हमें हमारे इतिहास की कमियों को दुरुस्त करने के साथ हमें अपनी परंपरा व संस्कृति पर गर्व करना सिखाते। जब आप एक पूरी कौम को अहिंसक बना देंगे तो उसे लम्बी गुलामियों से भला कैसे रोका जाएगा ? गांधी खुद महात्मा का अवतार बन कर हमें बिना सींग की भेड़ों की तरह मानसिक गुलाम बना ले जाने में सफल हो भी गये थे। हमें न अपना हित समझ में आता था न राष्ट्रीय हित। उन्होंने हमें ऐसे रास्ते पर चला दिया था कि हमने इस्लामिस्टों की खुशी के लिए अपने देश को खंडित कर मुसलमानों के लिए एक अलग देश बनाना मान लिया।

भारतीय परंपरा से हमारे इन शांतिवादी नेताओं की शत्रुता इतनी बड़ी थी कि इन नेताओं ने हमें हमारा इतिहास भी हमें हमारी पीढ़ियों को न जानने देने का पूरा इंतजाम किया कि कहीं हममें गर्व का ऐसा एहसास न होने लगे जो उन्हें सत्ताओं से बेदखल करने का कारण बन जाए।उनकी पूरी कोशिश थी कि हमें हमारी शक्ति का आभास न हो और हम विभाजित मानसिकता के साथ उस नये बने देश के मजहबी दबाव में जिंदगी बसर करते रहें। वहां जाने से बचे रहे लोग यहां पर उन सेकुलरिस्टों के मजबूत वोट बैंक बने हुए हैं। पाकिस्तान तो जिन्ना इकबाल व अशराफ के लिए बनाया गया था लेकिन इसके बरक्स यहां का नया मजहबी वोट बैंक हमारी आंतरिक राजनीति को बैलेंस करने के लिये था। यह वह वोट बैंक था जो नेहरू को हमेशा सत्ता में बनाए रखेगा। पाकिस्तान बना और नेहरू ने उस पाकिस्तान की हिफाजत के पूरे इंतजाम किये। इस तुष्टीकरण का अंत कभी खंडित विभाजित भारत के रूप में भी हो सकता है, इस बात की नेहरू और उनके वारिसान ने कोई परवाह ही नहीं की। भारत दरअसल नेहरू के लिए एक स्प्रिंग बोर्ड की मानिंद था जिसके माध्यम से उछल कर वे सारी दुनिया में महान् स्टेट्समैन के रूप में छा जाने वाले थे।

क्या ऐसे नेताओं के लिए कभी संभव था कि वे स्पेन के उन धार्मिक क्रूसेडर योद्धाओं से प्रेरणा ग्रहण कर सकते जिन्होंने 700 साल के इस्लामिक शासन को 1492 में जड़ से उखाड़ फेका था। सब चर्च जहां मसजिदें खड़ी हो गयी थीं वहां पहले जैसे चर्च कैथेड्रल खड़े हो गये। सम्पूर्ण आबादी एक माह में बना किसी सवाल जवाब के वापस ईसाई हो गयी। जब योरोप स्पेन ने अपने को इस्लामी राज से मुक्ति की घोषणा की उस समय यहां अलाउद्दीन खिलजी राज करता था। बलात् धर्मपरिवर्तन जबरदस्त तरीके से चल रहा था। हमारे यहां धार्मिक नेतृत्व जनजागरण में सक्षम ही नहीं था। हम इस्लामिक तानाशाही के विरुद्ध लगातार विद्रोह तो कर रहे थे लेकिन विभाजित सोच, शक्तियों के अपव्यय, धार्मिक नेतृत्व के अभाव के कारण सफल न हो सके।

नेहरू पर वापस आते हैं। उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा भारत से बड़ी थी। वे एक ऐसा नेता थे जो एक भी वोट पाए बिना मात्र अंग्रेजों व गांधी जी की कृपा पर भारत के प्रधानमंत्री बन गये थे। वे भारत के जागीरदार और देश की जनता उनकी रियाया प्रजा थी। सरदार पटेल के चले जाने के बाद तो जैसे उनके सामने कोई था ही नहीं। वह तो 1962 में नेहरू के गैरजिम्मेदार कारगुजारियों के परिणामस्वरूप एक ऐसे युद्ध से हमारा सामना हो गया जिसने नेहरू के वैश्विक नेता बनने के स्वप्न को ध्वस्त कर नेस्तनाबूद कर दिया। चीनी उनके फेंके जा रहे तुष्टीकरण के किसी जाल में नहीं आये। यह ऊंचे आकाश में उड़ रही आत्ममुग्ध नेहरू की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं का एक दुखद अंत था... !

(लेखक पूर्व सैनिक एवं आइएएस रहे हैं)

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