वंदेमातरम् जो स्वाधीनता का महामंत्र बना

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय

Update: 2023-06-26 20:35 GMT

रमेश शर्मा

देश की स्वतंत्रता के लिए हुए असंख्य बलिदानों की श्रृंखला के पीछे असंख्य प्रेरणादायक महाविभूति भी रहे हैं। जिनके आव्हान से समाज जाग्रत हुआ और संघर्ष के लिए सामने आया। ऐसे ही महान विभूति हैं बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय। जिनका आव्हान मानों स्वाधीनता संघर्ष का एक महामंत्र बन गया। उनके द्वारा सृजित वंदेमातरम् का उद्घोष सशस्त्र क्रान्तिकारियों ने भी किया और अहिसंक आंदोलनकारियों ने भी किया। राष्ट्र और सांस्कृतिक वोध जागरण के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित करने वाले सुप्रसिद्ध पत्रकार, साहित्यकार और गीतकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म 27 जून 1838 को बंगाल के उत्तरी चौबीस परगना जिला अंतर्गत कंठालपाड़ा नैहाटी में हुआ था।(कहीं-कहीं यह तिथि 28 जून भी लिखी है) उनके पिता यादवचन्द्र चट्टोपाध्याय के परिवार की संपन्न और सुसंस्कृत थी। माता दुर्गा देवी भी परंपराओं के प्रति पूर्णतय: समर्पित थीं। राष्ट्र स्वाभिमान और सांस्कृतिक बोध उनके संस्कारों में था। उनकी शिक्षा हुगली कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज में हुई। देश में जब 1857 की क्रान्ति आरंभ हुई तब वे महाविद्यालयीन छात्र थे। बीए कर रहे थे। अंग्रेजों ने क्रान्ति के दमन के लिए जो सामूहिक नरसंहार किए उनके समाचार प्रतिदिन आ रहे थे। उन्होंने क्रान्ति के कारणों को भी समझा और असफलता को भी। इस पूरी अवधि में वे मानसिक रूप से उद्वेलित तो हुए पर अपनी पढ़ाई से विचलित न हुए। 1857 में ही प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की उपाधि लेने वाले वे पहले भारतीय विद्यार्थी थे। इस कारण तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने उनका स्वागत किया और शिक्षा पूरी होने के साथ उनकी नियुक्ति डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर हो गई। कुछ समय वे बंगाल सरकार में सचिव पद पर भी रहे। लेकिन उन्होंने नौकरी छोड़ दी। 1869 में वकालत पास की और इसके साथ ही उन्होंने वैचारिक रूप से समाज जागरण का अभियान आरंभ किया। वे अतीत में हुए संघर्ष से जितने प्रभावित थे उतने ही कुछ लोगों द्वारा परिस्थतियों के समक्ष झुक कर अपना स्वत्व और स्वाभिमान खो देने की मानसिकता से भी आहत थे। इसलिए उन्होंने स्वत्व जागरण और संगठन पर जोर देने के संकल्प के साथ अपनी रचना यात्रा आरंभ की। उनकी पहली प्रकाशित रचना राजमोहन्स वाइफ थी। यह अंग्रेजी में थी। इसमें परिस्थितियों की विवशता को बहुत सावधानी से प्रस्तुत किया। बंगला में उनकी पहली रचना 1865 में दुर्गेशनंदिनी प्रकाशित हुई। यह एक आध्यात्मिक रचना है पर इसके माध्यम से समाज की आंतरिक शक्ति से ठीक उसी प्रकार परिचित कराया गया जैसा मुगल काल में बाबा तुलसी दास ने रामचरित मानस के द्वारा जन जागरण करने का प्रयास किया था। इसी श्रृंखला में 1866 में उपन्यास कपालकुंडला प्रकाशित हुआ और 1872 में मासिक पत्रिका बंगदर्शन का भी प्रकाशन किया। इस पत्रिका के माध्यम से वे एक कुशल पत्रकार के रूप में सामने आए। इस पत्रिका में बंगाल के अतीत, और गौरव की चर्चा के माध्यम से समाज को जाग्रत करने की सामग्री होती थी। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने अपने विषवृक्ष उपन्यास को भी धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि इस उपन्यास में समाज के उस स्वभाव और अदूरदर्शिता का प्रतीकात्मक वर्णन था जो भारत राष्ट्र के पतन का कारण बना। इसी प्रकार अपनी कृष्णकांतेर रचना में उन्होंने ने अंग्रेजी शासकों पर तीखे व्यंग्य किए। और इसके बाद 1882 में उनका कालजयी उपन्यास आनंदमठ सामने आया। यूं तो उनकी प्रत्येक रचना भारतीय समाज को जाग्रत करने वाली हैं पर फिर भी उनका आनंदमठ और इसके अंतर्गत आया गीत वंदे मातरम। जो संघर्ष और बलिदान का एक महामंत्र बना। इस उपन्यास की भूमिका बंगाल में हुए संन्यासी विद्रोह से पड़ गई थी। बंगाल में संतों और संन्यासियों ने 1873 में समाज जागरण का कार्य किया था ताकि अंग्रेजी कुचक्र से राष्ट्र संस्कृति और परंपराओं की रक्षा हो सके। संतों के इस अभियान को संन्यासी विद्रोह का नाम दिया गया जिसे अंग्रेजों ने बहुत क्रूरता से दमन किया था। आनंदमठ में संन्यासियों द्वारा की गई क्रान्ति के प्रयास का वर्णन था। जब इस उपन्यास के रूप में यह विवरण सामने आया तो मानो पूरे समाज राष्ट्रबोध जाग्रत हो गया और समाज अंग्रेजों के विरुद्ध एक जुट सामने आने लगा। तब बंगाल के सामाजिक और सार्वजनिक आयोजन में वंदेमातरम् का घोष मानों एक परंपरा ही बन गई थी। बंकिम बाबू का अंतिम उपन्यास 1886 में सीताराम आया। इसमें सल्तनत काल के वातावरण और उसके प्रतिरोध को दर्शाया गया था। उनके अन्य उपन्यासों में मृणालिनी, इंदिरा, राधारानी, कृष्णकांतेर, देवी चौधरानी और मोचीराम का जीवनचरित शामिल है।          (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

Similar News

सदैव - अटल