प्रो. मनमोहन प्रकाश
किसी शिक्षा तंत्र तथा शिक्षा नीति में पाठ्यक्रम, पाठ्य सामग्री तथा पाठ्य-पुस्तकों का निश्चित रूप से विशेष महत्व होता है। क्योंकि ये ही निर्धारित करते हैं कि किस उम्र तथा कक्षा के विद्यार्थी को उसके मानसिक स्तर के अनुसार क्या पढ़ाना उचित रहेगा? जिसे शिक्षार्थी बिना दवाब के सहजता और सरलता से ग्राह्य कर सकता है। हम सब इस सदी को विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सदी के रूप में पहचानने लगे हैं। विज्ञान, तकनीक और प्रौद्योगिकी ने निरंतर पिछले कुछ दशकों में नए शोध के कारण बेतहाशा प्रगति की है। बेसिक साइंस तथा एप्लाइड साइंस कंटेंट में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। इंटरनेट पर भी अथाह ज्ञान का भंडार उपलब्ध है। नित्य नए शोध परिणाम सामने आने से विज्ञान के मूलभूत सिद्धांत भी आधुनिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित होते जा रहे हैं या उनकी नई तरीके से व्याख्या की जा रही है। इसके कारण भी कुछ पाठ्य विषय अपनी प्रासंगिकता भी खोते नज़र आते हैं। जब वैज्ञानिक विषय नए होते,उन पर सामग्री और जानकारी कम उपलब्ध होती है तब उन्हें किसी भी कक्षा में जानकारी देने के उद्देश्य से पढ़ाया जा सकता है किंतु जब निरंतर शोध के कारण विषय सामग्री अधिक होने के साथ उपयोगिता के नए आयामों को अपने में समाहित किए होते हैं तब इन विषयों को पाठ्यक्रम और पाठ्य-पुस्तकों में शामिल करते समय शिक्षार्थी की मानसिक स्तर का ध्यान रखना बहुत जरूरी हो जाता है। इसीलिए ग्लोबल संदर्भ में विज्ञान के पाठ्यक्रम में समय-समय पर जितने बदलाव करना पड़ते हैं उतने कला, साहित्य विषयों में शायद नहीं। पाठ्यक्रमों तथा पाठ्य-पुस्तकों में बदलाव शिक्षा जगत में एक सामान्य प्रक्रिया माना जाता है। इसीलिए शायद यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीसन ने उच्च शिक्षा में बीओएस की पाठ्यक्रम के संबंध विषय विशेषज्ञों की दो साल में एक बैठक अनिवार्य की है। पाठ्यक्रम में राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समय-समय बदलाव अच्छे शिक्षा तंत्र की पहचान भी है। किन्तु पाठ्यक्रम में विषय वस्तु का निर्धारण करते समय यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि नए विषयों का प्रवेश सरलता से जटिलताओं की ओर हो, सिद्धांत से उपयोगिता की ओर हो और पाठ्य सामग्री में एक तारतम्य बना रहे, पुनरावृत्ति तो बिल्कुल भी नहीं हो।
हम सब कोरोना त्रासदी से भलीभांति परिचित हैं। हम में से बहुत से लोगों ने उसके दंश को झेला भी होगा। लगभग दो वर्ष के कोरोना काल ने सभी क्षेत्रों को बुरी तरह से प्रभावित कर नुकसान पहुंचाया है। शिक्षा भी इसके कुप्रभाव से अछूती नहीं रही है। शिक्षा तंत्र को ना चाहकर भी ऑनलाइन मोड पर अध्ययन, अध्यापन और परीक्षा को विद्यार्थियों के हित में जारी रखना पड़ा। यह प्रयोग कितना कारगर, उपयोगी रहा इसका विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क पर का कितना प्रभाव पड़ा यह शोध का विषय है। किंतु इतना आवश्य कहा जा सकता है कि इस प्रक्रिया ने शिक्षण को रुकने नहीं दिया, उसे जारी रखा, शून्य काल होने से बचा लिया और ना ही अगली कक्षा में जनरल प्रोमोशन के माध्यम से भेजने दिया। मैंने जब कोरोना काल का विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ा उसे जानने के लिए इस विषय पर किए गए शोध का अध्ययन किया तो पता चला कि इस त्रासदी ने स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के विद्यार्थियों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। प्रिया भक्त , काकोली दास तथा उनके साथी द्वारा किए गए शोध के परिणामों को 2023 के जर्नल ऑफ इफेक्टिव डिसआर्डर रिपोर्ट में प्रकाशित किया है। इसके अनुसार कोविड -19 ने भारत के विश्वविद्यालयीन विद्यार्थियों की बड़ी संख्या में मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित किया है, विशेष रूप से महिला, पिछड़े वर्ग तथा जनजाति के विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डाला है। देव,कार एवं साथी द्वारा स्कूली विद्यार्थियों पर कोरोना काल के प्रभाव का मानसिक स्वास्थ्य पर अध्ययन किया गया तथा प्राप्त परिणामों को 2022 में 'डाटाÓ नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया। इस शोध के अनुसार स्कूली विद्यार्थियों पर इस त्रासदी का मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा विपरीत प्रभाव पड़ा। सभी शोध इस अवधि में स्कूली विद्यार्थियों को तनाव और दवाब से प्रभावित मानते हैं। तनाव और दबाव चिकित्सा विज्ञान में एक मानसिक रोग की श्रेणी में आता है और कई अन्य रोगों का जनक भी है। विज्ञान के विद्यार्थियों में ऑनलाइन शिक्षा ने विशेष कर प्रयोगशाला में स्वयं के द्वारा 'करो और सीखोÓ से विद्यार्थियों को दूर रखा। जो वैज्ञानिक सिद्धांत और तथ्य प्रयोगात्मक शिक्षा से आसानी से समझे जा सकते थे वे या तो समझ में नहीं आए या उन्हें समझना कठिन रहा। कमजोर विद्यार्थियों जिन्हें शिक्षक के विशेष ध्यान की आवश्यकता होती है की क्या स्थिति रही होगी इसका तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।
(लेखक स्तंभकार हैं)