देखते ही देखते समय का पंछी हमारे बचपन को लेकर उड़ गया। दूर, इतना दूर कि उसके पंखों की फड़फड़ाहट भी नहीं सुनाई देती। अब क्यों लौटेगा भला? बस लौटेंगी भी तो उन दिनों की सुनहरी यादें, . . . कभी चूजों के पीछे दौड़ते नन्हें मुन्नों को देखकर तो, कभी बादल की पहली बूँदों में नहाते नंग-धड़ंग बच्चों को देखकर। कभी-कभी तो भारी बस्ते से लदे बच्चों को देखकर ये यादें ऐसी घुमड़ पड़तीं, कि मन उनमें रम जाता है. . . कैसा सलोना सा हमारा बचपन, तब कहाँ था ऐसे भारी बस्ते का बोझ..?
बस्ते के नाम पर मात्र एक थैला या झोला। वह कभी तो आजी माँय की फटी साड़ी की मजबूत किन्तु सुन्दर किनार का सिला हुआ होता, तो कभी मजबूत लट्ठे का होता। लम्बे हत्थे के उस झोले में मात्र आधे आने याने 3 पैसे की पट्टी पहाड़े की किताब, स्लेट पट्टी पर लिखने वाली कलम-पेम-बत्ती (मिट्टी की कलम), स्लेट साफ करने के लिए पानी-पोंछे की शीशी और इंजन का पत्थर-कोयला बस यही कुछ होता था। यह भी सब अमीरी की पहचान थी। बस्ता कंधे पर लटकाया, हाथ में स्लेट-पट्टी जिसमें एक तरफ़ गिनती पहाड़े व दूसरी तरफ सुलेख रहता था। पट्टी को पकड़ने का एक खास तरीका होता था, जिससे न अक्षर मिटें, न कपड़ों से छुलकर पुछें। बस, दौड़ पड़ते बिना चप्पल-जूते के, एक साँस में स्कूल, चपरासी पतिराम मामा के पहले। बड़ी ललक रहती थी सबसे पहले स्कूल पहुँचने की।
पतिराम मामा स्कूल झाड़ता, पानी भरता, उतनी देर में हम स्कूल में बने सरस्वती माता के चबूतरे को लीपकर, उसपर रंगोली से चौक बना देते। सरस्वतीजी पर फूल चढ़ाकर उनसे प्रार्थना करते कि वह हमें सुबुद्धि दें व हमारी स्कूल की रक्षा करें। सामूहिक प्रार्थना के बाद भारत माता की जय के साथ ही विद्या माता की भी जय-जयकार करते थे।
शाला में कोई भी नया छात्र आता तो उससे सरस्वती माता का पूजन कराया जाता, पट्टी का पूजन होता। जैसे ही नारियल फूटने की आवाज़ होती, वैसे ही सरस्वती माता के जयकारे गली के नुक्कड़ तक सुनाई देते थे। उन दिनों बड़ा आनन्द का माहौल होता था।
स्कूल में छात्रों की संख्या बढ़ती तो सबको अच्छा लगता। एक से चार क्लास तक मात्र पचास-पचपन बच्चे ही थे। लड़के तो आस-पास के गाँवों, जैसे - बोराड़ी, डोंगरगाँव, हीरापुर, अमोदा, काकरिया आदि से आ जाते थे, पर लड़कियाँ तो बस हमारे ही गाँव की होतीं, वे भी बमुश्किल बारह-पन्द्रह ही। इनमें सात-आठ तो हामरे ही परिवार की थीं, तीन-चार सरकारी डॉक्टर, गुरुजी, पटवारी और दो-एक सेठ दाजी की बस . . .। मन को यह सालता था कि गली मोहल्लों में तो बहुत सी लड़कियाँ हैं, जो हमारे साथ, "नरवत', "संजा', पाती आदि सब खेलती थीं, फिर पढ़ने, जाने क्यों नहीं आतीं।
मैं स्वत: ही प्रयास करने लगी। मेरे साथ खेलने वाली हमारी टोल की लड़कियों के माता-पिता से आग्रह करती, ""मरु, पारू, सज्जई को स्कूल भेजो ना।'' वे कह देते, ""बेटा हम किरसाण . . . छोरी का लगीण भी हो गया है, "पढ़ कर करेगी तो क्या? कण्डे तो थोपेगी ही . . .।'' पर मैं भी हार मानने वाली नहीं थी, क्योंकि मैं बिना रोक-टोक के सब घर, गली-मोहल्लों में चली जाती थी, चाहे वह नाले पार की बस्ती हो, चाहे गाँव के बाहर की। मेरी इस आदत के कारण मुझे खूब तो नहाना पड़ता था और बिना अष्टमी-नौमी के बिजासणी माता की बेल (रक्षासूत्र) बदलनी पड़ती थी। पर इस सबसे निजात पाने के लिए मेरी आजी माँय ने रेशमी परकुर-पोलका (लहँगा-ब्लाउस) बना दिया था, ताकि रोज की लाग-बिलाग (छुआछूत) से मुक्ति मिले। अब तो मैं निद्र्वन्द्व किसी भी टोले में जा सकती थी। दलितों के कुँआ के पास धनीराम काका का घर, मेरे लिए ज्यादा ही लुभावना था। वहाँ मेरी ही उम्र की लड़कियाँ थीं, जो दिनभर चूजों के साथ खेलती थीं। कभी सफेद चूजे को गोदी में ले लेतीं, तो कभी काले भूरे के पीछे भागकर उन्हें पकड़तीं। वहीं आँगन के एक कोने में सुँअरिया के दस-बीस बच्चों का खेल। मन बहुत ही रमता था उसके घर। वैसे वे लोग मुझे देखती थीं, तो घर नहीं बुलाती थीं। दोपहर के समय वे दोनों लड़कियाँ अपनी भुआ के साथ हमारे घर रोज रोटी लेने आती थीं, मैं उनको इशारे से कहती, भीतर आ जाओ। वे अपनी भुआ की साड़ी में मुँह छुपा लेती थीं। मैंने एक दिन साहस बटोर कर कहा, ""लछमी बुआ! इनको स्कूल भेजो ना'' . . . तो वे तपाक से बोलींट ""हमारी जात में भणी लिखी छोरी से ब्याव कोई नी करेगा, फिर सड़क-गली तो झाड़ना ही है।'' मैंने मेरी आजी माँय से कहा कि इन्हें पढ़ाना है। और इस प्रकार आजी माँय की बात मानकर उन दोनों लड़कियों का नाम स्कूल में लिख गया। विद्यारम्भ संस्कार के लिए पहले दिन उसके लिए स्लेट-पट्टी, नारियल आदि मैं घर से ले गई।
धीरे-धीरे लड़कियों की संख्या बढ़ने लगी। अब वे दोनों बहनें मेरी सहेली हो गर्इं - गंगई-जमुनई। अब मेरा इसमें नैतिक दायित्व बढ़ गया। उनको कलम पोछा आदि सब मैं पूछ-पूछकर याद से देती थी, ऐसा न हो कि किसी दिन कोई चीज की कमी हो और वे स्कूल न आएँ। स्कूल में मैं सबको पट्टी पोंछने का चिन्दा एक नुकीले पेम में देती थीं, पर इनकी पट्टी मैं स्वयं ही पोंछ देती थी। मेरी स्कूल में थोड़ी सी दादागिरी भी चलती थी। बोली लगाकर विनिमय भी चलता था -- ""पेम में पोछा या पेम में कोयला।'' वैसे मैं बड़े लड़कों को मुफ़्त में पानी-पोंछा देती थी, पर बदले में उनसे कुएँ से पानी खिंचवा कर अपनी क्यारी सिंचवा लेती थी। स्कूल में हमें बागवानी में फूलों की क्यारी तैयार करना पड़ती थी।
छुट्टी के दिन हम सब भाई-बहन अपनी-अपनी स्लेट पट्टियों पर पत्थर का कोयला घिसकर उसे काली स्याह कर लेते थे, ताकि अक्षर अच्छे उछलें। दूसरे दिन स्कूल में स्लेट-पट्टी दिखाकर सबको ललचाते और कहते, ""देखो जिसे भी स्लेट पट्टी इतनी काली करना है वो हमको एक नुकीली "पेम' दे, हम उसे पत्थर का कोयला देंगे।'' पत्थर का कोयला याने अनमोल रतन। यह सच भी था, क्योंकि सिर्फ़ हमारे पास ही होता था यह सब। दरअसल बात यह थी कि हमारे गांव से सात मील दूर अत्तर स्टेशन था। यह खण्डवा - इंदौर रेल मार्ग पर था। तब गाँव में सिर्फ हमारे परिवार के लोग ही रेल से आते-जाते थे। कोई भी आए-जाए तो स्टेशन लाने ले जाने बैलगाड़ी जाती थी। हम भी स्टेशन जाते थे, और पटरी के बीच से इंजन से गिरा कोयला उठा लाते थे। उसी की धाक स्कूल में जमाया करते थे और साथ ही अपने ज्ञान की शेखी बखारा करते थे - रेल कैसी होती है, इंजन कैसा चलता है, सीटी कैसी बजती है, पीछे डिब्बे छुक-छुक कर कैसे दौड़ते हैं, आदि-आदि। यह सब हम बड़े हाव-भाव से बताते थे। और यह भी कह देते थे कि रेल वह तो सबके नसीब में कहाँ ? कितने ही तो मर गए जिन्होंने रेल नहीं देखी, और बिचारे कितने अभी ऐसे बदनसीब हैं, कि बिना रेल, देखे ही मर जाएंगे। पर हाँ इंजन का कोयला तो देख ही लिया- “लाओ नुकीली पेम जिसको कोयला चाहिए।” इतनी देर में तो नुकीली पेम से हमारी माचिस की डिब्बी भर ही जाती। पर हाँ, इतना जरूर था कि जब किसी के पास पेम नहीं होती तो गुरुजी कह देते थे, ""जाओ सुमन से माँग लो। गुरुजी का हम पर यह वि·ाास। हम तो करण दातार ही हो गये समझो।
हमारे स्कूल में चार कक्षाएँ और दो गुरुजी ही थे। बड़े गुरूजी आधे दिन डाक का काम सम्हालते थे। कारण, आस-पास के गाँवों की डाक व्हाया कालमुखी ही आती-जाती थी।
प्रार्थना हुई कि वहीं से गिनती पहाड़े बोलते आते थे। छोटे गुरुजी बड़ी कक्षा को "मन गणित’ करवाते थे तब तक तख्ते पर लिखे अक्षर छोटी कक्षा के छात्र उतारते थे। जब तक छोटे बच्चों का काम हुआ, बड़े छात्रों को तख्ते का काम दिया जाता। छोटे गुरुजी व चार कक्षाएँ, पर न कभी कोई खाली बैठता न ही कक्षा में किसी प्रकार की सुगसुबुगाहट। उनका पढ़ाने का तरीका इतना रोचक होता था कि तीन घण्टे कहाँ बीत जाते पता ही नहीं चलता। एक बजे "दोफार्यो' (भोजन) का अवकाश। दो बजे से फिर बड़े गुरु जी की कक्षा शुरू होती। बड़े गुरुजी हिन्दी में शुद्ध लेख, कविता-पाठ तथा कहानी ऐसे पढ़ाते थे कि एक भी मात्रा गलत न होती और कविता-कहानी कंठस्थ हो जाती थी।
छोटे गुरुजी छात्रों को खेल--कबड्डी खो-खो, लम्बी कूद, ऊँची कूद, दौड़, कुश्ती आदि का अभ्यास करवाते थे। हम छात्राओं को बड़े गुरुजी रस्सी दौड़, लोटा दौड़, लँगड़ी, चम्मच दौड़ आदि करवाते थे। दिसम्बर-जनवरी में तहसील स्तर के टूर्नामेंट में भाग लेने दूसरे गाँवों में भी ले जाते थे।
हमारी शाला में राष्ट्रीय पर्व भी बड़े उत्साह और उमंग से मनाए जाते थे। बड़े ही ज्ञानवर्धक, रोचक व प्रेरणादायी कार्यक्रम होते थे। इन पर्वों पर निकलने वाली प्रभात फेरियों में गाँव के लोग भी भारी संख्या में शामिल होते थे। लोगों में देशभक्ति की भावना देखते ही बनती थी। अपने-अपने आँगन के सामने से निकलने वाली प्रभातफेरी पर विशेषकर तिरंगे झण्डे पर, महिलाएँ फूल बरसाती थीं। पूरा गाँव ""झण्डा ऊँचा रहे हमारा, विजयी वि·ा तिरंगा प्यारा'' के स्वरों में सराबोर हो जाता था।
शाला में आकर जुलूस विसर्जन हो जाता और उसके पश्चात् राष्ट्रभक्ति के गीत, कविता, भाषण होते थे। सब लोग स्वतंत्रता की रक्षा का संकल्प लेते थे। जब तक वसुदेव सेठ गरमा-गरम जलेबी की परात लिए चले आते थे। पलाश के पत्तों पर जलेबी परोसी जाती थी। उन जलेबियों का स्वाद आज भी मुँह में आता है।
हमारे बड़े गुरुजी बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उनमें एक और सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे कम से कम साधनों में कुशलता पूर्वक कार्य संचालन करते थे। एक बार स्वतंत्रता दिवस पर उन्होंने स्वरचित नाटक "हम भी भणाँगा' का मंचन करवाया था। रात में होने वाला यह पहला नाटक था, जिसमें आसपास के गाँव के लोग भी बैलगाड़ी से आए थे, और गैसबत्ती (पेट्रोमेक्स) भी जलाई थी। कथा थी - मोहन नामक ग्रामीण छात्र शहर में उच्च शिक्षा के लिए जाता है, उसे वहाँ अच्छी नौकरी मिल जाती है। इस खुशी का संदेश वह तार द्वारा अपने घर भेजता है कि मैं आशीर्वाद लेने आ रहा हूँ। तार मिलते ही पिता जोर-जोर से रो पड़ते हैं। माँ पूछती है कि क्या है ? तो पिता बताते हैं, ""मोहन्या का तार आ गया है।'' अब तो माँ छाती पीट-पीटकर दहाड़ मार कर रोने लगती है, ""मोहन्या का तार आई गयो।'' जो भी आता, यह सुनता और दहाड़ मार कर रोने लगता था। यह सूचना जंगल की आग जैसे फैल गई। बड़े गुरुजी को जब यह खबर मिली तो वे मोहन के घर गए। माँ ने दहाड़े मारकर रोते हुए कहॉ, ""गुरुजी मोहन्या को तार आयो'' गुरुजी ने तार लिया, पढ़ा और ढहाका मारकर हँसने लगे, ""यह तो मैंने पहले ही पढ़ लिया था।'' इतनी देर में मोहन भी आ जाता है। सबकी फूली-फूली आँखों को देखकर पूछता है, ""गुरुजी ये सब क्यों रो रहे हैं।'' गुरुजी सब घटना सुनाते हैं, ""मोहन ने खुशी का तार भेजा था।'' अब मोहन ने यह प्रतिज्ञा की .. मैं अन्यत्र नौकरी नहीं करूँगा अपितु, गाँवों के लोगों को साक्षर करूँगा। "" फिर सब लोग मिलकर गीत गाते हैं -
""अफ़सोस है हमने बचपन में,
सब पढ़ना लिखना छोड़ दिया
और जितनी अच्छी बातें थीं
उनका भी समझना छोड़ दिया।''
अंत में हाथ जोड़कर सब कहते हैं -
""हम भी भणाँगा .... ।''
परदा गिरता है और खेल खत्म हो जाता है .... ।
इस अभिनय में मुझे बहुत सफलता मिली। गांव वालों को दी जाने वाली समझाइश, मात्र अभिनय ही नहीं रही। लोगों को वह अपने लिए सच लगी। इस नाटक में मेरा सफल अभिनय मेरे गुरुजी का आशीर्वाद और प्रसाद था। मुझे सालों तक गाँव के लोग मोहन्या कहकर ही बुलाते थे। "हम भी भणाँगा मोहन्या' कहते थे। मैं आज भी रोमांचित हो उठती हूँ कि मुझे उस समय इनाम में बारह रुपये मिले थे।
मुझे मेरे गुरुजी बहुत अच्छे लगते थे। पर बुरे कब लगते थे, जब वे बीच से पूछते थे, उन्नीस नम, सत्रह अट्ठे, तेरह सत्ते या फिर नौ पौवा, सात ढैया या तेरह पौन्या . . .। बस, नहीं बताया कि उल्टे हाथों पर छमाछम हरी सोंटी पड़ती या फिर रूल से उँगलियों पर ठट्ट ठट्ट. . .। और ऊपर से रोओ भी नहीं, बोलते जाओ -
सोटी पड़े धम्म धम्म
विद्या आए छम्म - छम्म
एक बार की बात, गुरुजी ने कहा, ""कल बीस तक पौना, सवा दो, पौने तीन, देवढ़ा, सब बीच-बीच में से पूछूँगा।'' पहाड़ा है कि याद ही नहीं हो रहा था, एक दिन पहले का हाथ दुख ही रहा था। घर में किसी से कह भी नहीं सकती थी। बुज़ुर्ग कहते हैं, ""गुरुजी की शिकायत की तो कुंभीपाक नरक मिलेगा।'' नरक की कथाएँ और नरक के फोटो "कल्याण' में देखे थे -कैसे ज़ल्लाद आरे से काटते हैं, फिर उस पर नमक मिर्च छिड़कते हैं, कड़ाहों में तलते हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा था, एक तरफ़ हाथों में मार दूसरी तरफ़ नरक आदि-आदि ...। नींद नहीं आई। सो दूसरे दिन मैं सुबह उठी ही नहीं। आजी माँय को बहुत चिंता हुई, क्योंकि भोर होते ही मैं उनके लिए बहुत से फूल चुनकर ला देती थी ..। बड़े दुलार से सिर पर हाथ फेरते उन्होंने पूछा, मैंने कहा, ""पेट दुख रहा है।'' माँ ने कहा, ""कुछ मत खाना, लंघन कर लोगी तो विकार दूर हो जायगा।'' अब आज न तो बादाम का सीरा और न ही पीतल का बड़ा ग्लास भर थरी का दूध ही मिला। भूख के मारे पेट सच में दुखने लगा। खाली पेट ऐसा बज रहा था, लगा मानो सच में पेट के भीतर चूहे उछल कूद कर रहे हों। पर क्या करूँ बुरी तरह फँस गई बहाना बना कर।
उधर स्कूल में प्रार्थना के समय मुझे न देखकर बड़े गुरुजी को भी चिन्ता हुई, क्योंकि मैं कभी भी अनुपस्थित नहीं रहती थी। उन्हें मेरे भाई बहनों से पता चला कि मेरा पेट दुख रहा है। स्कूल की हाजिरी लेकर पूरी व्यवस्था कर अन्य काम छोड़ कर गुरुजी मुझे देखने घर आ गए। साथ ही बताशे पर अमृत धारा लेकर लाए (उन दिनों गाँवों में दवाइयों की दुकान कहाँ होती थीं)। मेरे पेट में जैसे ही बताशा गया, अमृतधारा की ठंडक से पेट की कुलबुलाहट दूर हुई और मुझे नींद आ गई। बड़े गुरुजी कब गये, मुझे कुछ पता नहीं चला। पर जब नींद खुली तो पता चला स्कूल की आधी छुट्टी खत्म हो गई थी। मैं बिस्तर से उठी, कुएँ पर भरी कुण्डी का पानी छपा-छप आँखों पर मारा और परकुर से मुँह पोंछते-पोंछते स्कूल के बरामदे में पहुँच गई।
बड़े गुरुजी वहीं पहाड़े सवैया, पौना देवढ़ा पूछा करते थे ताकि चलते-फिरते लोग देख सकें, कि ये बच्चे अभ्यास नहीं करते। मैं चुपचाप लाइन में पीछे खड़ी हो गई। मेरी बारी आई -- ""सत्रह ढैया-- बिना जवाब दिए मैंने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। गुरुजी ने मुझे ममता भरी दृष्टि से देखा और कहा, "" तुम बैठ जाओ, तुम्हारी तबियत खराब है ना ?''
गुरुजी की वह ममता मयी मूरत आज भी मेरी आँखों में बसी है।
मुझे बड़ा अपराध बोध हो रहा था, मैंने क्यों बहाना बनाया। जो गुरुजी हमारी पढ़ाई की चिन्ता में रात को अपना कंदिल ले-ले कर बच्चों के घर-घर जाकर देखते थे कि कोई बच्चा सो तो नहीं रहा है, अभ्यास पूरा किया या नहीं ? मैं तो पहचान भी नहीं पाई। मेरे गुरुजी तो नारियल के मानिन्द थे। ऊपर से कठोर किन्तु भीतर से नवनीत जैसे।
आज भी खोजती हूँ मैं अपने गुरुजी को। उन जैसे निष्ठावान गुरु कहाँ मिलेंगे। आज भी खोजती हूँ, मैं अपने गुरुजी जैसी ममतामयी दृष्टि जिसमें मात्र छात्र के कल्याण की कामना भावना ही थी ।
उन्हें नमन . . . !!!