ऋतुपर्ण दवे
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो चाहा कर दिखाया। देश को बेहद कम और रिकॉर्ड समय में नई संसद मिली। साथ ही पहली बार पूरे देश ने एक साथ न्याय के प्रतीक पवित्र सेंगोल के बारे में और भी काफी कुछ पहली बार जाना। चोल साम्राज्य से जुड़ा सेंगोल जिसे हस्तान्तरित किया जाता है, उससे न्यायपूर्ण शासन की अपेक्षा की जाती है। प्राचीन काल सेंगोल न केवल राजदंड के तौर पर जाना जाता था बल्कि यह राजदंड केवल सत्ता का प्रतीक ही नहीं बल्कि राजा को हमेशा न्यायशील बने रहने के साथ ही प्रजा को भी राज्य के प्रति समर्पित रहने के वचन का स्थिर प्रतीक भी रहा है। राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति का संदेश वाचन भी हुआ। नई संसद का प्रधानमंत्री के हाथों उद्घाटन पर तमतमाए विपक्ष ने तमाम तरह के आरोपों से घेरने की कोशिश की। लेकिन ऐसा लगता है कि धुन के पक्के प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पर कोई फर्क पड़ा नहीं। लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देकर विपक्ष केवल उद्घाटन पर सवाल उठाने से क्या हासिल पाया, इस पर कुछ भी कहना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन इतना तय है कि प्रधानमंत्री की ढ़ेरों रैलियां, रोड शो और दूसरे कार्यक्रमों से इतर उनका महत्वकांक्षी सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट जिसमें नई संसद का शिलान्यास व उद्घाटन कर जो बड़ी उपलब्धि हासिल की वो विरली है और अलग भी। अब कोई इसे इवेन्ट कहे या गैर जरूरी ये अपना-अपना नजरिया है।
राजनीतिक दृष्टि से इसके मायने भी अलग हो सकते हैं। लेकिन जनता इस पर क्या सोचती है इसके लिए थोड़ा इंतजार जरूर करना होगा। हां भाग्यशाली वो सांसद जरूर हैं जिन्हें देश की पुरानी और नई संसद यानी दोनों में काम करने का मौका मिलेगा। नई संसद की बुनियाद भी नरेन्द्र मोदी ने 10 दिसंबर 2020 को तब रखी थी जब कोविड का दौर था। नई संसद तिकोने आकार का चार मंजिला विशाल निर्माण है जो 64,500 वर्गमीटर में है। इसे देशी कंपनी टाटा ग्रुप की सहायक टाटा प्रोजेक्ट लिमिटेड ने बनाया है तथा टेण्डरिंग में लार्सन एंड टुब्रो को पीछे छोड़ 861.9 करोड़ रुपए में हासिल किया। लेकिन वर्ष 2020 में केंद्रीय मंत्री हरदीपसिंह पुरी ने संसद में बताया था कि नए भवन की अनुमानित लागत 971 करोड़ रुपए है। वहीं बीते साल कई मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार लागत बढ़कर 1200 करोड़ रुपये से अधिक हो गई है। जाहिर है महंगाई बढ़ने के साथ लागत बढ़ना नई बात नहीं है। पुरानी लोकसभा की क्षमता 552 सीटों की थी जबकि नए में 888 सीटें हैं। इसी तरह पुराने राज्यसभा भवन में 250 सदस्यों की ही जगह थी। नए भवन में यह क्षमता बढ़ाकर 384 हो गई है। नई संसद की संयुक्त बैठक में एक साथ 1272 सदस्य बैठ सकेंगे जबकि दर्शक दीर्घा में 336 लोगों के बैठने का इंतजाम होगा। सांसदों को अलग दफ्तर भी मिलेगा जो आधुनिक डिजिटल सुविधाओं से लैस होगा ताकि पेपरलेस कामकाज की ओर भी बढ़ा जा सके। नई इमारत में एक भव्य कॉन्स्टिट्यूशन हॉल जिसे संविधान हॉल है जिसमें भारत की लोकतांत्रिक विरासत को दर्शाया जाएगा। इसमें हमारे संविधान की मूल प्रति रखी जाएगी। सांसदों के बैठने के लिए भी बड़ा हॉल, एक लाइब्रेरी, विभिन्न समितियों के लिए कई कक्ष, भोजन कक्ष और बहुत सारी पार्किंग की जगह होगी ताकि संसद में पहले जैसे भीड़-भाड़ व जगह की कमी नहीं दिखे। नई संसद में 3 मुख्य द्वार हैं ज्ञान द्वार, शक्ति द्वार और कर्म द्वार। फिलहाल मौजूदा संसद भवन की इमारत को बने करीब 96 साल हो रहे हैं जो शुरू में 556 मीटर व्याजस में थी। लेकिन जब जगह कम पड़ने लगी तो 1956 में फिर अतिरिक्त निर्माण करा दो मंजिलें और जोड़ी गईं। तब इसे संसद भवन नहीं बल्कि हाउस ऑफ पार्लियामेंट कहते थे। आजादी के बाद से जब यहां सांसद बैठने लगे तो संसद भवन कहलाने लगा। 1927 में बनी पुरानी संसद पर लगभग 83 लाख रुपए खर्च हुए और 6 साल का वक्त लगा। शुरुआत में ब्रिटिश विधान परिषद का कामकाज होता था। इसकी डिजाइन ब्रिटिश आर्किटेक्ट एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर ने की थी और नाम काउंसिल हाउस दिया गया। इसी आर्किटेक्ट के चलते दिल्ली लुटियंस की दिल्ली कहलाने लगी। पुरानी संसद हमारे मजदूरों और कारीगरों ने देशी सामग्री से बनाया था जिस पर भारतीय वास्तु कला और परंपराओं की गहरी छाप है। इसे मुरैना के चौंसठ योगिनी मंदिर के डिजाइन जैसी डिजाइन मानते हैं, क्योंकि कमरों से लेकर बिल्डिंग तक मंदिर से पूरी तरह मिलते हैं। इस मंदिर का निर्माण 1323 ईस्वी में कच्छप राजा जयपाल ने कराया और नाम इकंतेश्वर या इकत्तरसो महादेव मन्दिर रखा गया। दरअसल नई संसद भी स्वदेशी कारीगरी की मिशाल है। अभी सेंट्रल विस्टा जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण परियोजना में कई काम होने हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और स्तंभकार हैं)