विनय उपाध्याय
२१ जून... आषाढ़ की दस्तक के साथ ही मौसम के साज़ पर मेघों का संगीत अँगड़ाई ले रहा है। 'विश्व संगीत दिवसÓ के निमित्त यह तारीख़ इस भरोसे को पुख़्ता करती है कि हमारा सारा वजूद मौसिक़ी के सतरंगी आगोश में पनाह पाता है। यहाँ हर सुर महान प्रार्थना है- 'शब्द आभारी हैं सुरों के/सुर कंठ के/कंठ देह की/देह प्रकृति की/प्रकृति विराट की/और विराट!/शायद.../अपनी धन्यता के लिए/धरे हैं विराट ने ये रूप।Óकुछ ऐसी ही सुरमई आहटों को लिए एक किताबी गुलदस्ता इस दिन शाया हो रहा है। इसे नाम मिला है- 'अनुनादÓ। यह टैगोर विश्व कला एवं संस्कृति केन्द्र, भोपाल की शोध परियोजना की नायाब सौग़ात है। 140 पृष्ठों की इस कृति में हिन्दी के 52 कवियों की 60 से भी ज़्यादा कविताएँ संकलित हैं। 'अनुनादÓ की कविताओं से गुज़रते हुए संगीत सतही आनंद से परे आत्मा में एक गहरी अनुगूँज की तरह उतरता है। किशोरी अमोणकर ने एक साक्षात्कार में कहा था- 'मैं स्वर के जरिये अपनी आत्मा के रहस्य को बूझने का जतन करती हूँ। आत्मा, जिसका नाता ब्रह्म से है। जब तक देह है, सुर हमारा है। लेकिन मृत्यु के बाद भी वह इस संसार में रहेगा क्योंकि स्वर अनश्वर है।Ó
दरअसल जीवन, प्रकृति और संस्कृति की परस्परता में संगीत मनुष्यता को पुकारता है। हमारे संगीत मनीषियों ने सुरम्य राग परम्परा की विरासत पीढ़ियों को सौंपी। जब समंदर पार के मुल्कों में हमारे संगीतकारों ने प्रवेश किया तो भौतिक सुखों के सतही आनन्द में गाफिल परदेसियों की बुझी जिन्दगियों को जैसे कोई मरहम मिल गया। एक ऐसा प्रभाव जिसने सीधे रूह में प्रवेश किया। डागर घराने के वंशजों ने बरसों पहले अमेरिका जाकर अपनी ध्रुपद की तान का तिलिस्म जगा दिया था। बाद के सालों में पं. रविशंकर, उस्ताद अली अकबर ख़ाँ, अल्लारखा, अमजद अली, जाकिर हुसैन, पं. जसराज और शिव-हरि सहित अनेक संगीतकारों ने भारतीय संगीत की ध्वजा सारी दुनिया में फहराई। सिफ़र् शास्त्रीय संगीत ही नहीं, हमारा लोक संगीत, सूफ़ी संगीत और फ़िल्म संगीत भी घनी चाहत के साथ दुनिया भर में सुना जाता रहा है।
भारतीय संगीत के विभिन्न आयामों पर शोध, अध्ययन और सृजन की नयी दिशाएँ खुली हैं। अमेरिका की स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी की शोधार्थी लिंडा हेस कबीर की पारम्परिक लोक गायिकी पर शोध करने मध्यप्रदेश के मालवा अंचल में लम्बा प्रवास करती हैं। अतीत के पन्ने पलटें तो संगीत को राज दरबारों में नया पोषण मिला। तानसेन जैसा विलक्षण गायक अकबर के दरबारी नवरत्नों में शामिल किया गया। भारत में आकाशवाणी का आगमन हुआ तो अनेक संगीतकार रेडियो से जुड़ गए। पं. ओंकारनाथ ठाकुर से लेकर उस्ताद अब्दुल लतीफ़ ख़ाँ तक अनेक नाम गिनाये जा सकते हैं। ग्रामोफ़ोन रेकार्ड्स, कैसेट्स, सीडी और अब डिजिटल माध्यम ने तो जैसे संगीत की दुनिया में क्रान्ति ही कर दी है। भारत में अनेक फ़िल्में संगीत की कथाओं का आधार लेकर बनीं जिनमें 'संगीत सम्राट तानसेनÓ और 'बैजू बावराÓ से लेकर 'कट्यार काळजात घुसलीÓ तक अनेक शीर्षक हैं। टीवी पर संगीत के रिअलिटी शोज की गिनती नहीं है। साहित्यकारों की क़लम भी संगीत से सरसाती रही है। निराला, महादेवी जैसे छायावादी कवियों से लेकर अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, ध्रुव शुक्ल, राग तेलंग, प्रेमशंकर शुक्ल, स्वरांगी साने, रंजना मिश्र, अंकिता शाम्भवी तथा मीनाक्षी मिश्र जैसे अनेक समकालीन रचनाकारों की कविताओं में संगीत का सम्मोहन गहरे अहसासों के साथ चला आया है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि-कथाकार संतोष चौबे का उपन्यास 'जलतरंगÓ ख़ासा चर्चा में आया। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित यह किताब संगीत और शोर के बीच ठहरे जीवन के द्वन्द्व का दस्तावेज़ है।
इंग्लैण्ड की एक प्रयोगशाला है- दिलाबार। वहाँ संगीत को लेकर कई आश्चर्यजनक प्रयोग किये गये। बताते हैं कि स्वरों के कुछ विशेष प्रभावों से वहाँ बेमौसम फूल चटखने लगते हैं। फलों से डालियाँ झूलने लगती हैं। वृक्ष दोगुनी गति से बढ़ने लगते हैं। यही नहीं, माँ के गर्भ में बच्चा परिपुष्ट होने लगता है। संगीत का असर ऐसा कि धातु को सुरों के सम्पर्क में लाएँ तो जंग नहीं लगती।
हमारे समय के बहुचर्चित कवि प्रेमशंकर शुक्ल की कविता संगीत के पक्ष में ऐसा ही एक आत्मीय गान बनकर उभरती है- पत्तियाँ धूप का/ कोई कुनकुना गीत गाती हैं/ हवा ताल देती है/ घास अपने तानपूरे पर/ बनाए रखती है स्वर-विन्यास/ सुबह-सुबह शिशु अपनी बोली में/ सुना जाता है भैरवी/ आम्रमंजरी को चिडिया/ एक मीठी लय में हिलाती है/ और झूम उठता है पूरा पेड़... (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)