समय की गतिशीलता के साथ-साथ्ा मनुष्य के जीवन में भी कई परिवर्तन आते रहते हैं। आज से कुछ वर्षों पहले तक कई शब्द और शब्दालियां अधिक प्रचलन में नहीं थे, जैसे घर मोहरित, 'गृह प्रवेश" 'वास्तु पूजन" आदि और मुझे मेरे गॉंव की याद आती है, जहॉं तब दो-चार साल में एक दो घर ही बनते थे। गॉंव में और उनकी पूजा में 'होम-ग्यारी" होती थी। घर बनाना बड़ा भारी काम माना जाता था उस ज़माने में। नौकरी पेशा लोग जीवन भर की मेहनत के बाद सेवा निवृत्ति पर जो चार पैसे मिलते थे, उसी से दो चार कमरे बना पाते थे। रही बात उधारी की तो लोग क़र्ज़ को भूत समझते थे और प्रतिष्ठा के विरुद्ध मानते थे। किंतु आज की स्थिति तो ऐसी हो गई है, कि आज नौकरी लगी और कल से घर बनना शुरू। शायद यह कर्ज़ नहीं 'लोन" सुविधा से संभव हो रहा है। ऐसी स्थिति में युवा पीढ़ी घर बनाने में जुट जाती हैं और गृहप्रवेश के अवसर पर सबको आमंत्रण-निमंत्रण भी देते हैं।
गृह प्रवेश उनके लिए बड़ा आनंद का विषय होता है। बड़ी आस्था और श्रद्धा से पूजा-पाठ भी करवाते हैं। ऐसा पंडित पूजन के लिए खोजते हैं, जो विधि-विधान से पूजा करवा सके। वास्तु पूजन और गृह शांति आदि सब का ध्यान रख कर शास्त्रोक्त एवं लोकोक्त पद्धतियों का निर्वहन करवाएं।
एक नवयुगल ने गृहप्रवेश का निमंत्रण दिया। हम वहॉं पहुॅंचे, पूजन प्रारंभ हो चुका था। वहीं बैठी महिलाओं से मैंने पूछा- 'घर-धणी" (गृहस्वामी) नहीं दिखाई दे रहे हैं? उन्होंने बताया, ''घर गए हैं""। किसी ने कहा, 'मिक्सर लेने गए हैं"। मैं फिर बोली ''अरे यहां पूजा चल रही है, वे घर क्यो गए हैं?""। किसी ने कहा, ''मिक्सर लेने गए हैं""। जिज्ञासावश मैंने स्वत: ही प्रश्न किया कि भोजन तो पैक हो कर आ रहा है, फिर मिक्सर क्यों? वे बता रही थी ''पंडित जी ने मंगवाया है""। मुझे लगा .शोरगुल में मुझे .साफ-.साफ सुनाई नहीं दिया, शायद और कुछ कहा होगा। इतनी ही देर में वे आए और पंडितजी के पास मिक्सर रख कर अन्य काम के लिए निकल गए।
मिक्सर और पंडितजी की संगत ने मेरे मन में विचारों का बाजार लगा गई। क्रेता-विक्रेता जैसा शोरगुल मेरे कानों में होने लगा। पंडितजी मॅंगवाते तो नारियल, सुपारी, कुंकुम, कपूर आदि मॅंगवाते, मिक्सर क्यों मॅंगाते?। मेरे प्रश्न मुझे ही उत्तर दे रहे थे, ''बरसात है, हवन सामग्री सीड़ गई होगी, उसे थोड़ा बारीक करने मॅंगाया होगा मिक्सर, ताकि सरलता से हवन में अग्नि प्रज्वलित होती रहे। पूजा चलती रही, मैं कभी पंडितजी को तो कभी मिक्सर को देखती रही।
शास्त्रीय पूजा पद्धति समाप्त होते ही पंडितजी उठकर बाहर की ओर आए। यहॉं प्रारंभ हुई लौकिक पूजा पद्धति ,गैस के चूल्हे की पूजा की गई, अग्नि का आह्वान किया गया, अग्नि प्रज्वलित हुई। उस पर दूध का बर्तन रखा गया। दूध उफनाया गया। पंडितजी ने पत्थर पर पत्थ्ार रखवाकर पूजन कर्ता से कहा ''घट्टी की कल्पना कर पूजन करो।"" सूप की पूजा करवाते समय कहा, ''इसमें अन्न् की कल्पना कर पूजा करो।"" इसके बाद मिक्सर की पूजा करवाई। मैंने ध्यान से सुना और सोचा 'पंडितजी ने अग्नि-सूप-घट्टी सबके मंत्र बोले पर, मिक्सर का क्या मंत्र होगा। तभी पंडित जी बोले,''ऊखल मूसल की कल्पना करो"" और फिर वे कुछ मंत्र बोलने लगे। मिक्सर पर नाड़ा बांधा गया, मूसल की कल्पना में उसके बटन पर नाड़ा बॉंधा गया। तभी मेरे कानों में मूसल की धमा-धम आवाज सुनाई देने लगी। स्मृतियों में दिखाई दीं,छान में बने ऊखल में दाल से पुट्ठा (छिलका)निकालनेे आमने-सामने बैठी दगड़ी बुआ और गुलबी बुआ, वे धमा-धम, धमा-धम, मूसल से ऊखल की दाल कूट रही है। यह नजारा बड़ा आनंदमय लग रहा है।
ऊखल तो घर की नाभि कहलाता है। पहले समय में लोग जब घर बनाते थे,तो ऊखल का एक स्थान पहले ही निश्चित कर लिया करते थे। ऊखल-मूसल शुभ मंगल के प्रतीक हैं। मूसल तो पूजनीय है,भगवती महासरस्वती के हाथ में अन्य आयुधों के साथ एक मूसल भी है। अन्य पूजा पाठों में भी इसका उपयोग किया जाता है। विवाह अवसर पर जब वैवाहिक परंपराऍं आरंभ होती हैं, तो सूप, ऊखल, टोकनी आदि का पूजन कर उसे नाड़ा इस कामना के साथ्ा बॉंधा जाता है, कि हमारे सम्पन्न् होने वाले समस्त वैवाहिक कार्यक्रम निर्विघ्न सम्पन्न् हो जायें। वर परछन में जब मॉं अपने बेटे का, एवं सास अपने दूल्हे दामाद का परछन करती है, तो सबसे पहले मूसल से ही परछन करती है। मण्डप प्रतिष्ठा के समय भी मूसल का पूजन कर उसे नाड़ा बॉंधा जाता है। फिर उसे मण्डप के दाहिने हाथ के खम्ब के साथ्ा बॉंध दिया जाता है। मूसल का गोलाई लिया भाग ऊपर रहता है, ताकि उस पर मण्डप का दीपक रखा जा सके।
जब मशीनें और दाल मिलों का प्रचलन नहीं था तब लोग घरों में तूअर, मसूर, चना, मूॅंग आदि की दाल घ्ाट्टी में दलकर बना लिया करते थे। उस दाल पर तेल-पानी लगाकर दबा कर रख दिया जाता था। दाल से छिलका निकालने के लिए दाल को ऊखल में डालकर मूसल से कूटते थे, तो दाल का छिलका निकल जाता था।
मैदा बनाना होता था तो उत्तम किस्म के गेहूँ को पानी में रात भर भिगोया जाता था फिर भीगे गेहूॅं को छॉंव में हलका-सा सुखा लिया जाता था। फिर उन गेहुओं को ऊखल में डालकर मूसल से कूटा जाता था, जिससे गेहूॅं की ऊपरी छिलके वाली परत निकल जाय, जिससे मैदा चिकना बनता था।
दाल बनाते समय गेंगणी (खराब तुअर) घट्टी के पाटों से बाहर आ जाती थी, जिसे ऊखल-मूसल से अच्छे से कूट लेते थे। अधिकतर दालों को कूटने के लिए ज्यादा शक्ति लगती थी। ऐसी स्थिति में दो महिलाऍं आमने-सामने बैठकर दाल कूटती थीं। ऊखल मूलस से कोई भी धान कूटते समय दोनों महिलों के हाथ में एक-एक मूसल होता था। उनका पूरा नियंत्रण मूसल पर रहता था। एक मूसल ऊपर पहुॅंचता था, तब तक दूसरा मूसल ऊखल में अनाज पर वार करता था। बड़ा ही साधना और संयम का काम था दोनों महिलाओं द्वारा अनाज कूटना। जो अनाज ऊखल में रहता था, उसे कितनी तेज धमस (मार) चाहिए, उस हिसाब से महिलाऍं अपना मसूल उतने ऊपर तक ले जाती थीं,ताकि अनाज सही तरीके से, कूटा जा सके। यह महिलाओं की कार्य कुशलता और दक्षता का प्रमाण था। दोनों के हाथ बड़े सधे हुए होते थे। अगर एक का भी मूसल ऊपर,नीचे,कम दूरी से पड़ तो, या कम गति से पड़े, तब मूसल के टकरा जाने का ख़तरा बना रहता था।
पहले समय लोग बाहर की मिठाई खाना पसंद नहीं करते थे, या दूसरों से नहीं बनवाते थे। तब शुद्धता और स्वाद के हिसाब से चूरमा के लड्डू बनाये जाते थे। आटे से सिके हुए बाटों को धमा-धम कूट कर उनका चूरा महीन किया जाता था। फिर उसमें घी-गुड़ मिलाते थे और लड्डू बॉंधते थे।
दोनों महिलाऍं जब अनाज कूटती हैं,तो बड़ी सावधानी रखना पड़ती है। महिला के एक हाथ में मूसल होते हुए भी,वह दूसरे हाथ से ऊखल के धान को उलट पलट भी कर लेती है। ऊखल में धार कम हो, तो ढेर से आगे खींच कर ऊखल में डाल देती है, ऊखल में ज्यादा लगे तो उसे बाहर सरका लेती है। क्या सधे हाथ, क्या साधना, कोई कितना भी प्रशिक्षण क्यों .न ले, ऐसा तब तक कर सकना संभव नहीं है, जब तक कि उसकी ऑंखे ध्यान, सब कुछ ऊखल-मूसल से सतत न जुड़ा हो।
ऊखूल-मूसल अनाज कूटने के अलावा, हम बच्चों का बड़ा खेल केंद्र भी रहा करता था। जब कोई चीज छिपाना हो,तब हम भाई बहन अपनी चीजों को ऐसे स्थान पर रखते थे, कि कोई खोज न पाय। कोई कोठी के पीछे, तो कोई पेटी के पीछे,तो कोई घट्टी में तो कोई भाई-बहन ऊखल में चीज रख कर उस पर अनाज डालते या फटा कपड़ा भर देते थे। बरसात के दिनों में सब खेल घर में ही खेलते थे। भाई लोग ऊखल में गल-गोटी का खेल खेलते थे और हम बहनें बिटकुल पानी (रोटी पानी) का खेल खेलते थे। तब ऊखल को कुंऑं बनाकर उसमें से पानी खींचते थे।
ऊखल-मूसल की बात हो और ऊॅंदरा-ऊॅंदरी (चूहा-चुहिया) की वार्ता न हो,तो क्या ऊखल और क्या मूसल । हमारी आजी मॉंय बड़ा सरस वर्णन कर कथा वार्ता सुनाती थी। रात को सोते वक्त सब भाई-बहन आजी मॉंय की खटिया पर आ जाते थे। कोई मॉंय के पेट तोे कोई मॉंय की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहते- ''मॉंय वार्ता कहो""- मॉंय कहती ''चलो, सुनो बाल गोपाल की...""। हम सब भाई बहन कहते थे,''मॉंय, तुम तो ऊॅंदरा-ऊॅंदरी की कहानी ही चलने दो। हम रोज रात को वही कहानी सुनते थे, फिर भी मन नहीं भरता था, ऊॅंदरा-ऊॅंदरी की कहानी है ही इतनी रसीली मजेदार। इस कहानी के पात्रों की तुलना परिवार के नए दूल्हा-दुलहन की लड़ाई से भी करते थे। नोक-झोंक, झगड़ा, रूठना और मनाना,इसी कहानी से समझाते थे। कहते थे- ''ये तो उखल का ऊॅंदरा-ऊॅंदरी आया।""
आजी मॉंय वार्ता शुरू करती थी '' एक ऊॅंदरो थो नंऽऽऽऽ एक ऊॅंदरी (एक चूहा था और एक चुहिया) दुई उख्ख्ळ मऽऽऽऽऽ सोया। दोनों ऊखल में सोये। रात में गहरी नींद के कारण चूहे की लात चुहिया को लग गई। चूहिया नाराज हो गई। बिचारे चूहे को इस बात की जानकारी नहीं थी। दिन निकला, चुहिया उठी नहीं। चूहे ने कहा-
''चुहिया,उठो,दिन निकल आया, झाड़ू दे लो। चूहिया बोली- ''हम नी उठते जाओ, तुमने मुझे लात क्यों मारी।"" बेचारा चूहा उठा और ऊखल का झाड़ू बुहारा किया, फिर बोला-''चुहिया रानी,उठो, कुऍं से पानी भर लो।"" चुहिया बोली, ''मैं नहीं उठती, तुमने मुझे लात क्यों मारी।"" बेचारा चूहा कुऍं पर गया और पानी भर लाया। फिर बोला, '' चुहिया रानी, उठ जाओ, मैंने पानी भी भर दिया, अब तो उठो, भोजन पका लो, भूख लग रही है।"" चुहिया ने फिर वही उत्तर दिया, '' मैं नहीं उठती जाओ, तुमने मुझे लात क्यों मारी।"" बेचारा चूहा उठा और चुल्हा जलाया, दाल बनाई भात बना लिया। अब बेचारा चूहा अकेले कैसे खाय? फिर उसने चुहिया से कहा 'चुहिया रानी, उठो भोजन कर लो। रोस झटक दो।""चुहिया बोली, '' लाओ, परसो ना थाली , मैं कहॉं रूसी पति-पत्नी की क्या लड़ाई...। ""और चूहे से पहले वह जीमने बैठ गई।
मुझे आजी मॉंय की खटिया और उस पर रोज-रोज यही कहानी सुनते बच्चे पेट पकड़-पकड़ कर हॅंसते-हॅंसते लोट पोट हो रहे हम भाई -बहन दिखाई देते। कहानी के बाद हम रोज ऑंगन के ऊखल को देखने दौड़ पड़ते थे, जहॉं ऊखल में चिपके दानों को खाते हुए चूहा-चुहिया दिखाइ दे जाते थे।
मैं ऊखल मूसल में रम गई तब तक मिक्सर की पूजा हो चुकी थी। मुझे इस पूजा से भी खुशी हुई, कि कम से कम पंडितजी ने मिक्सर की पूजा करा कर, ऊखल मूसल को स्मृत तो किया, जीवित तो रखा पर मिक्सर की पीढ़ी के दिमाग में ऊखल मूसल की कल्पना कैसे हो सकती है, जिसने 'ओ"से ओखली नहीं, 'ओ" से आउल पढ़ा है।