मृत्युंजय दीक्षित
राजा हरिश्चंद्र से आज तक भारतीय सिनेमा ने न केवल तकनीकी विकास वरन कला और वैचारिक प्रधानता के भी कई दौर देखे हैं। आज की पीढ़ी को एंग्री यंग मैन का समय स्मरण है जब सामाजिक समस्याओं से उकताए लोग सुनहरे पर्दे पर अमिताभ बच्चन को बीस-बीस गुंडों को मारने के काल्पनिक दृश्य देखकर तालियां बजाते अपनी कुंठा से बाहर निकलने का प्रयास करते थे फिर खान बंधुओं की फिल्मों का समय प्रारम्भ हुआ और एंगर की जगह रोमांस ने ले ली, इन्हीं खान बंधुओं ने ग्रे शेड वाले हीरो को जन्म दिया और अपराध को महिमा मंडित करने लगे लेकिन लोग उनके लिए दीवाने हो रहे थे। इन सबके बीच सामानांतर सिनेमा भी चलता रहा। धीरे- धीरे दर्शकों में एक समझ आने लगी और उन्होंने अनुभव किया कि वामपंथी और तथाकथित सेकुयलर इस महत्वपूर्ण माध्यम का उपयोग वृहद हिंदू समाज और संस्कृति को अपमानित करने और युवा हिन्दू को अपने धर्म और संस्कार से दूर ले जाने के लिए कर रहे हैं। हिंदी फिल्मों में हिंदू सनातन संस्कृति का हर प्रकार से उपहास उड़ाया जाता है। मूर्ति पूजा से लेकर पारिवारिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मान्यताओं तक सभी के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जाता है, उनके तिरस्कार को महिमामंडित किया जाता है ।
इस बीच फिल्म जगत व फिल्मी हस्तियों ने कुछ ऐसे कार्य किए जो देशद्रोह की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। इन लोगों ने याकूब मेनन जैसे खूंखार आतंकी को बचाने के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखने का अभियान चलाया, आमिर- शाहरुख-नसीर को भारत में डर लगने लगा। अपनी फिल्मों के प्रचार के लिए ये टुकड़े-टुकड़े गैंग से जा मिले जिसके बाद दर्शकों के एक बहुत बड़े वर्ग में आक्रोश की ज्वाला भड़क उठी। हिंदी फिल्मों के बहिष्कार का आह्वान होने लगा और हालात यह हो गऐ कि बड़े बड़े स्टार माने जाने वाले लोगों की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर पानी भी नहीं मांगा। बीते कुछ वर्षों में दर्शकों की रूचि और प्यार में बदलाव आया वह अब हिंसा और अश्लीलता से भरपूर बेढ़ंगी कहानियों पर आधारित फिल्मों का पूर्णत: बहिष्कार कर उन्हें सुपर फ्लॉप कर रहा है वहीं किसी सत्य ऐतिहासिक घटना व तथ्यों पर आधारित घटनाओं व कहानियां पर बनी फिल्मों का हृदय से स्वागत कर रहा है। उत्तर दक्षिण और भाषा का भेदभाव लगभग समाप्त हो गया है। रूचि पूर्ण कथ्य किसी भी भाषा में हो राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति जा रहा है। बजट महत्वपूर्ण नहीं रहा। अत: छोटे स्टार कास्ट और नवोदित अभिनेता-अभिनेत्री भी चल पड़े हैं। भारतीय सिनेमा में राष्ट्रवाद और सनातन संस्कृति का सकारात्मक पक्ष दृष्टिगोचर होने लग गया है। एक तथ्य यह भी है कि सत्य कहने वाली फिल्मों पर जमकर राजनीति हो रही है। भारत विरोधी और छद्म धर्मनिरपेक्षता- वाले लोग जो आज तक भारतीय संस्कृति का उपहास करके पैसा कमाते थे अब सच सामने लाने वाली फिल्मों का प्रदर्शन रोकने के लिए न्यायपालिका के दरवाजे भी खटखटा रहे हैं। एक समय था कि लोग भारतीय सिनेमा के कंटेंट से प्रभावित होते थे किंतु अब भारतीय सिनेमा राजनीति में आए बदलाव से प्रभावित हो रहा है। भारतीय सिनेमा में बदलाव का यह दौर विक्की कौशल अभिनीत फिल्म 'उरी-द सर्जिकल स्ट्राइकÓ के साथ प्रारम्भ हुआ जिसमें सिंतबर 2016 में भारतीय सेना के पाकिस्तान की नियंत्रण रेखा पार कर सर्जिकल स्ट्राइक की घटना को जीवंत किया था। इस फिल्म ने राष्ट्रवाद की ज्वाला धधका दी थी और जनमानस में फिल्म के संवाद बहुत लोकप्रिय हुए थे। उरी की सफलता ने एक बड़ी लकीर खींच दी। इन्हीं एक-दो वर्षों में तान्हाजी, मणिकर्णिका जैसी फिल्मों ने भी दर्शकों को अपनी ओर खींचा जबकि आम मसाला फिल्मों की कमाई बंद होने लगी। बीच में कोविड महामारी का काल आ गया और डगमगाते फिल्म जगत के लिए बहुत कुछ तहस- नहस कर गया। कोविड काल की काली छाया छंट गई लेकिन मसाला फिल्मों के हालात बद से बदतर होते चले गए एक के बाद एक बड़े स्टार कास्ट वाली फिल्में फ्लॉप हो रही थीं। आश्चर्यजनक रूप से कश्मीरी हिन्दुओं की त्रासदी पर आधारित विवेक अग्निहोत्री की फिल्म 'द कश्मीर फाइल्सÓ ने सफलता के झंडे गाड़ दिए, बहुत ही कम बजट की इस फिल्म ने 250 करोड़ से अधिक का कारोबार कर दिखाया। इस फिल्म की सफलता ने दर्शकों की बदलती रूचि का दस्तावेज लिख दिया और फिल्म जगत को करवट लेने को बाध्य कर दिया। 'द कश्मीर फाइल्सÓ जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद और वहां के अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय पर मुस्लिम आतंकवादियों के अत्याचारों व उनके पलायन की कहानी पर आधारित थी जिसे छद्म धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले दलों ने प्रोपेगेंडा कहाकर झुठलाने का प्रयास किया।
(लेखक स्तंभकार हैं)