अखंड भारत के स्वप्नद्रष्टा डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी

आज डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी बलिदान दिवस

Update: 2023-06-22 20:02 GMT

देवेश खंडेलवाल

6 जुलाई 1901 को कलकत्ता में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का जन्म हुआ। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। उनकी माता का नाम जोगमाया देबी था। उमा प्रसाद मुखोपाध्याय उनके छोटे भाई थे। डॉ. मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक किया और 1921 में बीए की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने बंगाली विषय में एमए भी प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण किया 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित करने के पश्चात् वे विदेश चले गए और 1926 में इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। सन 1924 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत के लिए पंजीकरण कराया। 33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। डॉ. मुखर्जी इस पद पर सन 1938 तक बने रहे। सन 1937 में उन्होंने गुरु रविंद्रनाथ टैगोर को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बांग्ला भाषा में भाषण के लिए आमंत्रित किया। भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी ने दीक्षांत समारोह का भाषण भारतीय भाषा में दिया हो।

शिक्षक प्रशिक्षण विभाग का संगठन और हमारे स्कूलों के लिए प्रशिक्षित शिक्षक प्रदान करने के लिए एक अवकाश पाठ्यक्रम सहित अल्पकालिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों की शुरुआत, चीनी और तिब्बती अध्ययन की स्थापना, भारतीय कला और ललित कला गैलरी के आसुतोष संग्रहालय की नींव, विश्वविद्यालय द्वारा किए गए पुरातात्विक उत्खनन का कार्य, नियुक्ति और सूचना बोर्ड की स्थापना,आधुनिक पद्धति पर अनुसंधान और पढ़ने के कमरे की सुविधाओं के साथ नए केंद्रीय पुस्तकालय हॉल का निर्माण। बीए पाठ्यक्रम में हिंदी का परिचय और दूसरी भाषाओं के रूप में बंगाली, हिंदी और उर्दू में ऑनर्स पाठ्यक्रमों की शुरुआत की। ये उनकी कुछ उपलब्धियां थीं। उनके कहने पर वैज्ञानिक शब्दों की एक बंगाली भाषा शब्दावली तैयार की गई और प्रकाशित की गई और सार्वजनिक सेवा परीक्षा के लिए छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए एक विशेष योजना शुरू की गई। डॉ. मुखर्जी के राजनैतिक जीवन की शुरुआत सन् 1929 में हुई जब उन्होंने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर बंगाल विधान परिषद् में प्रवेश किया। परन्तु जब कांग्रेस ने विधान परिषद् के बहिष्कार का निर्णय लिया तब उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसके पश्चात उन्होंने स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और विधान परिषद के लिए चुने गए। सन् 1937 से 1941 के बीच जब कृषक प्रजा पार्टी और मुस्लिम लीग की साझा सरकार थी तब वो विपक्ष के नेता थे और जब फजलुल हक के नेतृत्व में एक प्रगतिशील सरकार बनी तब सन् 1941-42 में वह बंगाल राज्य के वित्त मंत्री रहे। हालांकि वित्त मंत्री के पद से 1 साल बाद ही इस्तीफा दे दिया। इसी समय वे हिन्दू महासभा में सम्मिलित हुए। सन 1944 में वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी रहे। मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल में सांप्रदायिक तनाव पैदा हो रहा था। मुस्लिम साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। 1943 में बंगाल में पड़े अकाल के दौरान श्यामाप्रसाद का मानवतावादी पक्ष निखर कर सामने आया, जिसे बंगाल के लोग कभी भुला नहीं सकते। बंगाल पर आए संकट की ओर देश का ध्यान आकर्षित करने के लिए और अकाल-ग्रस्त लोगों के लिए व्यापक पैमाने पर राहत जुटाने के लिए उन्होंने प्रमुख राजनेताओं, व्यापारियों समाजसेवी व्यक्तियों को जरूरतमंद और पीड़ितों को राहत पहुंचाने के उपाय खोजने के लिए आमंत्रित किया। फलस्वरूप बंगाल राहत समिति गठित की गई और हिन्दू महासभा राहत समिति भी बना दी गई। श्यामाप्रसाद इन दोनों ही संगठनों के लिए प्रेरणा के स्रोत थे। लोगों से धन देने की उनकी अपील का देशभर में इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि बड़ी-बड़ी राशियां इस प्रयोजनार्थ आनी शुरू हो गई। इस बात का श्रेय उन्हीं का जाता है कि पूरा देश एकजुट होकर राहत देने में लग गया और लाखों लोग मौत के मुंह में जाने से बच गए। आजाद भारत में ये भारत के संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य बने। स्वतंत्रता के बाद जब पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में सरकार बनी तब डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। उन्होंने उद्योग और आपूर्ति मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली। उद्योग और आपूर्ति मंत्री होने के नाते,उन्होंने देश में विशाल औद्योगिक उपक्रमों अर्थात् चितरंजन लोकोमोटिव फैक्ट्रीज, सिंदरी, उर्वरक निगम और हिन्दुस्तान एयरक्राट्स फैक्ट्री, बंगलौर की स्थापना करके देश के औद्योगिक विकास की मजबूत आधारशिला रखी। सन् 1950 में नेहरू-लियाकत समझौते के विरोध में उन्होंने 8 अप्रैल 1950 को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने अक्टूबर, 1951 में 'भारतीय जनसंघÓ की स्थापना की। सन 1952 के चुनाव में भारतीय जनसंघ ने तीन सीटें जीती, जिसमें एक उनकी खुद की सीट शामिल थी। उन्होंने संसद में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल का गठन करने हेतु, जिसके वे निर्वाचित नेता थे, उड़ीसा की गणतंत्र परिषद, पंजाब के अकाली दल, हिन्दू महासभा तथा अनेक निर्दलीय सांसदों सहित कई छोटी-छोटी पार्टियों को एक किया। सरकार की नीतियों तथा कार्यों के प्रति उनका सूक्ष्म और मर्मज्ञ परीक्षण तथा सत्तारूढ़ दल के तर्कों का उनके द्वारा सहजता एवं निश्चयता से खंडन करना अत्यंत विश्वसनीय प्रतीत होता था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी (1901-1953) राष्ट्रभक्ति एवं देश प्रेम की उस महान परंपरा के वाहक हैं, जो देश की परतंत्रता के युग तथा स्वतंत्रता के काल में देश की एकता, अखण्डता तथा विघटनकारी शक्तियों के विरुद्ध सतत् जूझते रहे। उनका जीवन भारतीय धर्म तथा संस्कृति के लिए पूर्णत: समर्पित था। वे एक महान शिक्षाविद् तथा प्रखर राष्ट्रवादी थे। जम्मू-कश्मीर और अनुच्छेद 370 :- डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर राज्य को एक अलग दर्जा दिए जाने के घोर विरोधी थे। शेख और नेहरू दोनों के साथ डॉ. मुखर्जी ने निरंतर पत्र व्यवहार किया, लेकिन नेहरू और शेख की जिद्द के चलते समाधान नहीं निकल सका। डॉ. मुखर्जी ने प्रयास किया कि जम्मू-कश्मीर की समस्याओं का निदान के लिए गोलमेज सम्मेलन बुलाना चाहिए। उनका मत था कि जम्मू-कश्मीर को भी भारत के अन्य राज्यों की तरह माना जाए। वो जम्मू-कश्मीर के अलग झंडे, अलग प्रधानमंत्री और अलग संविधान के विरोधी थे। उनको ये बात भी नागवार लगती थी कि वहां का मुख्यमंत्री (वजीरे-आजम) अर्थात् प्रधानमंत्री कहलाता था। उन्होंने लोकसभा में अनुच्छेद-370 को समाप्त करने की जोरदार वकालत की। देश में पहली बार उन्होंने बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर में प्रवेश का ऐलान किया। वे मई 1953 में बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। डॉ. मुखर्जी 8 मई, 1953 की सुबह 6.30 बजे दिल्ली रेलवे स्टेशन से पैसेंजर ट्रेन में अपने समर्थकों के साथ सवार होकर जम्मू के लिए निकले थे। अखंड भारत के संकल्प के साथ डॉ. मुखर्जी ने अपने प्राणों को आहुत किया। मोदी सरकार ने डॉ. मुखर्जी के अखंड भारत के स्वप्न को साकार करते हुए जम्मू-कश्मीर को बेजा प्रावधानों से मुक्ति दिलाकर उन्हें वास्तविक श्रद्धांजलि अर्पित की है। (लेखक स्तंभकार हैं)

(विचार 1925 से सा.)

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