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मध्यप्रदेश में नहीं पक रही छोटे दलों की खिचड़ी

Update: 2019-03-17 15:52 GMT

भोपाल। लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दल मिलकर भले ही भाजपा को हराने का दावा कर रहे हों, मगर मध्यप्रदेश में इन दलों की दाल गलने वाली नहीं है। प्रदेश में 32 साल से क्षेत्रीय ताकतें हाशिए पर हैं। भाजपा और कांग्रेस को छोड़ 1996 और 2009 में ही क्षेत्रीय दल एक सीट जीतने में सफल रही है, वरना अब तक प्रदेश में मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही रहा है।

भाजपा ने दिखाया बाहर का रास्ता

दिग्विजय शासनकाल के बाद से तीसरी शक्ति लोकसभा सीटों से कम हुई तो भाजपा ने इसे पूरी तरह बाहर कर दिया। पिछले 22 सालों में कोई निर्दलीय सांसद तो बना ही नहीं। इसके पहले हर लोकसभा चुनाव में एक-दो सीटों पर निर्दलीय प्रत्याशी होते थे।

इस बार कई क्षेत्रीय दल ठोंक रहे ताल

सपाक्स

सपाक्स ने विधानसभा चुनाव के ठीक पहले राजनीति में कदम रखा था। अब सपाक्स प्रमुख हीरालाल त्रिवेदी ने सवर्ण आंदोलन के लिए काम करने वाले देश के कई संगठनों को मिलाकर समानता मंच बनाया है। कुछ दल इसी के बैनर तले चुनाव लड़ेंगे।

आम आदमी पार्टी

विधानसभा चुनाव में बुरी तरह शिकस्त के बाद आम आदमी पार्टी प्रदेश में लोकसभा चुनाव लड़ना नहीं चाहती। पार्टी दिल्ली, हरियाणा, गोवा और पंजाब में ही चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। मध्यप्रदेश के नेता भी दिल्ली जाकर पार्टी के लिए काम कर रहे हैं।

बसपा-सपा-गोंगपा

बसपा ने लोकसभा चुनाव के लिए दो प्रत्याशी घोषित किए हैं। सपा और गोंगपा ने अभी तक कोई प्रत्याशाी घोषित नहीं किया है। तीनों दल लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। उत्तर प्रदेश से सटी सीटों पर 1996 से पहले की ताकत पाने बसपा-सपा जोर-आजमाइश कर रही हैं।

ये हैं असफलता की मुख्य वजह

क्षेत्रीय पार्टियों का प्रभाव क्षेत्र सीमित रहता है

मुद्दे होने के बावजूद ये दल उन्हें भुना नहीं पाते हैं

उत्तर प्रदेश से सटी सीटों पर असर, लेकिन वहां बार-बार सत्ता बदलना

संसाधन, आर्थिक स्थिति, बूथ-मैनपॉवर में कमजोर

प्रभावशील चेहरों और लीडर का अभाव

प्रमुख दलों के वर्चस्व में खो जाना

रणनीति, प्रबंधन व मॉनिटरिंग का पार्टियों में अभाव

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