राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने मणिपुर प्रवास के दूसरे दिन शुक्रवार को जनजातीय प्रतिनिधियों से संवाद करते हुए समाज में स्थायी शांति, सौहार्द और प्रगति के लिए एकता और चरित्र निर्माण को सर्वोपरि बताया। उन्होंने कहा कि भ्रातृत्व ही भारत का धर्म है और एकता के लिए एकरूपता आवश्यक नहीं है।
डॉ. भागवत ने संघ की भूमिका स्पष्ट करते हुए कहा कि यह पूर्णतः सामाजिक संगठन है, जो समाज को जोड़ने का कार्य करता है। संघ किसी के खिलाफ नहीं है, बल्कि मित्रता, नेह और सद्भाव के माध्यम से समाज को मजबूत बनाने का प्रयास करता है। उन्होंने कहा कि भारत की सभ्यतागत चेतना हजारों वर्षों पुरानी है।
उन्होंने भारत की विविधता की सराहना करते हुए कहा, “हमारी विविधता सुंदर है, पर हमारी चेतना एक है।” अध्ययन बताते हैं कि भारतवासियों का सांस्कृतिक और आनुवंशिक डीएनए लगभग 40,000 वर्षों से एक है।
डॉ. भागवत ने डॉ. भीमराव अंबेडकर को उद्धृत करते हुए कहा कि संविधान के मूल मूल्य-स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व—भगवान बुद्ध की शिक्षाओं से प्रेरित हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया के कई देश भाईचारे की कमी के कारण असफल रहे, जबकि भारत में भ्रातृत्व ही धर्म है।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि संघ राजनीति नहीं करता और न ही किसी संगठन को निर्देशित करता है। संघ का मुख्य उद्देश्य मनुष्य निर्माण और चरित्र निर्माण है।
जनजातीय नेताओं द्वारा उठाए गए मुद्दों पर डॉ. भागवत ने भरोसा दिलाया कि ये मुद्दे हम सबके मुद्दे हैं। उन्होंने औपनिवेशिक नीतियों द्वारा उत्पन्न क्षेत्रीय विभाजनों को संवाद और संवैधानिक ढांचे में हल करने का सुझाव दिया।
डॉ. भागवत ने संघ के पंच परिवर्तन-सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्वबोध और नागरिक कर्तव्य-का उल्लेख करते हुए जनजातीय समुदायों से अपनी परंपराओं, भाषाओं और स्वदेशी जीवन शैली को गर्व के साथ अपनाने का आह्वान किया।
उन्होंने कहा कि आज विश्व भारत की ओर मार्गदर्शन के लिए देख रहा है। भारत एक प्राचीन राष्ट्र-सभ्यता है, जिसकी झलक रामायण, महाभारत से लेकर ब्रह्मदेश और वर्तमान अफगानिस्तान तक दिखाई देती है। उन्होंने बताया कि हिंदू सभ्यता स्वीकार्यता, परस्पर सम्मान और साझा चेतना पर आधारित है।