क्यों बारिश में डूबते हैं दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरू

Update: 2023-07-11 19:21 GMT

 विवेक शुक्ला

जिस दिल्ली में दो महीने के बाद सितंबर में जी-20 देशों के राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री और तमाम दूसरे गणमान्य हस्तियां पधारने वाली हैं वो दिल्ली दो दिन की भारी बारिश से पानी-पानी हो गई। राजधानी का जीवन पंगु हो गया। स्कूल बंद कर दिए गए। पानी मंत्रियों के घरों तक में घुस गया। लाखों गरीबों के आशियानों की क्या दुर्गति हुई ये मत ही पूछिए। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि बारिश मूसलाधार थी और इसलिए हालात काबू से बाहर हो गए। एक तरह से वे मान रहे हैं कि वे जिस दिल्ली पर लगभग आठ सालों से राज कर रहे हैं वह भारी बारिश में पंगु हो गई। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि हमारे शहरों का सही से प्रबंधन नहीं हो रहा। दो दिनों की बारिश ने सैकड़ों स्थानों पर सड़कों में गड्ढे कर दिए और ना जाने कितनी जगहों पर सीवर जाम हो गए। गौर करें ये स्थिति दिल्ली में ही नहीं हुई। हमने मुंबई, बैंगलुरू, चैन्नई और गुरुग्राम जैसे हाईटेक शहरों को भी बारिश में डूबते हुए देखा है। इसके चलते सड़कों पर जाम लग गए, रेल सेवा प्रभावित होती रहीं, घरों में पानी जाता रहा, स्कूल-कॉलेज बंद हो गए। इसके अलावा भी बारिश ने बहुत कुछ किया।

दरअसल देश के इन सर्वाधिक खासमखास शहरों की तस्वीर बहुत कुछ बयां करती है। पर ये कोई पहली बार नहीं हो रहा था। ये स्थिति बार-बार होती है, योजनाएं बनती हैं ताकि बारिश के बाद होने वाली अव्यवस्था और अराजकता की पुनरावृत्ति ना हो। पर योजनाएं फाइलों में गुम हो जाती हैं। अगर किसी योजना पर काम होता है तो वह करप्ट अफसरों और ठेकेदारों के कारण सही से नहीं हो पाता।

शहरों को बचाओ

शहर भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। देश का लगभग सारा सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) शहरों में ही सिमटा है। जनगणना के आंकड़ों को माने तो देश की 35 फीसद तक आबादी शहरों में रहती है। हालांकि गैर-सरकारी आंकड़ें शहरी आबादी कहीं अधिक होने का दावा करते हैं। इन शहरों में रोजगार के अवसर हैं। सारे देश के नौजवानों के सपने इन्हीं शहरों में पहुंचकर साकार होते हैं। पर नीति निर्धारकों के फोकस से कहीं दूर बसते हैं शहर। ये भी समझ नहीं आता कि दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरू वगैरह या बाकी शहरों के निगम अपने-अपने शहरों को बेहतर और रहने लायक बनाने के स्तर पर क्यों फेल हो रहे हैं। इसके कारण तलाशना कोई बहुत कठिन नहीं होना चाहिए। इनमें हर स्तर पर काहिली और भ्रष्टाचार फैला है।

पर फिर भी शहर प्यासे

अजीब विडबंना है कि एक तरफ दिल्ली में तगड़ी बारिश हुई तो दूसरी ओर इसके लाखों नागरिकों को पीने का साफ पानी तक उपलब्ध नहीं होता। राजधानी में पानी से जुड़े सारे मामलों को दिल्ली जल बोर्ड देखता है। ये एकमात्र विभाग है, जो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल देखते रहे हैं। हालांकि अब इसे वे सीधे तौर पर नहीं देखते। यकीन मानिए कि दिल्ली जल बोर्ड का ही सर्वाधिक हाल बेहाल है। केजरीवाल रोज केन्द्र सरकार से लेकर भाजपा और कांग्रेस के नेताओं पर आरोप की बौछार करने का कोई भी अवसर जाने नहीं देते। वे चिर असंतुष्ट हैं। उन्हें सबसे शिकायतें हैं। वो कभी खुद भी अपने गिरेबान में झांक लें। वो खुद कब इस सवाल का जवाब देंगे कि वो दिल्ली को पेयजल के संकट से फलां-फलां तारीख तक उबार देंगे? ये समझने की जरूरत है कि दिल्ली का मतलब सिर्फ हरे-भरे पेड़ों से लबरेज नई दिल्ली का लुटियन जोन ही नहीं है। राजधानी का मतलब दक्षिण दिल्ली, उत्तर दिल्ली, पश्चिम दिल्ली या यमुना पार की संभ्रात आवासीय कॉलोनियां भी नहीं है। दिल्ली के लाखों नागरिक उन अनधिकृत कॉलोनियों, घनी बस्तियों, झुग्गियों में भी जीवन यापन करने के लिए अभिशप्त हैं, जहां पर पानी मयस्सर नहीं है। जरा सोचिए कि किन हालातों में भीषण गर्मी के मौसम में लोग रहते होंगे। क्या जो बात सारी दिल्ली को पता है, उससे वो अनभिज्ञ हैं कि राजधानी के लाखों नागरिकों के घरों में पानी नहीं आता। ये अभागे हर रोज निजी जल आपूर्तिकर्ताओं से उपयोग के पानी खरीदते हैं। दस लाख की आबादी वाले संगम विहार में दिल्ली जल निगम से पानी की सप्लाई नहीं होती। हम देखते रहे हैं कि बारिश के कारण सड़कों पर जल भराव के कारण कई लोग उनमें गिरने के कारण मारे गए। मायानगरी मुंबई लगातार बारिश के कहर से सहमती रही हैं, वहीं दिल्ली एक बार की बारिश से पानी-पानी हो गई। दिल्ली में बारिश के मौसम में मिन्टो ब्रिज पुल के नीचे दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) की बसों के डूबने की फोटो दिल्ली वाले बीते पचास वर्षों से देख रहे हैं। पर स्थिति सुधर ही नहीं रही है। ये हाल है दिल्ली का।

उधर मुंबई में भी पेयजल संकट गहराता जा रहा है। वहां पानी कटौती से नाराज नागरिक मोर्चा निकालते रहते हैं। मुंबई से सटे ठाणे और उल्लासनगर, भिंवड़ी में भी जल संकट दिनों-दिन बढ़ रहा है। कुल मिलाकर स्थिति निराश करती है। जब मुंबई और दिल्ली में ही गाड़ी के पटरी से उतरने वाली स्थितियां निर्मित हो चुकी है,तो फिर अन्य शहरों की बात करने का भी कोई मतलब नहीं रह जाता।

बारिश से तबाही के मंजर

हमने हाल के दौर में आईटी राजधानी बैंगलुरू और तमिलनाडू की राजधानी चेन्नई में भी बारिश से हुई तबाही को देखा था। हम आपातकालीन स्थितियों का सही से सामना करने में असमर्थ हैं। केन्द्र और राज्य सरकार सरकारों को शहरों को मरने से बचाना होगा। इन्हें रहने लायक बनाने की आवश्यकता है। इनसे ही देशों को हर साल मोटा आयकर प्राप्त होता है। इनमें विकास के नाम पर अब हरियाली को खत्म करने की होड़ सी मची हुई है। शहरों- महानगरों की घटती हरियाली को बचाने के लिए अब सबको मिल-जुलकर आगे आना होगा। विकास योजनाओं की आड़ में पेड़ कटने बंद करने होंगे। अकारण अंधाधुंध तरीके से पेड़ों को नेस्तनाबूद करना रोकना होगा।अब राजधानी दिल्ली में और इससे पहले मुंबई और बैंगलुरू में पेड़ों को बेरहमी से काटने के विरोध में स्वत: स्फूर्त भाव से नागरिक सामने आए।

मुंबई और बैंगलुरू में भी स्थानीय नागरिक हाल के दौर में सड़कों में आए ताकि उनके शहरों के पेड़ बच सकें। उनके आंदोलन का सकारात्मक असर हुआ। संबंधित सरकारी विभाग झुके। उन्होंने अपनी भावी योजनाओं में संशोधन किए। मुंबई मेट्रो अपनी योजनाओं को अंतिम रूप देने के लिए धड़ाधड़ पेड़ काट रही थी। पर वहां के नागरिकों के इसका विरोध करने पर उसको भरोसा देना पड़ा कि मुंबई मेट्रो पेड़ों को काटते वक्त सावधानी बरतेगी। जब कोई विकल्प नहीं बचेगा तब ही पेड़ कटेंगे। मुंबई और बैंगलुरू की स्थिति वास्तव में बेहद गंभीर है। इन दोनों मेट्रो शहरों में ग्रीन कवर मुश्किल से मिलता है। ये कोई बहुत पुरानी बात नहीं है जब बैंगलुरु को बगीचों का शहर माना जाता था। जिन्होंने बैंगलुरू को 20-25 साल पहले देखा है, उन्हें पता है कि ये खूबसूरत शहर हुआ करता था। पर देखते ही देखते बैंगलुरू की हरियाली घटने लगी। ये स्थिति इसलिए आई क्योंकि हरियाली के स्थान पर बन गई इमारतें। जहां तक मुंबई की बात है तो वहां पर दक्षिण मुंबई के अलावा हरियाली दिखाई देती ही नहीं। सब तरफ इमारतें ही इमारतें।

दिल्ली, मुंबई या बाकी शहर तब ही रहने लायक रहेंगे, जब इनमें रहने वाले इनके प्रति अपनत्व का भाव रखेंगे। वे अपने जन प्रतिनिधियों से बार-बार सवाल पूछेंगे कि वे अपने दायित्वों को निर्वाह करने में गंभीर क्यों नहीं हैं? इसके अलावा जन प्रतिनिधि भी अपने दायित्वों को लेकर सजग होंगे। अगर ये ना हुआ तो हमारे शहर डूबते रहेंगे। कुछ दिन तो शोर और कोलाहल के बाद जिंदगी फिर से पहले की तरह स चलने लगेगी।            (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैंं)

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