तेजेन्द्र शर्मा
भारत की वर्तमान सरकार ने निर्णय तो ले ही लिया है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाएगी। इससे पहले सरकार धारा 370 और तीन तलाक पर कानून बना भी चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने सरला मुद्गल निर्णय (वर्ष 1995) और पाउलो कॉटिन्हो बनाम मारिया लुइज़ा वेलेंटीना परेरा केस (वर्ष 2019) में भी सरकार से समान नागरिक संहिता लागू करने का आह्वान किया था।
आजकल भारतीय मीडिया में केवल एक ही समाचार छाया हुआ है-समान नागरिक संहिता यानी कि यूनिफॉर्म सिविल कोड। सरकार एवं विपक्ष आज केवल एक ही विषय पर चर्चा करता दिखाई दे रहा है। टीवी चैनलों पर इसी विषय पर जोरदार बहस हो रही है। कुछ राजनीतिक दल इसे मुस्लिम विरोधी कह रहे हैं तो कुछ चुनावी एजेंडा।
भारत में जब कभी भी किसी विषय पर राजनीति होती है तो तुरन्त संविधान की दुहाई दी जाती है। हर लोकतंत्र गणतंत्र भी हो यह ज़रूरी नहीं है। ब्रिटेन में लोकतंत्र है मगर यहां राजशाही भी है क्योंकि देश का मुखिया राजा है। गणतंत्र में राष्ट्रपति का चुनाव होता है।
हमें एक बात का ध्यान रखना होगा कि भारतीय संविधान लिखने वाले लोग चाहे कितने भी महान थे मगर थे तो इंसान ही। और इंसान तो ग़लतियों का पुतला है। तो संविधान में भी कुछ गलतियाँ हुईं, जिनमें अब तक 105 बार संशोधन किया जा चुका है। समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में बोलने वाले इसी संविधान की रो-रो कर दुहाई दे रहे हैं।
मुझे विश्व के अधिकांश देशों की यात्रा करने का अवसर मिला है। मैं रहता भी लंदन में हूं। इसलिये विश्व के अन्य देशों के बारे में थोड़ी जानकारी रखता हूं। मेरी जानकारी के मुताबिक अमरीका, यूरोप, रूस, इजराइल, जापान और तमाम इस्लामिक देशों में 'पर्सनल लॉÓ जैसी किसी भी सुविधा का प्रावधान नहीं है। जो भी देश का कानून है वो सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होता है। ब्रिटेन में नेशनल हेल्थ सर्विस की सेवा तमाम नागरिकों को समान रूप से उपलब्ध है फिर वे चाहे ईसाई हों या मुसलमान, यहूदी या हिन्दू। सभी को ब्रिटेन के कानून के अनुसार ही चलना होता है।
समान नागरिक संहिता जिन मुद्दों पर असर डालेगी वो हैं-विवाह, तलाक, गोद लेने का अधिकार, संपत्ति पर अधिकार एवं लैंगिक समानता। इससे किसी भी धर्म के अनुयायियों की धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। होगा बस यही कि जैसे फ़ौजदारी मुकद्दमों का कानून (आपराधिक कानून) सब धर्मों पर समान रूप से लागू होता है, ठीक वैसे ही सिविल कानून भी सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होगा।
सवाल यह नहीं है कि गोवा में क्या होता है या मणिपुर में या फिर पारसी या मुसलमानों के समाज में। मुद्दा केवल इतना सा है कि समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद उपरोक्त मामलों में सभी पर एक ही कानून लागू होगा और भारतीय अदालतों पर बोझ कम होगा।
समान नागरिक संहिता का दबाव तो उस समय से ही बनना शुरू हो गया था जब 1985 में शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने उनके शौहर को गुज़ारा भत्ता देने का निर्णय पास किया। मुस्लिम कट्टरपंथियों ने इस आदेश को मुस्लिम पर्सनल लॉ में दख़लअंदाज़ी बताया और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का ज़बरदस्त विरोध करने लगे। राजीव गांधी की सरकार ने 1986 में कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिये और संसद में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला बदल दिया।
जब तीन तलाक पर कानून बना और इसे अपराध घोषित कर दिया गया तो अधिकांश मुस्लिम महिलाओं ने चैन की सांस ली थी कि अब उन पर तलाक की तलवार नहीं टंगी रहेगी। मगर हम पुरवाई के पाठकों को बताना चाहेंगे कि अपराध केवल तलाक-ए-बिद्दत को घोषित किया गया था यानी कि एक ही सांस में तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कह कर पत्नी का त्याग कर देना। तलाक की पद्धति में कोई बदलाव नहीं आया था। अब भी तलाक शरिया के अनुसार ही हो रहा था।
दो अन्य तरह के तलाक हैं-तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन। तलाक-ए-हसन के तहत शौहर अपनी पत्नी को पहली बार तलाक कहता है। फिर एक महीने बाद दूसरी बार तलाक कहता है और एक महीना और बीत जाने पर तलाक कहता है। इस तरह तलाक पूरा हो जाता है। यदि इस बीच दोनों में सुलह हो जाए तो तलाक रद्द हो जाता है। तलाक-ए-अहसन में शौहर तलाक तो एक ही बार कहता है, मगर उसके बाद दोनों तीन महीने के लिये एक ही छत के नीचे रहते हैं। अगर इस बीच सुलह हो जाए तो तलाक निरस्त अन्यथा पत्नी घर से बाहर। और इन दोनों तरीकों का इस्लामिक शरिया कानून के मुताबिक पालन किया जाता है। देश के कायदे कानून से इसका कुछ लेना देना नहीं है।
ब्रिटेन और अमरीका जैसे देशों में इस तरह तलाक नहीं दिया जा सकता है। यहां तलाक और गुज़ारा भत्ता सब अपने मुल्क के कानून के तहत ही हो सकता है। और मैंने कभी इन मुल्कों में किसी को इसके विरुद्ध आवाज़ उठाते भी नहीं सुना है। भारत में विविधता की बात बहुत ज़ोर-शोर से उठाई जाती है। मुझे लगता है कि अमरीका शायद एक अनोखा देश है जहां सभी लोग बाहर से आकर बसे हैं। वहां के मूल निवासी (रेड इंडियन) तो अल्पसंख्यक हैं। दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है जिसके नागरिक अमरीका में जाकर नहीं बसे। भला इससे अधिक विविधता कहां देखने को मिलेगी। मगर वहां किसी प्रकार के पर्सनल कानून का कोई प्रावधान नहीं है। इससे एक बात तो साफ़ ज़ाहिर हो जाती है कि यदि सरकार सक्षम और सबल है तो उसके तमाम नागरिक कानून का पालन करते हैं। मगर जब सरकारें और राजनीतिक दल ही तुष्टिकरण और वोट बैंक के चक्करों में पड़े रहें तो जो 'वोट बैंकÓ हैं, उन्हें भी तो हक़ है कि अपनी मांगें सरकारों से मनवाएं।
यदि 1986 में राजीव गांधी ने (जिनके पास लोकसभा में तीन चौथाई बहुमत था) वोट बैंक के बारे में न सोचा होता और मज़बूती से मुल्लाओं और मौलवियों का सामना किया होता तो समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में देश उसी दिन आगे बढ़ गया होता। जब सुप्रीम कोर्ट का निर्णय हमारे मन मुताबिक होता है, हम उसकी तारीफ़ करने लगते हैं। जहां निर्णय हमारे विरुद्ध हुआ, हम उसकी बुराई करने से बाज़ नहीं आते।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में समान नागरिक संहिता की वकालत करते हुए कहा है कि एक ही परिवार में दो लोगों के लिये अलग-अलग नियम नहीं हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट बार-बार डंडा मारता है और कहता है कि कॉमन सिविल कोड लाओ। लेकिन ये वोट बैंक के भूखे लोग इसमें अड़ंगा लगा रहे हैं। याद रखिये भाजपा सब का साथ, सब का विकास की भावना से काम कर रही है। इस बीच उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता का मसौदा बन कर तैयार हो गया है। इस पर भी सवाल तो बनता ही है कि क्या भारत के हर राज्य का अपना अलग कॉमन सिविल कोड होगा या केन्द्र सरकार द्वारा बनायी गई समान नागरिक संहिता पूरे देश पर लागू होगी।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं एवं लंदन में रहते हैं)