डॉ. आनन्द पाटील
यह क्रान्ति का नहीं, सङ्क्रान्ति का समय है। सङ्क्रान्ति काल में नाना भ्रान्तियाँ जन्म लेती हैं अथवा कुछ लोगों द्वारा उन्हें जन्म देने का सचेष्ट प्रयास होता है। ऐसे प्रयासों से समाज में तत्काल, किन्तु क्षणिक दबाव निर्मित अवश्य होता है, परन्तु ऐसे प्रयास धीरे-धीरे निष्प्रभ हो जाते हैं। समाज उन दबावों की चपेट में नहीं आता। जो चपेट में आ जाता है, वह कालप्रवाही विकास की धारा से अलग-थलग पड़ जाता है। किसी भी बात के होते हुए यह सत्य है कि सङ्क्रान्ति काल में नाना भ्रान्तियों का होना (बढ़ना) स्वाभाविक है, क्योंकि लोग जिस भाव, बोध एवं परिस्थितियों में पले-बढ़े होते हैं, उनमें कल्पनातीत परिवर्तन की सम्भावनाओं का वर्णनातीत विस्तार होने लगता है, और लोग उन परिवर्तनों के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होते हैं। कुछ लोग इस काल (परिवर्तन) पर उद्वेलित हो उठते हैं, क्योंकि इससे पूर्व के काल में उनके द्वारा बनाये हुए दुर्ग ढहने लगते हैं और उनके सुखोपभोग के लिए निर्मित साधनों पर अंकुश लगने लगता है।
यह सत्य है कि सड्क्रान्ति काल में भ्रान्तियों से घिर कर व्यक्ति के दिग्भ्रान्त होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। और, यह समयसिद्ध सत्य है कि दिग्भ्रान्त व्यक्ति अपने अथवा किसी भी समाज को दिशा नहीं दे सकते। ऐसे व्यक्ति किसी के लिए भी घातक ही सिद्ध होते हैं। वे किसी-न-किसी कारणवश संघर्ष परोसने वाले व्यक्ति अथवा कुण्ठा एवं स्वकल्पित परिवर्तनकामी चेतना के विस्तार का हवामहल रचने वाले अव्यवहार्य ग्रन्थों से सूचनाएँ पाकर व्यर्थ ही आन्दोलित हो उठते हैं। वर्तमान सड्क्रान्ति के समय में ऐसी आन्दोलनजीविता चरम छू रही है, और चूँकि इसके निर्णायक एवं निर्वाहक दिग्भ्रान्त हैं, तो शनै:-शनै: वह समान भी हो रही है, ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा।
हिन्दी व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने 'आवारा भीड़ के ख़तरेÓ में लिखा है - 'यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई, उसे 'लास्ट जनरेशनÓ (खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है।Ó इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि उन्होंने विपरीत परिस्थितियों को देखा-जिया था। अत: कहा जा सकता है कि निराशावादी, विध्वंसवादी, अराजकतावादी, उपद्रवी, नकारवादी हुई। परन्तु, वर्तमान भारतीय समय और तत्कालीन तथा उसके बहुत बाद तक के यूरोप के समय में कहीं कोई साम्य नहीं है। कम-से-कम विगत दस वर्ष के भारतीय समय का पूरी सदाशयता के साथ मूल्यांकन करें, तो उल्लेखनीय है कि भारत सरकार नित्य सुधारात्मक दृष्टि के साथ सबके विकास के लिए समर्पित होकर कार्यसिद्ध है। फिर भी, कुछ युवाओं में यूरोपीय 'लास्ट जनरेशनÓ की निराशा और नकारात्मकता का चरम दृष्टिगोचर होता है। उनमें विद्यमान (रचित) अराजकता और विध्वंस की प्रवृत्ति का मूल्यांन करने से यह ज्ञात होता है कि ये युवा दिग्भ्रमित हैं और मसीहा बनने का खण्ड-खण्ड पाखण्ड रचने वाली 'आवारा राजनीतिÓ के मोहरे भी हैं, और प्रकारान्तर से उसके शिकार भी। वास्तव में उन्हें यह बारम्बार बतलाया जाता है कि विकास की अट्टालिकाएँ और प्राकार (कल्पित) शोषण की नींव पर ही खड़े होते हैं। अत: समाज में समता स्थापन के लिए संघर्ष रचना अनिवार्य है, क्योकि उसकी रचना एवं क्रियान्वयन से ही शोषित समाज को शोषण-दमन से मुक्ति मिलेगी और इच्छित फलानुभूति होगी।
यह भी एक दीवास्वप्न ही है कि एक दिन (तथाकथित) समतामूलक समाज की स्थापना होगी, जोकि उसकी सैद्धान्तिकी (साम्यवादी) की जन्मभूमि एवं प्रचार-भूमि में ही फलीभूत न हो सका। और, जहाँ उस सैद्धान्तिकी के आधार पर रक्तपाती सङ्घर्षोपरान्त सत्तार्जन हुआ, वहाँ शोषण-दमन के नये रूप-प्रारूप विकसित हुए। आज विश्व उनके द्वारा विकसित शोषण-दमन के नाना रूप-प्रारूपों के नित नवीन तेवर देख रहा है। पिछले 'वज्रपातÓ में मैंने 'उत्क्रमित जातिवादÓ के यथार्थ पक्ष को रेखांंकित किया था। यहाँ यह ध्यान देना होगा कि नये रूप-प्रारूपों पर खड़ी शोषणवादी समतामूलक सत्ता उत्क्रमित शोषण का पूरी युक्ति-शक्ति के साथ विस्तार कर रही है। और, यह सभी सम्प्रभु राष्ट्रों को एक-दूसरे के बरक्स खड़ा कर सम्पूर्ण विश्व को आपातकालीन स्थिति में धकेलने को उद्यत है। इसलिए भारत 'वसुधैवकुटुम्बकम़Ó का मन्त्र पुन:-पुन: स्मरण करा रहा है। परन्तु, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में शोषणवादी समतामूलक सत्ता की अनुयायी बनी आवारा भीड़ भारतीय समाज को अंधकार में धकेलने का सतत प्रयास कर रही है।
आन्दोलनजीविता की सैद्धान्तिकी का अनुसरण करने वालों ने अब तक किसी भी समाज में लोकतन्त्र का संहार ही किया है। ऐसे जीवी-परजीवियों को आवारा राजनीति समय-समय पर अपना औज़ार-हथियार बनाती रही है, परन्तु चूँकि उनका मानस मालिन्य युक्त है, इसलिए अशान्तचित्त आन्दोलनजीवी कुछेक अतृप्तात्माओं को साथ लेकर, सशस्त्र क्रान्ति की बात करते हुए भी समाज में विपरीत लोकाचार के कारण समय-समय पर निर्वस्त्र (पतित) भी हो रहे हैं। वर्तमान सङ्क्रान्ति काल में आवारा राजनीति की पिछलग्गू बनी आवारा युवाओं की भीड़ भारतीय समाज को भीड़तन्त्र के हवाले करने की पक्षधर प्रतीत होती है। यह भीड़ अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु, सर्वव्यापक कल्याण की भावना से कार्यरत व्यक्ति एवं सत्ता (सरकार) का चरित्र हनन कर, उसे सार्वजनिक मञ्च तथा माध्यमों पर सामूहिक रूप से उत्पीड़ित करती है। ऐसे उपद्रवी उपक्रमों से यह स्पष्ट होता है कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता में भारत को उपरोक्त यूरोप की-सी स्थितियों में धकेलना ही ग्रथित है।
परसाई के उपरोक्त व्यंग्य में कुछेक अंश अत्यन्त मार्मिक हैं। उन्होंने उचित ही लिखा है - दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ ख़तरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी ख़तरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। अत: युवाओं को ख़तरनाक विचारधारा वाले लोगों का मोहरा और आवारा भीड़ का हिस्सा बनने से बचना चाहिए। यदि युवा आवारा भीड़ का हिस्सा बनते हैं, तो उनके दुर्भावनापूर्ण कृत्यों को अक्षम्य अपराध की श्रेणी में रख कर उन्हें अविलम्ब दण्डित करना चाहिए। किसी भी समय में यह स्मरण रखना होगा कि आवारा कदापि मसीहा नहीं होते। (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में शिक्षक हैं)