डॉ. अवधेश त्रिपाठी
किसी समय पूरे आर्यावर्त में एकमात्र सनातन धर्म-दर्शन था। फिर उसमें से हिन्दू (वैष्णव, शैव, शाक्त, सगुण, निर्गुण, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग), जैन, बौद्ध, सिख, ब्रह्म समाज, आर्यसमाज, ब्रह्मा कुमारी, राधा-स्वामी, रामाश्रय, आदि-आदि पंथों और मतों का प्रादुर्भाव हुआ। किन्तु इन सभी की दृष्टि एवं मन्तव्य परमसत्य की प्राप्ति है। श्रीमद्भागवत्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है 'किसी अन्य देवता को भजने वाले अन्तत: मेरा ही स्मरण करते हैंÓ। इसी बात को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो धर्म-संसद में रखा था कि जिस प्रकार सभी नदियों का जल अन्त में समुद्र में समा जाता है, उसी प्रकार सभी मतों की अन्तिम समाधि सनातन धर्म-दर्शन में है। धर्म-दर्शन का आशय धर्म की ओर देखते हुए, उसे ग्रहण करते हुए, उसे आत्मसात करते हुए जीवन के मार्ग का निर्धारण करना है। यही मनुष्य के कल्याण का एकमात्र उपाय है। किसी भी विषय, ज्ञान को - जानने, समझने, सीखने के लिए चार विधियाँ अपनाई जाती हैं - प्रेक्षण या प्रयोग एवं अवलोकन, श्रवण या सुनना, मंत्र या सूत्र के रूप में आत्मसात करना, इनका विभिन्न मात्रा में यथायोग्य संयोग।
संसार में सभी व्यक्तियों की समझने और ग्रहण करने की क्षमता एक-सी नहीं होती। उनके ज्ञान, दृष्टिकोण और रुचि की भिन्नता के कारण सभी को समान विधि से नहीं समझाया जा सकता। प्रेक्षण की विधियों के साथ ही विभिन्न कलाओं के रूप में - मूर्ति, नाट्य एवं अभिनय, नृत्य, संगीत, चित्र आदि का आश्रय लिया जाता है। शिक्षण भी एक कला है। इस तरह सनातन में व्यक्ति की रुचि के अनुसार चयन की स्वतंत्रता की सुविधा प्रदान की गई है। यही कारण है कि सनातन में उपासना पद्धति में एकरूपता नहीं है। यहाँ फतवों का न तो कोई स्थान है और ना ही उनकी आवश्यकता। मनुष्य की रुचि, स्वतंत्रता और विवेकानुसार ही उसके लिए क्या सही और उचित है, वह अपने अनुसार निर्धारण कर सकता है। मोक्ष, मुक्ति, कैवल्य, परमपद, उद्धार, स्वर्ग, जन्नत की धारणा एवं उसे पाने की लालसा हर धर्म और पंथ में की गई है। इस्लाम और ईसाइयत में मनुष्य की मुक्ति के लिए अल्लाह या ईशु के आगमन का कयामत के दिन तक इन्तजार रहेगा। कयामत को ही प्रलय कहा गया है जिसकी धारणा सभी धर्मों में है। प्रलय के दिन पूरी पृथ्वी जलमग्न हो जायेगी, कुछ भी शेष नहीं रहेगा। विचारणीय है, क्या नष्ट होना उद्धार का होना है ? क्या सब कुछ नष्ट होना जन्नत या स्वर्ग में पहुँचा सकता है ? सनातन धर्म-दर्शन में मुक्ति, स्वर्ग के लिए अनन्तकाल तक इन्तजार नहीं करना होता। न ईश्वर का, न अल्लाह या ईशु का। व्यक्ति आज, इसी समय, तत्क्षण मुक्ति को पा सकता है, यदि वह ठान ले। बस उसे अपने चिन्तन का परिष्कार, आचरण और व्यवहार में शुचिता लाना होगा। श्रीमद्भागवत्गीता कहती है - 'उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।Ó प्राणी तू अपना उद्धार आप कर। दूसरा कोई तेरा उद्धार नहीं कर सकता। यदि मनुष्य अपना उद्धार आप करने का प्रयास नहीं करता है तब प्रलय का - दण्ड, Punishment, कयामत के रूप में आना सुनिश्चित है। प्रलय का अर्थ है प्रकृति में लय या लीन (विलीन) हो जाना। सृष्टि का निर्माण प्रकृति से ही हुआ है। प्रकृति जो अपने नियमों और सिद्धांतों के अनुसार बर्तती है। जो सहज है, स्वाभाविक है, जिसे आरोपित नहीं किया गया है। जो अंतस है आपका, आचरण नहीं। सभी पंथों का मूल उनका आश्रय प्रकृति ही है। प्रकृति आधार चलहिं सब पंथा। प्रकृति विरुद्ध आचरण, प्रकृति का दोहन, प्रकृति का प्रदूषण, प्रकृति के विरुद्ध चलकर उसे प्रकोपित करना है। फिर प्रलय, कयामत, नष्ट होने से हमें कोई नहीं बचा सकता।
ब्लिट्ज समाचार पत्र के सम्पादक स्व. श्री आर के करंजिया ने एक बार अपने लेख में लिखा था कि 'इस्लाम के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार है।Ó इससे आप इस्लाम की सच्चाई समझ सकते हैं। वहाँ पर जो इसमें लिखा है वह सत्य है, वही एकमात्र सत्य है, बाकी सब असत्य है। सबको इसे ही मानना चाहिए, मानना पड़ेगा या फिर मरना पड़ेगा।
ईसाइयत का जन्म ईसा मसीह को क्रूस पर लटकाकर हाथ-पैर में कीलें ठोकने से उत्पन्न मानवीय संवेदना और पीड़ा से हुआ था। इसलिए वहाँ दया, करुणा और सेवा का भाव रहा है। किन्तु इस्लाम और ईसाइयत का सनातन से विरोध का एकमात्र कारण सनातन में विमर्श की सुविधा का होना है। जिसका इन दोनों में सर्वथा अभाव है। सनातन यह मानकर चलता है कि 'यह भी सही', 'वह भी सहीÓ के साथ स्वस्थ चिन्तन एवं विमर्श (सत्संग) के द्वारा परमसत्य को जानना। स्वाभाविक है यहाँ जानने के मार्ग अनेक हो सकते हैं। अर्थात् सामने वाले के विचारों का सम्मान के साथ लक्ष्य का सनातन, शाश्वत, सत्य होना। यही कारण है कि सनातन धर्म-दर्शन में ग्रंथों, शास्त्रों की बहुलता है। इसमें खुलापन, वैचारिक स्वतंत्रता, आचरण की विविधता के साथ भाव की एकरूपता और श्रेष्ठता पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। इस बात का उद्घोष ऋग्वेद की ऋचा करती है - 'आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वत:Ó (श्रेष्ठ विचार सभी दिशाओं से हम तक पहुँचें - Let noble thoughts come to us from every direction। यह संकेत है प्रत्येक व्यक्ति की वैचारिक स्वतंत्रता, संप्रभुता, संरक्षण की सुनिश्चितता के साथ बौद्धिक चिन्तन, विमर्श, निष्कर्ष द्वारा सत्य के अन्वेषण का। यही कारण है कि सनातन धर्म-दर्शन की अनेक शाखाएँ अन्ततोगत्वा एक ही जगह जाकर ठहरती हैं। (लेखक वरिष्ठ चिकित्सक हैं)