साध्वी पूनमश्री : तपस्या की परिभाषा

अशोक कोचेटा

Update: 2023-08-02 19:53 GMT

 शिवपुरी में दुर्लभ सिद्धि तप की आराधना कर रहीं साध्वी पूनम श्री के संतत्व धारण करने की कहानी अनूठी है। उन जैसा उदाहरण शायद ही कहीं मिले। महज छह वर्ष की अल्प आयु में उनके पिता श्रीमान रावड़ साहब ने अपने चार पुत्रों के बीच इकलौती लाड़ली पुत्री पूर्णिमा कुमारी को रक्षाबंधन के अवसर पर अपनी साध्वी बहन रमणीक कुंवर जी महाराज को सन् 1977 की श्रावण पूर्णिमा के शुभ दिन समर्पित कर दिया। समूचे परिवार ने उनके इस निर्णय का विरोध किया, लेकिन रावड़ साहब अडिग रहे।

उन्होंने भावुक होकर इस अवसर पर कहा था कि वह अपनी पुत्री को किसी भी स्थिति में दुखी नहीं देखना चाहूंगा। संतत्व ग्रहण कर वह दु:खों से मुक्त हो जाएगी। उनके मन में यह भावना इसलिए आई थी, क्योंकि उनकी बहन दमयंती (साध्वी रमणीक कुंवर जी) के दीक्षा लेने का विरोध समूचे परिवार ने किया था, लेकिन दीक्षा लेने के बाद उनके पतिदेव अमृतलाल जी छाजेड़ का निधन हो गया था। भाई ने सोचा कि यदि आज उनकी बहन गृहस्थ आश्रम में होती तो यह घटना उनके लिए कितनी दुखदायी और वियोगपूर्ण होती।

पूर्णिमा कुमारी की माँ राजल बाई अपनी पुत्री को साध्वी बनाने के पति के निर्णय के विरोध में थीं, लेकिन रावड़ साहब अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। ऐसी स्थिति में बालिका पूर्णिमा कुमारी से जब उसकी इच्छा पूछी गई तो उनके शब्दों में भी निर्भीकता और दृढ़ता का समावेश था और उन्होंने कहा कि मैं महासती जी के साथ रहूंगी। बालिका पूर्णिमा कुमारी की सांसारिक बुआ साध्वी रमणीक कुंवर जी भी अपनी भतीजी को इतनी छोटी सी उम्र में अपने आंचल में समेटने में झिझक महसूस कर रही थीं। उन्होंने अपनी असहमति दर्शाई, लेकिन पूर्णिमा कुमारी पिता के निर्णय के साथ रहीं। बालिका को कई बार घर भेजा गया, किन्तु वह पुन: महासती की सेवा में आ गई। 15-16 वर्ष तक साधुवेश धारण किए बिना बालिका पूर्णिमा कुमारी आध्यात्मिक साधना में लीन रहीं और उन्होंने लौकिक ज्ञान के साथ-साथ आगमों का अलौकिक ज्ञान भी प्राप्त किया। आखिरकार दीक्षा की शुभ घड़ी आई और पूर्णिमा कुमारी ने स्वयं ही अपनी दीक्षा का मुहूर्त निकलवाया। देवास के राजवाड़े में मालव गौरव पूज्य गुरूदेव प्रकाश मुनि जी महाराज बालिका पूर्णिमा कुमारी के दीक्षा प्रदाता बने। पूर्णिमा कुमारी ने प्रसिद्ध जैन संत सौभाग्य मुनिजी महाराज को मन और आत्मा से अपना गुरू स्वीकार किया तथा निमाड़ सौरभ गुरूणी मैया रमणीक कुंवर जी महाराज का शिष्यत्व स्वीकार किया। उनकी दादा गुरूणी पूज्य श्री शांतिकुंवर जी म.सा. बनीं।

महासती पूनमश्री जी का जन्म 8 जुलाई 1971 को मालवा की शस्यश्यामला भूमि में नर्मदा के किनारे बसे गांव सनावद में माँ श्रीमती राजल देवी डाकोलिया की कुक्षी से हुआ। पिता श्रीमान रावड़ साहब डाकोलिया बहुत धर्मनिष्ठ थे। उन्होंने 1977 में अपनी बालिका पूर्णिमा कुमारी को बड़वाह में गुरूचरणों में समर्पित किया। 30 मई 1993 को उनकी दीक्षा देवास में संपन्न हुई। बड़ी दीक्षा प्रदाता उपाध्याय प्रवर पू.श्री रविन्द्र मुनि जी म.सा. बने। अब उनका नया नामकरण साध्वी पूनम श्री उच्चारित किया गया। नाम में शायद इसलिए भी बदलाव नहीं किया गया, क्योंकि साध्वी पूनम श्री का जन्म गुरूपूर्णिमा के पवित्र दिन हुआ था और यह माना गया कि बचपन से ही उन्हें गुरू का आशीर्वाद प्राप्त है। दीक्षा लेने के बाद साध्वी पूनम श्री ने ज्ञान की वृद्धि, श्रद्धा में दृढ़ता, चारित्र भावों में वृद्धि एवं तप में अपने आपको को संलग्र कर लिया। उन्होंने 30 वर्ष के साधना काल में अनेक जैन आगमों का अध्ययन किया और तपस्या को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर भगवान महावीर की तप आराधना की अनुगामी बनीं। साध्वी पूनमश्री जी 3 अगस्त को सिद्धि तप पूर्ण कर रही हैं। इस दुर्लभ तप में 1 उपवास से लेकर लड़ी बनाकर 8 उपवास तक की तपस्या की जाती है। 44 दिन की तपस्या में 36 दिन वह निराहार रहेंगी। इसके अलावा अभी तक वह 30 उपवास (मासखमण), 5 दिन से लेकर 8, 16 और 19 दिन के उपवास भी अलग-अलग समय पर कर चुकी हैं। 20 स्थानक की ओली (400 दिन के उपवास), 250 से अधिक पच्चखाण सहित अनेक तपस्याएं उन्होंने की हैं। तपस्या करने के बावजूद भी वह पद विहार कर महाराष्ट्र, राजस्थान, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश सहित नेपाल की राजधानी काठमांड़ू तक जिनवाणी की गंगा प्रभावित कर चुकी हैं। उनके सिद्धि तप की आराधना से शिवपुरी के जैन समाज में उत्साह, उमंग और उल्लास की लहर है। उनकी तप की अनुमोदना में 61 श्रावक और श्राविकाएं एक दिन से लेकर पांच उपवास की तपस्या कर रहे हैं। शिवपुरी में साध्वी पूनम श्री जी द्वारा सिद्धि तप की आराधना किया जाना यहां के लिए गौरवपूर्ण और प्रेरणास्पद है।    

 


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