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राष्ट्रीय मर्यादा और हमारा पथ

- सुरेश हिन्दुस्थानी

Update: 2019-01-19 14:41 GMT

स्वदेश वेब डेस्क। एक कहानी से अपनी बात प्रारंभ करता हूं। एक बार एक संत विदेश में ट्रेन से यात्रा कर रहे थे, उस दिन उनका उपवास था। इस कारण उन्हें फलाहार की अत्यंत आवश्यकता महसूस हो रही थी। कोई स्टेशन आता तो संत जी इधर उधर देखते कि कोई फल वाला दिख जाए और फल खरीद लिए जाएं, लेकिन फल वाला नजर नहीं आता था। आखिर में संत जी ने व्याकुल होते हुए कहा कि यह कैसा देश है, जहां फल नहीं दिख रहे? यह सब बातें समीप बैठा एक तरुण युवक भी सुन रहा था। अगले स्टेशन पर वह युवक अपनी सीट से उठा और जल्दी से बाहर जाने लगा। वह थोड़ी देर में वापस आया तो उसके हाथ में फलों की टोकरी थी। युवक ने फलों की टोकरी संत के हाथ में दे दी और कहा कि आपको फल चाहिए थे, यह फल ले लीजिए। संत जी ने कहा कि कितने पैसे देना है, तब युवक ने जो कहा वह अत्यंत ही प्रेरणा देने वाला है। युवक का कहना था कि संत जी मुझे आपसे पैसे नहीं, एक वादा लेना है। संत जी बोले क्या? तब युवक ने कहा कि आप अपने देश जाकर यह नहीं कहना कि मेरे देश में फल नहीं मिलते। मैं अपने देश की बुराई सहन नहीं कर सकता, इसलिए आपको फल लाकर दिए। देश भक्ति के ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे, जो हमारे देश भाव को जगा सकते हैं, लेकिन वर्तमान में हम क्या देख रहे हैं, भारत में देश विरोधी बयानों से वातावरण खराब करने का प्रयास किया जा रहा है। इतना ही नहीं ऐसे लोगों को राजनीतिक संरक्षण भी मिल जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर चलाए जाने वाले इस खेल को एक षड्यंत्र की तरह ही चलाया जा रहा है। इसलिए आज देश का एक बहुत बड़ा वर्ग भ्रमित अवस्था में जीने की ओर प्रवृत्त हो रहा है। उसे यह भी नहीं पता कि हमारे राष्ट्रीय कर्तव्य क्या हैं? वह संवैधानिक मर्यादाओं में भी जीना नहीं चाहता। आखिर ऐसा क्यों है? जबकि विश्व के अन्य देशों में राष्ट्रीय कर्तव्यों के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रहता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह तो नहीं हो सकता कि हम अपनी आस्था और श्रद्धा केन्द्रों पर हमला करें। राजनीतिक विचारों से सहमत और असहमत हुआ जा सकता है। यह विचारशील समाज के लिए अत्यंत ही आवश्यक भी है। लेकिन हमें समाधान कारक दिशा की ओर अपनी बुद्धि लगाना चाहिए। आज हमारे देश में समस्या खड़ी की जाने का उपक्रम किया जा रहा है, समाधान कोई नहीं बता रहा। इसके कारण ही समाज में केवल समस्या विद्यमान होती जा रही है। प्रसिद्ध विचारक शिव खेड़ा का कहना है कि जब हमारे विचार देश की समस्याओं के समाधान का हिस्सा नहीं हैं, तब हम स्वयं ही एक समस्या हैं। कितना बढिय़ा कथन हैं। हम जैसा चिंतन करेंगे, वैसा ही समाज बनता जाएगा। इसलिए हमारे दर्शन में समाधान की दिशा पैदा करना होगी। आज इस बात की देश को बहुत आवश्यकता है।

अभी कुछ दिनों पूर्व दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में वामपंथी विचारों से प्रेरित तथाकथित बुद्धिजीवियों के मार्गदर्शन में देश विरोधी नारे लगाए गए। उनके समर्थन में राजनीतिक शक्तियां भी खड़ी होने लगीं। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रुप में प्रचारित करने का खेल भी खेला गया, लेकिन देश का विरोध कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में नहीं आ सकता। यह देश के राजनीतिक दलों को भी समझना चाहिए और प्रबुद्ध वर्ग को भी। ऐसे हर किसी कार्य का विरोध होना चाहिए जो राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात करता है।

हम जानते हैं कि हमारे देश में भारत के मानबिन्दुओं के बारे में कई तरह के स्वर मुखरित किए जाते हैं। चाहे वह गौमाता की बात हो या फिर अयोध्या में भगवान श्रीराम की पावन जन्म स्थली की ही बात हो। इनके बारे में देश का बहुत बड़ा समाज आस्था का भाव रखता है, इसके बाद भी व्यक्तियों की भावनाओं का सम्मान नहीं करते हुए इसके विरोध में ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास किया जाता है कि समाज भी भ्रमित हो जाए। जबकि यह अकाट्य प्रमाण है कि गौमाता के शरीर में हिन्दू धर्म के सभी देवी देवताओं का वास है और अयोध्या भगवान श्रीराम की जन्म स्थली है। कोई कितना भी सवाल उठाए, लेकिन समाज की यह मान्यताएं कभी परिवर्तित नहीं हो सकतीं। जो सच है, वह सच ही रहेगा। चिरकाल तक भी वह सच ही रहेगा। आज राजनीतिक स्वार्थों के चलते भले ही समाज को भ्रमित किया जा रहा है, लेकिन हम कहते हैं कि जब हम देश भाव के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करने लगेंगे तब हम स्वत: ही अपने आपको सच के मार्ग पर ले जाने में समर्थ होंगे।



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