गिरीश्वर मिश्र
सत्ता तक किसी तरह पहुँचना और वहाँ पहुँच कर सत्ता में अधिकाधिक समय तक क़ाबिज़ बने रहना सभी राजनैतिक दलों की केंद्रीय महत्वाकांक्षा होती है। सभी दल इसे जायज़ ठहराते हैं। कभी नि:स्वार्थ भाव से देश की सेवा और समाज के कल्याण की दृष्टि से लोग-बाग राजनीति की ओर आते थे और इस उपक्रम में प्राय: कुछ खोते गँवाते थे। राजनीति की ओर उनका अग्रसर होना किसी दबाव से नहीं बल्कि स्वेच्छया होता था। देशहित को आगे रख कर वे समाज की आंतरिक बुराइयों, बाह्य बंधनों और चुनौतियों का सामना करने को तैयार रहते थे। जरूरत पड़ने पर आत्म-दान और स्वार्थ-त्याग के लिए वे हाज़िर रहते थे। विभिन्न राजनैतिक दलों की अपनी-अपनी वैचारिक पसंद नापसन्द तो होती थी पर सब कुछ के बावजूद देशहित ही सर्वोपरि रहता था। अपने सामाजिक काम में लग कर वे प्रतिष्ठा अर्जित करते थे। जमीन से उठ कर आने वाले ऐसे नेतृत्व की साख उनकी अपनी कमाई होती थी न कि हाई कमान की कृपा पर टिकी होती थी। वे संग्रह भी देने के लिए करते थे। अपने लिए बचाना उनका उद्देश्य नहीं होता था। वस्तुत: उनके कर्मठ जीवन में देश-निर्माण के लिए स्वाभाविक जज़्बा और उत्साह था जो सिफ़र् दिखावटी न हो कर कार्यों में परिलक्षित होता था। आज हमारे राजनेता किस तरह जनकल्याण से जुड़ रहे हैं इसका पता ताज़ा घटनाओं से चलता है। अब स्वतंत्र होने के पचहत्तर साल बीतने के बाद राजनैतिक परिवेश में जिस तरह की प्रवृत्तियाँ उभर कर सामने आ रही हैं वे राजनीति के तेज़ी से बदलते चरित्र को बयाँ कर रही हैं।
एक ताज़ा उदाहरण बिहार में गंगा पर बन रहे पुल के मामले से जुड़ा है। यह पुल एक नहीं, दो नहीं, तीन बार ध्वस्त हुआ और हर बार दोषियों पर कारवाई करने के लिए सरकार कहती रही और न कार्रवाई हुई न समस्या दूर हुई। यह ज़रूर खबर छपी कि सम्बंधित निर्माण कंपनी को बिहार में ढेर सारे निर्माण के काम दिए जाते रहे हैं। मुख्य मंत्री जी ने ज़रूर वक्तव्य दिया कि मैंने अधिकारियों को पता करने को कहा है कि ऐसा कैसे हो रहा है।
दूसरा उदाहरण पश्चिम बंगाल से है। इसमें एक बड़े रसूख वाले और मुख्यमंत्री के अत्यंत विश्वासपात्र और चहेते मंत्री महोदय और उनकी महिला मित्र स्कूलों में अध्यापक-नियुक्ति के घोटाले में जेल में बंद हैं। उन पर यह आरोप है कि अयोग्य लोगों को ग़लत तरीके से नियुक्ति दे कर अब तक वे करोड़ों रूपये की सम्पत्ति बना चुके है। शिक्षा के ही क्षेत्र में सरकार अपना वर्चस्व और बढ़ाने के लिए अब दूसरी मुहिम विश्वविद्यालयों के स्तर पर चलाने को तैयार है। विश्वविद्यालयों पर शिकंजा कसने के लिए राज्यपाल की जगह अब मुख्यमंत्री को कुलाधिपति (चांसलर) बनाने की तैयारी है। पंजाब में आप की मान सरकार भी ऐसा ही करने को तैयार हो रही है। अभी खबर यह आई है कि सामाजिक उत्थान के लिए राजस्थान में सरकार धोबी, नाई, ब्राह्मण आदि अनेक जातियों के लिए पंद्रह आयोग गठित कर रही है। प्रत्येक आयोग के अध्यक्ष के लिए प्रदेश सरकार में मंत्री स्तर का दर्जा और सुविधा मुहैया कराने की व्यवस्था की जा रही है। समानता और समता लाने के बदले जातियों के आयोग बना कर हर जाति को अपनी पहचान को सुरक्षित करने के लिए झुनझुना पकड़ाया जा रहा है जिसकी मधुर ध्वनि जातिभेद को बचाये रखने के लिए तत्पर है।
पर सबसे ख़तरनाक बात जो हो रही है वह है चुनाव की आहट के साथ राजनैतिक दलों द्वारा कि़स्म-कि़स्म की रेवड़ी बाँटने का प्रतिस्पर्धी आंदोलन। चुनावी मौसम आते न आते सभी दल बे-अन्दाज़ हो कर नायाब वादों और घोषणाओं की झड़ी लगा देते हैं। नौकरी, बिजली, सम्मान निधि, गैस सिलेंंडर, कर्ज-माफ़ी, सस्ता-कज़र्, मुफ़्त वाई फ़ाई, आरक्षण की सुविधा यानी जो भी मन करे वह सब मतदाता को दिया जा सकता है। अब राजे-महाराजाओं की तज़र् पर नेता जी द्वारा कोई भी ऐलान किया जा सकता है। आखिर बोलने में किसी का क्या जाता है? जनता को मुफ़्त की सुविधाएं देने का कोई तर्कसंगत कारण या नीतिगत आधार नहीं होता है। मतदाताओं को किसी भी तरह लुभाना पार्टी का फ़ौरी उद्देश्य होता है और वे जीतने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार बैठे रहते हैं।
आज जाति, क्षेत्र और धर्म जैसे समाज-विभाजक आधारों का आसरा लेकर विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा चुनाव की तैयारी जन या समुदायविशेष के लिए उपयोगी (कस्टमाइज्ड) तुष्टिकरण की मुहिम को अंजाम देने की मुहिम तेज होती जा रही है। इस तरह की प्रक्रिया का कोई ओर-छोर नहीं दिखाई पड़ता है। चूँकि सामान्य मतदाता की विचार करने की शक्ति सीमित होती है इसलिए उसकी प्रतिरोध करने की शक्ति घट जाती है। साथ में प्रलोभनों की बौछार कुछ ऐसी होती है कि पहले से लाचार मतदाता आसानी से उनके बहकावे में आ जाता है। सुविधा और धन बाँट-बाँट कर जनता से वोट बटोरना राजनीति को नया आधार दे रहा है। राजनीति में भागीदारी आब नागरिक जीवन में स्वेच्छा से अपनाया गया धर्म नहीं रह पा रहा है। इन सबके चलते साक्रिय राजनीति में भाग लेना एक मँहगा सौदा हो रहा है। आज एम एल ए और एम पी के चुनाव में करोड़ों के खर्च होते हैं। इसलिए प्रत्याशी भी करोड़पति होते हैं और उसमें ऐसे लोगों की संख्या भी अच्छी ख़ासी होती है (संदिग्ध) अपराधी होते हैं। नेताओं की बिरादरी में धनबल और बाहुबल का सहयोग एक स्वीकृत मानक सा होता जा रहा है जिसके एक स्तर के नीचे किसी का प्रवेश वर्जित होता जा रहा है।
इसी तरह सामाजिक उद्धार में शामिल नेताओं को अपना दबदबा बनाए रखने के लिए जाति को जिलाए रखने में ही राह दिखाई पड़ती है। उसी में वे अपना भविष्य सुरक्षित महसूस करते है। वे जन नेता की तरह नहीं, जाति नेता की तरह बर्ताव करते हैं। वे अतिरिक्त तत्परता से इस उपाय में लगे रहते हैं कि किस तरह जाति की शक्ति उनका समर्थन करती है। राजनीतिक लाभ देखते हुए लागू करते हुए जातिगत जनगणना की वकालत और आरक्षण के नए नवेले प्रावधानों के प्रस्ताव भी उपस्थित हो रहे हैं। दूसरी ओर देश भर के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने के प्रस्ताव को लेकर समाज की विविधता को ख़तरा सूंघते हुए नकारने की कोशिश भी होती है। तुष्टिकरण अल्पकालिक लाभ वाला हो सकता है पर देश की जड़ों को खोखला करने वाला है। इसमें निहित सम्भावनाएँ काम और आपदाएँ अधिक हैं। कई जगह इसका ख़ामियाज़ा भुगता गया है। आज आवश्यकता है कि सभी राजनैतिक दल इस पर विचार करें और इसे नियंत्रित करने के कारगर उपाय करें। इसी तरह जन चेतना के लिए भी आंदोलन ज़रूरी है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि के पूर्व कुलपति हैं)