राजनीतिक गिद्ध और गधे : अबहुँ झोला बहुत है

डॉ. आनन्द पाटील

Update: 2023-07-29 21:10 GMT

आगामी दो सप्ताह में भारतीय लोकतन्त्र की आयु 76 वर्ष होने वाली है और कुछ माह में 18वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव होने वाले हैं, परन्तु दुर्भाग्य से भारतीय मतदाताओं (लोगों की, विशेष कर युवाओं) की राजनीतिक समझ अभी भी औसत दर्जे को नहीं छू पायी है। जबकि विशाल होती जनसंख्या और प्रौढ़ होते लोकतन्त्र के साथ-साथ लोगों की राजनीतिक समझ व्यापक और परिपक्व होनी चाहिए थी, परन्तु दुर्भाग्य से वह कभी अपरिपक्व, तो कभी अव्याप्ति दोष, तो कभी अतिव्याप्ति दोष से अतिच्छादित होती है। समाज में विविध माध्यमों से व्याप्त इन दृश्य-अदृश्य दोषों के कारण लोग चुनाव के समय बहक और भटक जाते हैं। सत्ता-पिपासु लोगों को बहका कर तथा भटका कर अपनी सत्ताकांक्षा की पूर्ति करते हैं। इसी चुनाव के चतुर्दिक विलायती सिद्धान्तों की चपेट में आये युवा (विद्यार्थी-शोधार्थी) देश को प्राय: सुनियोजित रूप में विखण्डन की ओर ले जाते हैं। जबकि यह सत्य है कि जिस प्रकार कोई विलायती महिला इस महादेश के प्रधानमन्त्री पद पर विराजमान नहीं हो सकती, उसी प्रकार भारतीय समाज, सभ्यता एवं संस्कृति पर विलायती सिद्धान्त भी लागू नहीं हो सकते, परन्तु हस्तान्तरित सत्ता के धारकों को विलायत और विलायती, अर्थात् सब कुछ, अत्यन्त रुचिकर लगता था। अत: 'प्रगतिशीलताÓ के नाम पर विलायती सिद्धान्तों का ही प्रचार होता रहा और परिणामस्वरूप 'विचार संकरÓ पीढ़ी पैदा हुई। उपरोक्त दोषाच्छादित लोग प्राय: दोषासक्त होने के कारण स्वार्थान्ध नेताओं के दुरुत्साहन के शिकार होकर कभी सायास, तो कभी अनायास, देश में चतुर्दिक संकट उत्पन्न करते हैं। चुनाव जैसे-जैसे निकट आते हैं, संकट वैसे-वैसे विकराल होने लगते हैं। वैसे चुनावी राजनीति का प्रभाव किसी भी समय में यत्र-तत्र-सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है।

एक सुधी पत्रकार कह रहे थे - '2024 के आम चुनाव, अब मान कर चलिए कि सिर पर ही हैं। इसलिए जहाँ-तहाँ गिद्ध और गदहे एकजुट हो रहे हैं।Ó गिद्ध और गदहों की एकजुटता की बात आयी है, तो ध्यान रहे कि यह कहीं किसी राज्य की राजधानी में एकत्रित 'छब्बीसÓ की बात नहीं है। उनकी एकजुटता तो उस फ़िल्म का स्मरण कराती है, जिसमें एक बेवड़ा खुले मैनहोल पर बायाँ हाथ झुला-झुला कर पच्चीस-पच्चीस गिन रहा होता है और जब एक व्यक्ति कौतुहल में आकर उस खुले मैनहोल में झाँक कर देखता है, तो वह बेवड़ा झूलने वाले बाएँ हाथ से उसे मैनहोल में धक्का देकर गिरा देता है और गिनता है - छब्बीस। तो, छब्बीस का मामला बेवड़ा और मैनहोल की कथा की ही भाँति है। कहा कि वे नीचे मलमार्ग में एकजुट हो रहे हैं। चुनावोपरान्त इनकी निकासी का दृश्य अत्यन्त रोचक होगा। यहाँ मैं दूसरी बात कर रहा हूँ, गिद्ध और गधे तो एकजुट हो ही रहे हैं, अन्य कई तत्व भी एकजुट हो रहे हैं।

ऊपर दूसरे परिच्छेद में प्रयुक्त 'जहाँ-तहाँÓ में वर्तमान भारत के शिक्षा संस्थानों के भटके हुए युवा (उपद्रवी तत्व) भी सम्मिलित हैं। उन्हें अभ्यासवश विद्यार्थी और शोधार्थी कहा जाता है। वास्तव में ऐसे उपद्रवियों को 'विद्यार्थीÓ और 'शोधार्थीÓ कहने का कोई औचित्य शेष नहीं रह गया है। वे विद्योपासना के अतिरिक्त शेष सब कुछ करते हैं। वे बात-बात पर बहक जाते हैं। किसी के बहकावे में आकर प्रायोजित आन्दोलन कर जाते हैं। यह सब व्यवस्था के भीतर रह कर किया जाता है। उन्हें गुजारे के लिए छात्रवृत्तियाँ मिल रही हैं। सिर पर छात्रावास की छत है। खाना जैसा भी बनता होगा, परन्तु खाने के लिए भोजनालय हैं, जिनमें सत्तर-अस्सी रुपये में तीन समय का भोजन मिल जाता है। उस भोजन में दूध, अंडे और पौष्टिक के नाम पर न जाने क्या-क्या मिल जाता है। यह बात और है कि वे स्वयं को 'दो जून की रोटी मयस्सर नहींÓ नारेबाजी वाले आन्दोलन के संवाहक मानते हैं। उनके पास घूमने के लिए सरकारी छात्रवृत्तियों से खरीदी हुई डेढ़-दो सौ सिलेण्डर क्षमता वाली पावरफूल गाड़ियाँ हैं। प्यार-इश्क और मोहब्बत, लिव-इन, फ्रेंड्स विद बेनिफिट एवं इस दिशा में आविष्कृत नाना नवाचारों के नाम पर उन्हीं की भाँति भटकी हुईं (प्रगतिशील) साथी महिला मित्र उपलब्ध हैं। कुल मिलाकर जीवन का आवश्यक (मूलभूत) से लेकर अनावश्यक (शौकिया) सब कुछ उन्हें सरकारी व्यवस्था में सहज प्राप्त है। मराठी समाज में ऐसे भटके हुओं के लिए 'रिकाम गावाला उपद्दरÓ और 'कान कापलेले कुत्रेÓ जैसी लोकोक्तियाँ प्रचलित हैं। ऐसे उपद्रवियों को प्राय: अन्य स्रोतों से फण्डिंग के समाचार भी मिलते हैं। ऐसे में वे विद्यार्थी नहीं, उपद्रवी तत्व ही बने रह जाते हैं। यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें विद्यार्जन से कोई विशेष लगाव नहीं है। ऐसे तत्व भारतीय राजनीति को भटकाव वाली दिशा देने का उपक्रम करते हैं। तो उपरोक्त 'जहाँ-तहाँÓ में ये और ऐसे नानाविध तत्व चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए सक्रिय हैं।

सबका मिशन एक ही है, 'उसको हटाओÓ, जिसने उनकी (भारतद्रोहियों) दुकानें लगभग बन्द कर दी हैं। इस 'उसकोÓ में देश के प्रधानमन्त्री से लेकर विश्वविद्यालय के कुलपति, संस्थान के निदेशक इत्यादि सब भारतस्नेही सम्मिलित हैं, जो विचार से अखण्ड राष्ट्रवादी हैं और भारत को एकसूत्र में बाँधे रखने के लिए समाजकण्टकों को सन्मार्ग पर लाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे समय में जब कोई कहे कि 'उसको हटाओÓ, तो समझ जाइए कि सबकी घनघोर, उन्हीं के आन्दोलित चेतनायुक्त शब्दों में - ठुकाई और कुटाई हो रही है। तो आप जान रहे हैं कि ये गिद्धनुमा मुर्दाखोर दृष्टि के साथ राजनीतिक नवीकरण के सूत्रधार बनने का यत्न कर रहे हैं। उनके कुछ गदहा साथी गदहिया भावभुद्रा में रेंकते हुए देश और समाज में अश्रुतिजन्य शब्दाघात कर सबको दिग्भ्रमित करने का यत्न कर रहे हैं।

जब-जब ऐसे यत्नों में तेजी आ जाती है, तो समझ लेना चाहिए कि चुनाव सिर पर हैं। देखिए कि 2024 के आम चुनाव सिर पर हैं। इसलिए अफवाहों का बाज़ार गर्म है। वे वायरल की नीति अपना कर 'उसको हटानेÓ के लिए उसका 'चारित्रिक शोषणÓ करने में जुट चुके हैं। हुआऽऽऽ हुआऽऽऽ क्रांन्तिकारी और पत्तलकार यहाँ-वहाँ मनगढ़न्त कथा-सृजन कर जनमत संग्रह करने का यत्न कर रहे हैं। परन्तु, प्रश्न है कि जो स्वयं को फलाँ-फलाँ राष्ट्रवादी कह रहे हैं, वे क्या कर रहे हैं? आपस में एक-दूसरे की टाङ्ग खिंचाई? कानाफूसी? राष्ट्रवादियों के ऐसे दुर्व्यवहार से ही भारत की अवदशा हो रही है। चुनाव निकट हैं, यह जान कर हुआऽऽऽ हुआऽऽऽ क्रांन्तिकारी गैङ्ग और पत्तलकार सक्रिय हो चुके हैं। 'इसको हटाओÓ, 'उसको हटाओÓ की नारेबाजी के साथ अनाप-शनाप कथाएँ रची और नवसञ्चार माध्यमों पर साझा की जा रही हैं। उनकी कथाएँ कथाकार की प्रतिभा को मात देने वाली प्रतीत होती हैं। न सत्य से सरोकार है, न देश और समाज से। इस सबके मध्य राष्ट्रवादियों का आपसी गृहयुद्ध देख कर लगता है - राष्ट्रवादियों का पानी मर गया है और धमनियों में बहता रक्त सूख गया है। हे! माँ भारती! इन्हें सद्बुद्धि दे।    (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में शिक्षक हैं)

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