पर्यावरण को लेकर अब पूरी दुनिया में चिंता हो रही है। बेमौसम बरसात, अधिक गरमी और सर्दी दुनियाभर में कहर ढा रही है। इसका असर अब फसलों पर भी आने लगा है। ऐसे में भारत में भी पर्यावरण को बचाने के लिए बड़ी गतिविधि शुरु हुई है। इस गतिविधि के बारे में संघ के अखिल भारतीय प्रमुख पर्यावरण गोपाल आर्य जी से ख़ास बातचीत की हमारे दिल्ली संवाददाता दीपक उपाध्याय ने...
सवाल - गोपाल जी क्या वजह है कि अब पर्यावरण में बदलाव एक बहुत बड़े विश्वव्यापी संकट में बदल गया है?
गोपाल आर्य जी : पर्यावरण के बारे में हम विचार करेंगे तो पाएंगे कि पर्यावरण की परेशानियों का मुख्य कारण व्यक्ति की लाइफस्टाइल है। चुंकि पर्यावरण के बारे में व्यक्ति का एटिट्यूट बदल गया है, उसके प्रति सोच बदल गई है। इसलिए अब वो संसाधनों का आवश्यकता से अधिक उपभोग करने वाला बन गया है। कंज्मशन बढ़ने के कारण पूरी दुनिया में स्थिति आ गई है। इस उपभोग की वजह से अंडरग्राउड वाटर भी कम हो गया है और हवा भी इतनी प्रदूषित हो गई है। इसको देखते हुए पर्यावरण गतिविधि शुरु की गई है।
सवाल : इस क्लाइमेट चेंज के लिए सबसे बड़ा कारण मनुष्य है?
गोपाल आर्य जी : आपको ये जानकर आर्श्चय होगा कि पूरी दुनिया में .01 प्रतिशत ही इंसान हैं, और पूरे प्रदूषण के लिए सिर्फ और सिर्फ मनुष्य ही जिम्मेदार है। इसलिए अगर हमने मनुष्य को ठीक कर दिया तो हम इस पर्यावरण के बदलाव को ठीक कर सकते हैं। इसलिए हम पॉलिसी सेंट्रिक नहीं, बल्कि प्यूपल सेंट्रिक अप्रोच के साथ काम कर रहे है।
सवाल - पानी पूरी दुनिया में एक समस्या बन गया है, इसे कैसे ठीक किया जा सकता है?
गोपाल आर्या जी : देखिए पानी एक बड़ा मुद्दा है। बरसात से जो पानी आता है, वहीं पीने का पानी का एक मात्र स्रोत है। इस बारिश के पानी में से 97 प्रतिशत पानी बहकर समुद्र में चला जाता है, 2 प्रतिशक ग्लेशियर में जम जाता है और उसका एक प्रतिशत ही हमारे काम आता है। इस 1 प्रतिशत में से 70 परसेंट खेती बाड़ी के काम में चला जाता है, 22 प्रतिशत पानी कारखाने और इंडस्ट्री में चला जाता है। 6 प्रतिशत हाउसहोल्ड के पास जाता है और वास्तव में जो पीने का पानी है वो सिर्फ 2 प्रतिशत ही बचता है। यानि 5 हज़ार लीटर बारिश होने पर हमें सिर्फ एक लीटर पीने का पानी ही मिलता है। तो हमको ये सोचना होगा कि इस पानी का मैनेजमेंट करना है और मिसयूज रोकना है। पानी की कोई कमी नहीं है। इसको हम उदाहरण से समझ सकते हैं। जैसे की चेरापूंजी में दुनिया की सबसे ज्य़ादा बारिश होती है, वहां 11 से 13 मीटर तक बारिश होती है। लेकिन वहां पीने के पानी की समस्या है। देहरादून और शिमला में भी साल में भरपूर पानी बरसता है, लेकिन पीने का पानी नहीं है। लेकिन दूसरी ओर विश्व में सबसे कम बारिश वाला जैसलमेर जहां सिर्फ 17.6 सेंटीमीटर ही बारिश होती है, वहां साल भर पीने का पानी होता है, एक फसल भी होती है और बाकी काम भी होते हैं। यानि जब जैसलमेर में इतनी कम बारिश में भी लोगों की आवश्यकता पूरी होती है तो चेरापूंजी में पानी की कमी क्यों होती है। इसका उत्तर पानी के मैनेजमेंट में छुपा है। इसलिए पानी का संरक्षण करना ही होगा।
सवाल - वायु प्रदूषण भी एक बड़ा मुद्दा है, ख़ासकर दिल्ली एनसीआर में ?
गोपाल आर्य जी : हर समस्या का इलाज सरकार नहीं है, बल्कि समाज ही समस्याओं का इलाज है, इसलिए हम लोगों पर केंद्रीय काम कर रहे हैं। हमें सोचना होगा कि जहां आपका घर बना है, वहां कभी जंगल थे। लेकिन हम कहते हैं कि सरकार ने सड़क के पेड़ कटवा दिए। जबकि ये सच नहीं है। सड़क के पेड़ तो केवल 00.1 परसेंट है। लेकिन जिस कॉलोनी में हम रहते हैं, वो जंगल था। जिसपर हमने अपने घर बना लिए। इसलिए हमें पेड़ लगाने भी होंगे बचाने भी होंगे।
प्रति व्यक्ति पेड़ों की संख्या 400 प्रतिशत से भी ज्य़ादा कम है, इसलिए एयर इंडेक्स तो कम होगा ही। पेड़ बचाने के लिए हमको अपने बिहेवियर में बदलाव लाना होगा।
सवाल : स्वच्छ सागर, सुरक्षित सागर क्या है?
गोपाल आर्य जी : भारत में दुनिया की सबसे बड़ी कोस्टल लाइन है, ये करीब 7500 किलोमीटर की है। इसलिए समुद्र के पर्यावरण को लेकर एक कार्यक्रम तय किया गया, जिसमें वहां रह रहे लोगों को इस मुद्दे के प्रति जागरुक करने की कोशिश की जा रही है। इसमें हम 10 राज्यों और 75 जिलों में ये कैंपेन करेंगे। इसमें हमारी कोशिश है कि लोगों को बताएं कि सागर से उनका कितना जुड़ाव है। इसलिए 17 सितंबर को देश के लाखों लोग सागर तट पर जाएंगे और वहां पर समुद्र तट को साफ किया जाएगा। ऐसा अंदाजा है कि हम दिन के तीन घंटों में 1500 टन प्लास्टिक समुद्र तट से साफ करेंगे। ये शायद विश्व कीर्तिमान भी बन सकता है। ये पब्लिक पार्टिसिपेशन का एक प्रयास है।
सवाल : सनातन संस्कृति में हम प्रकृति को ही सबकुछ मानते हैं, क्या उससे विमुख होने के कारण दुनिया में विनाश बढ़ा है।
गोपाल आर्य जी : सनातन संस्कृति में हम प्रकृति को पंचभूत मानते हैं। वायु को प्राण मानते हैं और धरती को मां, लेकिन हमने इन दोनों को उपयोग की वस्तु मानना शुरु कर दिया। यहीं वजह है कि हम इस स्थिति में पहुंच गए हैं। वैदिक काल परंपरा में भूमि को मां माना जाता है, उसको ज़मीन का टुकड़ा मान लिया गया, पानी को नल से लाया गया माना गया, लेकिन उसको जीवन मानना छोड़ दिया। अन्न को देवता की बजाए ख़ाने की चीज मान लिया। जोकि हमारी भारतीय संस्कृति के खिलाफ है, इसलिए अब जरुरत है कि सनातन भाव को वापस लोगों में जगाया जाए।