उमेश चतुर्वेदी
राजनीतिक इतिहास में गठबंधनों और उन्हें अनूठे नाम देने का चलन कांग्रेस विरोधी धड़ों का रहा है। इसे नियति का खेल कहें या बदली हुई राजनीति, अब अनूठे नाम रखना उस कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन की मजबूरी हो गया है, जिसके खिलाफ अतीत में गठबंधन बनते रहे। बेंगलुरू की बैठक में कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन को अब इंडिया नाम से जाना जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह इंडिया, मौजूदा सत्ताधारी एनडीए का मुकाबला कर पाएगा? राजनीति की रवायत के मुताबिक यह भी जानने की कोशिश होगी कि क्या एनडीए को केंद्र की सत्ता से उखाड़ने में इंडिया कामयाब होगा?
इन बुनियादी मुद्दों पर चर्चा से पहले हमें इस गठबंधन के पूरे नाम पर ध्यान देना होगा। इस गठबंधन के नए नाम के अर्थ पर पहले ध्यान देना चाहिए। इंडिया के आई से इंडियन, एन से नेशनल, डी से डेमोक्रेटिक, आई से इन्क्लुसिव और ए से अलायंस यानी इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इन्क्लुसिव अलाएंस यानी भारतीय राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समावेशी गठबंधन है। इस नए नाम से साफ है कि इस गठबंधन ने देश को यह संदेश देने की कोशिश की है कि यह समन्वित और समावेशी गठबंधन है। लेकिन सवाल यह है कि क्या एनडीए में जो 36 दल शामिल हुए हैं, उनका नजरिया क्या समावेशी नहीं है? निश्चित तौर पर इस सवाल का जवाब ना में है।
चूंकि नए गठबंधन के नाम की चर्चा चली है तो अतीत के कांग्रेस विरोधी गठबंधनों के नामों पर भी देखना चाहिए। 1989 में कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी दलों ने जो मोर्चा बनाया था, उसका नाम था राष्ट्रीय मोर्चा। इसी तरह विपक्षी दलों ने 1996 में संयुक्त मोर्चा नाम से गठबंधन बनाया। उसके बरक्स उन्हीं दिनों भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में एनडीए यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बना। 2004 में पहली बार कांग्रेस की अगुआई में गठबंधन बना, जिसे यूपीए यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन नाम दिया गया। इस संदर्भ में देखें तो कांग्रेस की अगुआई में राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया दूसरा गठबंधन है। वैसे केरल में अरसे से कांग्रेस संयुक्त जनतांत्रिक गठबंधन चला रही है।
एक और तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए। अतीत में कांग्रेस विरोधी गठबंधनों को सफलता मिली है। उसी तरह साल 2004 में सत्ता विरोधी गठबंधन यूपीए को जीत मिली। कुछ इसी अंदाज में मोदी विरोधियों की बेंगलुरू बैठक के बाद बांछें खिल गई हैं। उन्हें लगने लगा है कि नीतीश कुमार की मेहनत कामयाब होने जा रही है। साल 2024 के चुनाव में उन्हें मोदी की हार तय लग रही है। लेकिन अतीत के गठबंधन और उस दौर के माहौल की ओर ध्यान देना जरूरी है। सबसे पहले साल 1977 के चुनाव पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उस वक्त करीब तीन साल से जयप्रकाश नारायण की अगुआई में देश में बदहाली, इंदिरा की तानाशाही और बढ़ती महंगाई के खिलाफ आंदोलन चल रहा था। एक तरह से माहौल पहले से बना था और बाद में कांग्रेस विरोधी दल एक हुए और उन्होंने जनता पार्टी बनाई। तब इंदिरा विरोधी माहौल बन गया था। बस विपक्षी दलों ने इस माहौल को भांपा, साथ आए और कांग्रेस को पटखनी दी। कुछ इसी तरह साल 1989 में भी माहौल बना था। साल 1987 से बोफोर्स तोप सौदे में कांग्रेस को 64 करोड़ की दलाली मिलने को लेकर कांग्रेस विरोधी माहौल बनने लगा था। तब देवीलाल ने हरियाणा में परिवर्तन रथ चला रखा था तो आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने अभियान शुरू कर रखा था। कांग्रेस का साथ छोड़कर विश्वनाथ प्रताप सिंह भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार की माला जप रहे थे और फिर माहौल बदलने लगा। 1987 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से राजीव गांधी की नहीं बन रही थी। असम और पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था। इस तरह से माहौल बनता रहा और फिर राष्ट्रीय मोर्चा ने उसका फायदा उठाया। ऐसी ही स्थिति सात साल बाद 1996 में बनी। तब नरसिंह राव की अल्पमत सरकार के भ्रष्टाचार को लेकर कई कहानियां आम थीं। सांसद घूस कांड, लाखू भाई पाठक कांड, डेजिल कीलर कांड, चंद्रास्वामी की सत्ता में दखलंदाजी, हवाला कांड आदि को लेकर कांग्रेस विरोधी देशव्यापी माहौल था। उस माहौल का फायदा संयुक्त मोर्चा ने उठाया और फिर सत्ता बदली। कुछ इसी अंदाज में साल 1998 आते-आते संयुक्त मोर्चा की आपसी सिरफुटौव्वल, सुखोई घोटाला आदि को लेकर संयुक्त मोर्चा विरोधी माहौल भी बना और इस साल हुए मध्यावधि चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाले एनडीए को कामयाबी मिली। साल 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी का शाइनिंग इंडिया कुछ ज्यादा ही चमक गया। यह चमक तब की जनता को बड़बोला लगी और माहौल बन गया। फिर नजदीकी मुकाबले में यूपीए के हाथ बाजी लगी। इसी तरह साल 2014 के चुनावों के पहले टूजी, कॉमनवेल्थ और कोयला घोटाले की चर्चा खूब रही। इस वजह से देश व्यापी माहौल बना। उसमें माहौल को बढ़ाने में राजनीति से ज्यादा गैर राजनीतिक अन्ना हजारे और बाबा राम देव के आंदोलनों ने मदद दी। इसी माहौल के बीच नरेंद्र मोदी ने खुद को भविष्य के नेता के तौर पर स्थापित किया और 2014 के आम चुनावों में जनता ने देश उनके हाथों में सौप दिया।
इन संदर्भों में देखें तो क्या आज वैसा माहौल है? क्या मौजूदा नरेंद्र मोदी की सत्ता के खिलाफ वैसा राष्ट्र व्यापी माहौल है? यह सच है कि भारतीय जनता पार्टी का अपना कार्यकर्ता कुछ निराश है। लेकिन यह भी सच है कि आम लोगों की नजर में अब भी नरेंद्र मोदी देश के सबसे भरोसेमंद नेता हैं। चूंकि भारतीय जनता पार्टी और उसके नाभिनाल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपनी विशिष्ट कार्यशैली है, इसलिए उसके नाराज कार्यकर्ता भी आखिरकार उसके ही साथ काम करने लगते हैं। क्योंकि उनके लिए अपनी सैद्धांतिकी और विचार कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। अतीत के संदर्भों को देखें, जब विपक्ष तत्कालीन सत्ता को बेदखल करता रहा है, हर बार सत्ता विरोधी माहौल रहा और उस माहौल को भुनाने और जनमत का फायदा उठाने के लिए सत्ता विरोधी दलों ने जनता को मंच मुहैया कराया। इन संदर्भों में देखें तो इस बार वैसा कोई माहौल नजर नहीं आ रहा है। इसलिए यह मान लेना कि इंडिया, एनडीए का विकल्प बनकर उभर ही जाएगा, जल्दीबाजी होगा।
वैसे भी कुछ सवालों के जवाब इस गठबंधन को भी देने होंगे, मसलन क्या दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी साथ आ जाएंगे? क्या नीतीश और लालू के बीच के सारे अंतर्विरोध खत्म हो जाएंगे? सवाल यह भी है कि क्या पश्चिम बंगाल में ममता और सीपीएम एक साथ चुनावी मोर्चा में शामिल होंगे, सवाल यह भी है कि केरल में वाम मोर्चा के साथ कांग्रेसी मोर्चा हाथ मिला पाएगा?
नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उभार के बाद एक बदलाव हुआ है, उसकी ओर ज्यादातर लोगों का ध्यान नहीं हैं। जहां भी भाजपा के बरक्स आमने-सामने की लड़ाई का माहौल बनाने की कोशिश की जाती है, हमेशा भाजपा भारी पड़ती है। जिस वोट बैंक को पारंपरिक तौर पर भाजपा विरोधी माना जाता है, उसके इतर तकरीबन हर वर्ग भाजपा के पीछे जुट जाता है। कम से कम उत्तर भारत के राज्यों में ऐसा ही होता नजर आया है। उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव में भाजपा के खिलाफ अखिलेश, मायावती और जयंत थे। जातीय हिसाब से उस गठबंधन को बेहद कामयाब होना था, लेकिन नहीं हुआ। यही स्थिति बिहार में रही। जातीय गठबंधन के लिहाज से महागठबंधन मजबूत था, लेकिन भाजपा-जद यू को भारी जीत मिली। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हर जगह ऐसा ही माहौल दिखा।
सच तो यह है कि इंडिया में भले ही समावेशी शब्द शामिल हो गया है, लेकिन बहुत सारे दल और उनके नेताओं के मन अभी भी एक नहीं है। गठबंधन को कामयाबी तभी हासिल हो सकती है, अगर नेताओं के मन मिलें, उनके अंतर्विरोध खत्म हों। लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा। वैसे अतीत में ऐसे गठबंधन नाकाम भी खूब हुए हैं। 1977, 1989, 1996 में तो गठबंधन के अंतर्विरोधों के बावजूद तत्कालीन सरकारें अपना कार्यकाल तक पूरा नहीं कर पाईं। आज के वोटर के ध्यान में यह भी है। नए गठबंधन इंडिया की कामयाबी और नाकामी के भावी परिदृश्य को इन संदर्भों में भी देखा और परखा जाना होगा। (लेखक प्रसार भारती के सलाहकार हैं)