मूल निवासी यानी सनातनी जनजाति बंधु!

गिरीश पंकज

Update: 2023-08-08 20:36 GMT

संयुक्त राष्ट्र महासभा के निर्णय के अनुसार समूचे विश्व में 9 अगस्त को मूल निवासी दिवस मनाया जाता है। महासभा का यह महत्वपूर्ण कदम कहा जाना चाहिए। क्योंकि हम मूल निवासी दिवस के बहाने ही तो जनजाति बंधुओं की दशा और दिशा पर गंभीर विमर्श करते हैं, वरना उनकी सुध लेता ही कौन है, सिवा उनकी ही दुनिया के कुछ चिंतक लोग। भारत सहित पूरी दुनिया में जनजाति निवास करते हैं। सचमुच ये आदि-वासी हैं। एक आंकडे के अनुसार भारत में लगभग दस करोड़ जनजाति हैं। ये सचमुच बहुत पुराने निवासी है। इनको हम वनवासी भी कह सकते हैं। आज भी इनकी एक बड़ी आबादी वनप्रांतर में निवास करती है,जहाँ वे अपना जीवन अपने हिसाब से जीते हैं। कम से कम सुविधाओं में सुखमय जीवन कैसे जिया जा सकता है, यह हमारे जनजाति बंधु हमें बखूबी बता सकते हैं। बताते ही हैं। मैंने बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में पाँच दिनों की पदयात्रा करके उनके सुंदर जीवन को बहुत निकट से देखा है। शहर के तथाकथित सभ्य लोग यह समझते है कि जनजाति बनवासी या मूल निवासी पिछड़े हुए हैं। वे पिछड़े हुए नहीं हैं। दरअसल उन्होंने अपनी आवश्यकताओं को बेहद न्यून कर लिया है। वे थोड़े में मस्त रहते हैं। उनको विशालकाय भवन नहीं चाहिए। उनको त्वरित गति से भागने वाले वाहन नहीं चाहिए। उनको तैरने के लिए स्वीमिंग पूल नहीं चाहिए। वे जगल की नदी या तालाब में तैर कर ही खुश हो लेते हैं। कहने का आशय यह है कि आदिवासी समाज अर्थशास्त्र पढ़े बगैर ही आवश्यकताविहीनता के सिद्धांत को महत्व देता रहा है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है जो जनजाति दिवस पर विचारणीय है कि हम उनको अलग प्रजाति का जीव न समझें। वे हमारे ही अपने बंधु हैं। हमारे सगे हैं। जैसे हमारे परिवार के लोग आवश्यकता अनुसार विभिन शहरों में निवास करते हैं, उसी तरह हमारे जनजाति अपने हिसाब से हम सबसे दूर वनो में निवास करते है। उनकी अपनी सुंदर दुनिया है। उनके अपने रीतिरिवाज है, प्रथाए हैं उनके अपने लोक गीत हैं संगीत हैं, उनके अपने सुंदर, आकर्षक वाद्ययंत्र हैं। उनके नयनाभिराम पहरावे हैं। उनका अपना खानपान है , जो हमसे भले ही काफी भिन्न हो, पर वह असंगत नहीं है। उनकी मनोवृत्ति के अनूकूल है। उसे जब कभी हम देखते है, तो आकर्षित होते है। यह संतोष की बात है कि अपने देश में विचाराधीन समान नागरिक संहिता में जनजाति रीतिरिवाजों को मुक्त रखा गया है। उन्हें इस संहिता के अनुरूप जीने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। उन पर संहिता लादना भी नहीं चाहिए। वे सब जब सदियों से अपनी एक परम्परा को जी रहे हैं, तो अचानक उनको नई धारा में बहने के लिए बाध्य करना अपराध से कम न होगा। यह और बात है कि धीरे-धीरे जनजाति समाज मुख्यधारा की और आकर्षित हो रहा है। लेकिन एक साजिश भी हो रही है, जिस को समझने की आवश्यकता है।भोले -भाले जनजाति समाज के साथ कुछ चालाक धर्मावलम्बी खेल करके उनको अपने धर्म में शामिल करने की कोशिश करते हैं। यह खेल पिछले अनेक वर्षो से हो रहा है। राज्यों में एक मिशन के तहत धर्मांतरण का खेल नहीं, खेला हो रहा है। मासूम वनवासी बंधु उसमें फँस जाते हैं और एक ख़ास धर्म को अपना कर फिर उसके अनुसार जीवन जीने लगते हैं। दुष्परिणाम यह होता है कि वे फिर जनजाति नहीं रह जाते। उनकी अपनी उपासना पद्धति खत्म हो जाती है। वे अपने रीति-रिवाजों से दूर हो जाते हैं। समय के साथ फिर उनको नई जीवन -शैली रास आने लगती है। वर्षों से यह षड्यंत्र चल रहा है। हालांकि इसको रोकने के लिए दूसरे संगठन सक्रिय हुए हैं लेकिन उन्होंने काफी देर कर दी। अब तो भारत में लाखों जनजाति लोग धर्मांतरित हो चुके हैं। फिर भी अभी एक बड़ी तादाद वनवासियों की बची हैं, जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है। इसीलिए वनवासी कल्याण आश्रम और वनबंधु परिषद् जैसी संस्था इस दिशा में सक्रिय हो रही हैं। उनके कारण धर्मांतरण का दुष्चक्र बहुत हद तक रुका भी है। जनजाति बंधुओं को समझाया जा रहा है कि आप सावधान रहें और अपने रीति-रिवाजों के अनुरूप जीवन-यापन करें। हालाँकि जनजाति बंधु जिस तरीके से अपने रीतिरिवाजों में जीते हैं, उसे देखते हुए एक बात समझ में आती हैं कि वे हिन्दू धर्म से बहुत अलग या दूर नहीं हैं। धीरे-धीरे अनेक जनजाति यह भी स्वीकारने लगे हैं कि वे हिन्दू ही हैं। यानी सनातनी हैं। भगवान राम ने अपने चौदह वर्षीय वनवासी जीवन के दौरान अनेक वनवासी, पिछड़े वर्ग को अपने से जोड़ा था। बनवासी बंधुओं को कनवर्जन के खेल को रोकने वाले संगठनों का यह दायित्व है कि वे जनजातियों को किसी भी प्रलोभन में न डाल कर उन्हें उनकी ज़िंदगी को उनकी परम्पराओं के अनुसार ही जीने दें। एक दिन वे अपने आप हिन्दू धर्म के निकट आ ही जाएँगे। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने वर्षों पहले (सन 1999 में) यह माना था कि गोंड जनजाति हिन्दू समाज के ही हैं। आज आवश्यकता इसी बात है कि मूल निवासियों को मूल निवासी ही रहने दिया जाए। उनका धर्मांतरण करने की कोशिश न हो। उनकी सहमति से उनका उन्नयन हो। उन पर कोई वन कानून लादा न जाए। वे जंगलों के संरक्षक हैं। पर्यावरण के रक्षक हैं। उनको वनो का शत्रु न समझें। उनकी शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान दिया जाए। उनको शहरों में लाकर बसाने के बजाय उनके वनों में ग्रामों में ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध कराएं। जैसे एक पौधा बढ़ता है, उसी तरह वनवासी बंधु भी सहजता के साथ बढ़ें, मगर अपनी पहचान के साथ। उनकी पहचान ख़त्म करने के षड्यंत्र को विफल करना होगा। विश्व जनजाति दिवस का उद्देश्य भी यही है।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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