अविश्वास प्रस्ताव का गिरना तय

प्रमोद भार्गव

Update: 2023-07-27 20:48 GMT

विपक्ष के नए-नए गठबंधन 'इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इन्क्लूसिव अलायंसÓ (इंडिया) द्वारा लोकसभा में एक ऐसा अविश्वास प्रस्ताव लाया जा रहा है, जिसका गिरना तय है। मणिपुर हिंसा के मुद्दे पर संसद में जारी दोनों सदनों में गतिरोध के बीच कांग्रेस और इंडिया की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मणिपुर के मुद्दे पर सदन में बोलने के लिए बाध्य करने की रणनीति के तहत यह प्रस्ताव पेश किया गया, जिसे लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने स्वीकार कर लिया। अब बिरला सभी दलों के नेताओं से चर्चा के बाद प्रस्ताव पर परिचर्चा की तिथि तय करेंगे। अविश्वास पर बहस के बाद मतदान भी संभव है। नियमों के अंतर्गत पूर्वोत्तर के ही राज्य असम से कांग्रेस सांसद गोरेव गोगाई ने अध्यक्ष के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था।

संसद में गतिरोध या विपक्षी दलों की हठधर्मिता कोई नई बात नहीं है, संसद के नियमों में इस बात की पर्याप्त गुंजाइश है कि सरकार को किसी विषय पर उत्तर देने के लिए विवश कर दिया जाए। ऐसा पहले भी होता रहा है। कोई भी लोकसभा सदस्य नियम 184 के तहत लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकता है। सदन की मंजूरी के बाद इस पर चर्चा और फिर निर्णायक स्थिति अंजाम तक पहुंचाने के नजरिए से मतदान होता है। लेकिन प्रस्ताव पर बहस की मंजूरी के लिए कम से कम 50 सदस्यों का समर्थन जरूरी है। 50 से ज्यादा सदस्यों का समर्थन मिलना निश्चित है। बावजूद भाजपा नेतृत्व वाली राजग सरकार के लिए दूर-दूर तक कोई खतरा नहीं है। वर्तमान लोकसभा में कुल 543 सीटें हैं। फिलहाल पांच खाली हैं। इनमें करीब 333 से अधिक सांसद भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन व अन्य सहयोगी घटक दलों के हैं। 301 सांसद अकेली भारतीय जनता पार्टी के हैं। कांग्रेस समेत इंडिया के कुल 142 सांसद हैं। यदि इंडिया को 'तेलंगाना राष्ट्र समितिÓ (बीआरएस) का समर्थन मिल जाता है तो यह संख्या बढ़कर 151 हो सकती है ? इस दल के अध्यक्ष के चंद्रशेखर राव हैं, जो तेलंगाना राज्य के पहले मुख्यमंत्री भी हैं। करीब 60 सांसद ऐसे हैं, जिनका दोनों प्रमुख गठबंधन के दलों से कोई नाता नहीं है। अर्थात ये मतदान के समय अपना निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। ऐसे में इनका समर्थन सत्तारुढ़ राजग को मिलने की संभावना जताई जा रही है।

नौ वर्षों में यह दूसरा अवसर है, जब नरेंद्र मोदी सरकार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करेगी। इससे पहले जुलाई 2018 में मोदी सरकार के विरुद्ध कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाया था, लेकिन उसे जबरदस्त मतों के अंतर से मुंह की खानी पड़ी थी। इस अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में महज 126 मत गिरे थे, जबकि इसके विरुद्ध 325 सांसदों ने अपने मत का उपयोग किया था। इस बार भी इस हठधार्मिता का भविष्य लगभग तय है, क्योंकि संख्याबल स्पष्ट रूप से भाजपा के पक्ष में है। मतदान की स्थिति में सरकार और मजबूती से उभर कर अपनी ताकत जता सकती है। ज्यादातर अविश्वास प्रस्ताव उस समय पेश किए जाते हैं, जब सरकार सदन में अल्पमत की स्थिति में हो और बहुमत पेश करने में असमंजस के दौर से गुजरना पड़ रहा हो? लेकिन हम भली भांति जानते हैं कि वर्तमान में विपक्ष का मुख्य उद्देश्य मणिपुर हिंसा के परिप्रेक्ष्य में सरकार को घेरकर प्रश्नों के उत्तर मांगना है। हालांकि इस सिलसिले में सरकार संसद के बाहर चाहे गए प्रश्नों के उत्तर दे रही है, लेकिन संसदीय कार्यप्रणाली के मापदंडों में ये उत्तर आधिकारिक नहीं हैं। दूसरे, विपक्ष का यह त्रियाहठ ही है कि वह इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री का ही जवाब चाहता है। यह कोई संविधान-सम्मत बाध्यकारी तथ्य नहीं है कि प्रधानमंत्री ही जवाब दें। विषय से संबंधित विभाग का मंत्री भी जवाब दे सकते हैं। प्रधानमंत्री तो सदन के बाहर कुछ न कुछ प्रतिक्रिया दे ही रहे हैं, वरना पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ऐसे प्रधानमंत्री रहे हैं, जो बड़े से बड़े मुद्दे पर चुप्पी साधे रखना ही अपने दल और देश का हित मानते रहे हैं। बावजूद सदन के प्रत्येक सदस्य को यह अधिकार संसद देती है कि वह मंत्री समेत प्रधानमंत्री से भी सीधा जवाब तलब कर सकते हैं।

देश यह भी भली भांति जानता है कि नरेंद्र मोदी ऐसे समर्थ वाक्पटु प्रधानमंत्री हैं, जो जटिल से जटिल प्रश्न का उत्तर अपने गठबंधन और देश के हित को ध्यान में रखते हुए बेबाकी से दे सकते हैं। लेकिन हर मुद्दे को वे इस हद तक ले जाते हैं कि एक तो उसमें प्रति-प्रश्न करने की कोई गुंजाइश न रह जाए, दूसरे विपक्ष थक-हार कर खुद ही मौन होने की मनस्थिति में आ जाए। फिर भी प्रधानमंत्री जानते हैं कि लोकतंत्र में संसद में जवाब मांगने के अधिकार की रक्षा संवैधानिक दायित्व भी इसलिए वे जवाब तो देंगे ही, परंतु मणिपुर की तात्कालिक हिंसा और उसके अतीत की पृष्ठभूमि से ऐसे सवाल उठाएंगे कि विपक्ष बगलें झांकने लग जाए? क्योंकि मणिपुर आजादी के समय से ही एक ऐसा सुलगता सवाल रहा है, जिसमें बढ़ते ईसाईकरण और बांग्लादेष व म्ंयामार के घुसपैठिए जातीय हिंसा को चिंगारी दिखाने का काम करते रहे हैं।

गोया, यह मुद्दा स्थानीय मैतेई, नगा और कुकी जातीय समुदायों का न रहकर विदेषी घुसपैठियों की दखल का मुद्दा भी बन गया है। इसे चीन का समर्थन भी हो सकता है ? अतएव यहां यह भी समझने की जरूरत है कि यह मुद्दा मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह द्वारा मादक पदार्थों की तस्करी करने वाले लोगों पर लगाई गई लगाम का भी परिणाम है। इसलिए इसे केवल कुकी समुदाय का मुद्दा मानकर चलना भ्रम होगा ?                (लेखक साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Similar News

सदैव - अटल