महाराष्ट्र का घटनाक्रम आश्चर्यजनक नहीं

Update: 2023-07-07 19:52 GMT

अवधेश कुमार

महाराष्ट्र का वर्तमान घटनाक्रम कतई अचंभित करने वाला नहीं है। कुछ दिनों में साफ होने लगा था कि राकांपा नेताओं का बड़ा समूह महाविकास आघाड़ी को बनाए रखने तथा विपक्षी एकता का भाग बनने की बजाय भाजपा और शिवसेना (शिंदे )समूह के साथ जाने का मन बना चुका है। यह मानना ठीक नहीं कि जो हुआ उसका पता शरद पवार को नहीं था। जब शपथ ग्रहण के पूर्व अजित पवार के घर पर सुप्रिया सुले भी पहुंची तो उन्हें पूरा घटनाक्रम का ज्ञान था। शरद पवार पिछले 4 वर्षों से जैसी राजनीति कर रहे थे उसकी यही स्वाभाविक परिणति थी। नवंबर 2019 में अजीत पवार ने देवेंद्र फडणवीस के साथ शरद पवार की अनुमति से शपथ लिया था। एक ओर वे भाजपा से बात कर रहे थे और दूसरी ओर उद्धव ठाकरे से भी। उन्होंने कहा है कि ऐसा करके वे भाजपा को एक्सपोज करना चाहते थे। इसमें सबसे ज्यादा अपमान और बदनामी अजित पवार की हुई।? उनके मन में लगातार इस बात की कसक थी। दूसरे, लगभग यह भी साफ हो चुका है कि शरद पवार ने एक समय उद्धव ठाकरे सरकार में रहते हुए भाजपा के साथ जाने के लिए भी बातचीत की। संभवत: उनके राष्ट्रपति बनाने पर नरेंद्र मोदी ने सहमति नहीं दी। इस तरह की राजनीति करने वाले व्यक्ति की पार्टी उसके साथ सदा रहे और वह भी इस स्थिति में जब प्रदेश में गठबंधन कमजोर होता दिखे यह संभव नहीं। थोड़े शब्दों में कहें तो यह शरद पवार की राजनीति का ही स्वाभाविक परिणाम है।

प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि पार्टी ने फडणवीस और शिंदे सरकार में शामिल होने और समर्थन करने का फैसला किया है। यानी यह टूट नहीं पार्टी का निर्णय है। यह भी कहा कि शरद पवार हमारे नेता थे, हैं और रहेंगे। अजित पवार ने भी राकांपा के संदर्भ में यही बात कही। यानी ये कह रहे हैं कि पार्टी के फैसले से हम गए हैं हमने न बगावत की, न पार्टी तोड़ी है। यह स्टैंड ऐसा है जिसकी काट जरा मुश्किल होगी। शरद पवार के विरुद्ध ये कुछ नहीं बोलेंगे ,लेकिन स्टैंड यही रहेगा। उद्धव ठाकरे के विपरीत शरद कह रहे हैं कि वे कानूनी लड़ाई नहीं लड़ेंगे, जनता के बीच जाएंगे। हालांकि विधानसभा में अजित और विद्रोहियों की सदस्यता रद्द करने की मांग की गई है। तो होगा क्या?

अजित और प्रफुल्ल कह रहे हैं कि वह राकांपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ेंगे। यानी चुनाव के पूर्व पार्टी चुनाव चिन्ह को लेकर अभी तक दोनों पक्ष दावा करने के लिए चुनाव आयोग जाने का संकेत नहीं दे रहे। शरद अगर चुनाव के दौरान चुनाव आयोग के पास जाते हैं तभी इसकी कानूनी लड़ाई आरंभ होगी। वैसे विधानसभा में अध्यक्ष के पास आवेदन देने के साथ कानूनी और संवैधानिक लड़ाई आरंभ हो गई है। कानूनी लड़ाई का व्यवहार में बहुत ज्यादा मायने नहीं होता। किसी को चुनाव चिन्ह मिल जाए और नेता, विधायक, सांसद साथ नहीं हो तो उसका कोई अर्थ नहीं। प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल जैसे नेता शरद पवार से अलग निर्णय करते हैं तो यह साधारण घटना नहीं है। प्रफुल्ल पिछले करीब ढाई दशक से शरद पवार के सर्वाधिक विश्वसनीय एवं निकटस्थ नेताओं में हैं। छगन भुजबल की हैसियत भी बहुत बड़ी है। यही स्थिति लगभग दिलीप वलसे पाटील की भी है। ऐसे नेताओं के बाहर जाने के बाद शरद पवार के साथ पूरे प्रदेश में पहचान रखने वाले नेताओं की तलाश करनी पड़ेगी। अगर भारी संख्या में विधायक, सांसद और नेता इनके साथ हैं तो स्वाभाविक है कि वर्तमान राकांपा पर इन्हीं का नियंत्रण है। शरद पवार की मराठवाड़ा में प्रतिष्ठा है खासकर गांव में और उनके साथ लोग खड़े होंगे किंतु यह स्थाई नहीं हो सकता। 84 वर्ष की उम्र के व्यक्ति के साथ राजनीति का कोई व्यक्ति तभी खड़ा होगा जब उसे आगे अपना भविष्य दिखाई दे। सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को कार्याध्यक्ष बनाकर उन्होंने अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। 84 वर्ष की उम्र के व्यक्ति के साथ राजनीति का कोई व्यक्ति तभी खड़ा होगा जब उसे आगे अपना भविष्य दिखाई दे। सुप्रिया संगठन की व्यक्ति नहीं हैं। उनकी पूरी ताकत शरद पवार हैं। सुप्रिया के साथ जाकर कोई जोखिम मोल लेना नहीं चाहेगा। दूसरे, महाराष्ट्र विधानसभा में कांग्रेस को छोड़कर शरद के साथ बचे राकांपा और उद्धव शिवसेना के बचे-खुचे नेताओं की यह हैसियत नहीं कि वे ज्यादा लोगों को साथ ला सके। वहां का माहौल एकपक्षीय होगा। शरद पवार स्वयं विधानसभा में नहीं है। तो इसका भी असर होगा। इसलिए इस समय शरद पवार के साथ खड़े लोगों, या उनकी रैली आदि में संख्या के आधार पर भविष्य का निष्कर्ष मत निकालिए।        (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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