डॉ. आनन्द पाटील
कोई भी देश सामाजिक समस्याओं से मुक्त नहीं होता। अत: स्पष्ट है कि भारत भी उनसे मुक्त नहीं है, परन्तु उन समस्याओं को देखने एवं सुलझाने की दृष्टि से ही देश भीतर-बाहर सुदृढ़, समुन्नत अथवा पतनोन्मुख होता है। किसी भी स्थिति में प्राय: दृष्टि की सकारात्मकता अथवा नकारात्मकता का ही दोष होता है। सामाजिक समस्याओं के नाम पर देशान्तर्गत परस्पर विभाजनकारी शत्रु-भाव बाहरी तत्वों को हस्तक्षेप करने हेतु बल प्रदान करता है, जिससे देश की सम्प्रभुता ख़तरे में आ जाती है। इतिहास साक्षी है, जो काल प्रवाह में विकसित सामाजिक समस्याओं के कारण अथवा सत्तार्जन की लालसा में परस्पर संघर्षरत रहे, वे देश नाना रूपी दासत्व के शिकार हुए। यह भी स्मरण रहे कि दासत्व की स्वीकृति के कारण कई देश भूगोल से गोल (अदृश्य) हो गये। उनके गोल हो जाने के कारणों की खोज करेंगे तो जानेंगे कि मूलभूत रूप में वर्चस्व की भावना और सामाजिक समस्याएँ ही कारणीभूत रही हैं।
भारत ने पहले नानाविध आक्रान्ता और तद्नन्तर औपनिवेशिक सत्ताओं से दीर्घ काल तक संघर्ष कर स्वातंत्र्र्य अर्जित किया। और, उल्लेखनीय है कि संघर्ष की इस प्रदीर्घ कालावधि में सामाजिक सुधारों की दृष्टि से सतत प्रयत्नशील भी रहा और समाज ने उन सुधारों को आत्मसात कर समाज में सामञ्जस्य स्थापित करते हुए सामरस्यपूर्ण संस्कृति के विकास हेतु सतत सामूहिक उपक्रम किया।
यह तथ्य रेखांकित करने योग्य है कि भारत में जितने सामाजिक सुधार हुए हैं, कदाचित ही अन्य किसी भी देश में हुए हों। भारत का सच्चा इतिहास जानेंगे, तो पायेंगे कि भारत में सुधारों की सुदीर्घ परम्परा और विस्तृत तालिका है। परन्तु,आन्दोलनजीवी (उपद्रवी एवं असामाजिक) प्राय: भारत को सामाजिक दृष्टि से समस्याग्रस्त रूप में प्रचारित करने का अभियान चलाते हैं और उस अभियान को 'प्रगतिशीलताÓ का नाम देकर स्वयं ही गदगद होते हैं।
आप सद्विवेक जाग्रत रख कर देखेंगे, तो पायेंगे कि वर्तमान भारतवर्ष में सामाजिक समस्याएँ उस रूप में विद्यमान नहीं हैं, जिस रूप में प्रचारित (प्रायोजित) की जाती हैं। जानना-समझना होगा कि 'जातिवादÓ के नाम पर सामाजिक समस्याओं को उत्क्रमित (रिवर्स) रूप में जीवित रखने का सतत प्रयास जारी है। स्वयं को दलित एवं वंचित मानने वाले भी जाति उन्मूलन नहीं चाहते। उसके होने से अनेक लाभ हैं। अत: वे उसे वरदान मानते हैं और यथासुविधा संविधान की धाराओं में प्राप्त अधिकारों का उपयोग कर प्रतिशोध स्वरूप समाज में अराजकता का वातावरण निर्माण करने का उपक्रम करते हैं। ध्यातव्य है कि यह उपक्रम आश्चर्यत: तथाकथित रूप से पिछड़े एवं वञ्चित समुदाय के शिक्षित वर्ग से हो रहा है। कुछ अन्य शिक्षित युवा स्वकल्पित क्रान्ति भाव (उपद्रव) से उनके साथी (कामरेड) बन कर 'समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आईÓ का गाँजा जाप (?) करते हुए समतामूलक समाज के सिद्धान्तों के मायाजाल में फँस कर देश को संघर्ष की विभीषिका में धकेलने के लिए सतत प्रयासरत हैं। भारत के अधिकांश उच्च शिक्षालय (संस्थान) ऐसे शिक्षित तथा आयातित वैचारिक परजीविता से ग्रस्त युवाओं की स्वकल्पित क्रान्ति के लिए सहज सुलभ गढ़ और प्रयोगशालाएँ बन चुके हैं। अब उच्च शिक्षालयों का उपयोग ज्ञानादर्श एवं शिक्षार्जन के लिए नहीं, अपितु भारतीय ज्ञान एवं आदर्शों को ध्वस्त करने के लिए हो रहा है। यह सब कुछ जातिवाद को कोस-कोस कर किया जा रहा है। इसे प्रतिशोधात्मक उत्क्रमित (विपरीत) जातिवाद के रूप में देखने की आवश्यकता है। इस उत्क्रमित जातिवाद के कारण भारतीय सामाजिकता एवं समरसता संकटग्रस्त है। ऐसे जातिवाद के कारण स्वरूप ही जब वंचित समुदाय का कोई संस्कारवान शिक्षक भारतीय ज्ञानादर्श एवं सर्वग्राह्यानुकूल परम्परा का पालन करते हुए अपने शिक्षा-कुल में भारतीय जीवनादर्श को पुन:जाग्रत करने वाले ज्ञानवान कुलगुरु को अपना गुरु मान कर उनकी वन्दना भी करता है, तो वैचारिक परजीविता से ग्रस्त तथाकथित क्रान्तिकारी (एजेण्डाधारी) भारतीय आदर्श परम्परा का निर्वाह करने वाले उस शिक्षक को खुले मञ्चों से प्रताड़ित करते हैं। और, उस जीवनादर्श को उत्क्रमित जातिवाद की दृष्टि से सुनियोजित रूप में 'मनुवादी अथवा ब्राह्मणवादी व्यवस्थाÓ का नाम देकर कुलगुरु और शिक्षक की प्रताड़ना करते हुए सामाजिक बाह्य-आन्तरिक स्वास्थ्य को नष्ट-भ्रष्ट करते हैं। ऐसी प्रताड़नाओं से शिक्षा-कुल की प्रतिष्ठा पर चोट कर उसकी आन्तरिक व्यवस्था को ही सन्देहास्पद बनाने का प्रयास किया जाता है। ऐसा सबकुछ करते हुए वे संविधान की मनगढ़न्त व्याख्या करते हैं। संविधान का दोहन करते हुए समाज में विष वमन कर भारतीय सामाजिकता (समरसता) को ध्वस्त करने का उपक्रम करते हैं।
इस पूरे सन्दर्भ में स्मरण रहे कि 'जातिÓ और 'जातिवादÓ, दोनों शब्द भारतीय सामाजिक व्यवस्था की देन नहीं हैं। कहाँ से आयातित हैं ये शब्द? उस स्रोत को खोजने और उसके निहितार्थ को जानने का विवेकपूर्ण प्रयास किया जाना चाहिए। जो कुछ औपनिवेशिक सत्ता ने परोसा और आयातित वैचारिक दासत्व से ग्रहण किया गया है, उसका यथारूप सुरक्षित रखते हुए उसी का यथानुकूल प्रयोग करते हुए भारतीय सामाजिक व्यवस्था को निकृष्ट घोषित करने का उपक्रम नहीं किया जाना चाहिए।
पहले सुधारात्मक दृष्टि धारण कर समाज में सामरस्य स्थापन हेतु सामूहिक कार्य हुआ करता था। वर्तमान में सुधारवादी दृष्टि तिरोहित हो रही है और उपरोक्त शिक्षितों में अहितकर आन्दोलनजीवी दृष्टि का विकास हो रहा है। यह शिक्षित समाज दिग्भ्रमित होकर राष्ट्र को आकण्ठ कीचड़ में धकेलने को उद्यत है और मुद्दे की खोज एवं सर्जना करने वाली राजनीति ऐसे दिग्भ्रमित मस्तिष्कों का उपयोग कर स्व-हित साधने का कार्य कर रही है। ध्यान रहे कि उत्क्रमित जातिवाद वास्तव में राजनीतिक (षड्यन्त्र) जातिवाद के रूप अपने पैर पसार रहा है।
यह स्पष्ट है कि वर्तमान में जो व्यर्थ ही जातिगत विद्वेष से ग्रस्त हैं, उनकी दृष्टि वाम विचार पोषित होकर अति नकारात्मक है। उत्क्रम जातिवाद वाम विचार से ही पुष्पित-पल्लवित हो रहा है। यह इस महादेश और भारतीय बहुजातीय समाज की सामाजिक समरसता के लिए घातक है। यह जान लेना चाहिए कि इस महादेश को कभी भी वाम विचार की आवश्यकता नहीं रही और न होगी कभी। वाम अपनी धरा पर ही धराशायी हो चुका है। अत: वह किसी का भी भला नहीं कर सकता। अत: वाम पोषित जातिवाद के उत्क्रमित रूप से यथासम्भव बचने की आवश्यकता है। यदि कोई उस दिशा में भूले भटक रहा है, तो उसे येन-केन-प्रकारेण समझाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में शिक्षक हैं)