जानि बूझि सांचहि तजै, करें झूठ सूं नेहु

डॉ. आनन्द पाटील

Update: 2023-08-05 19:41 GMT

पिछले 'वज्रपातÓ - 'आवारा मसीहा नहीं होतेÓ में मैंने वर्तमान समय को 'संक्रांन्ति कालÓ की संज्ञा देते हुए संकेत किया था कि इस समय में नवनवीन नैरेटिव रचे-परोसे जा रहे हैं और इस महादेश के सुहृद समानधर्मा समाज को दिग्भ्रमित करने का सतत प्रयास किया जा रहा है। आज देशान्तर्गत सारी लड़ाइयां, सड़क से संसद तक, वाक् युद्ध से लेकर टूलकिट से संचालित सड़कछाप आन्दोलनों तक, ऐसे नैरेटिव पर ही चल रही हैं। और, यह स्पष्ट है कि ये लड़ाइयाँ अभी दीर्घावधि तक चलेंगी, क्योंकि जिन्हें दशकों से देश की सत्ता का अबाध परम सुख प्राप्त था, उनके गढ़ सतत ढह रहे हैं। अत: उनकी ओर से नवनवीन नैरेटिव सृजन कर सत्ता में अपनी वापसी का मार्ग खोजने का यत्न किया (करवाया) जा रहा है। सत्तामोह में सत्तासीन को सत्ता से पदच्युत करने के उद्देश्य से ऐसे नैरेटिव गढ़ने के लिए, नित दिन नवनवीन अध्यायों (अभियान) को संचालित करने के लिए बहुत बड़ी पूँजी कार्यरत है। ध्यान रहे कि यह वाम एवं वाम उदारवादी समर्थक पूँजी है। सुहृद समानधर्मा सामाजिकों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर उनमें परस्पर विद्वेष एवं विघटन को अर्न्तस्थापित करना, इस पूँजी एवं वैचारिकी की सैद्धान्तिक विशेषता है।

ऐसे नैरेटिव प्राय: इसी वैचारिक पृष्ठभूमि का आधार ग्रहण कर सृजन के सभी सम्भावित सूत्रों के समायोजन से सृजित होते हैं और नाना माध्यमों से दृश्य-अदृश्य रूप में विस्तार (प्रसार) पाते हैं। अब धीरे-धीरे यह स्पष्ट हो रहा है कि नैरेटिव की यह लड़ाई 'डेटा वॉरÓ के रूप में उभर रही है, क्योंकि भारत में अब तक हावी रहे एकांगी नैरेटिव के विरुद्ध वर्तमान में 'काउण्टर नैरेटिवÓ भी पर्याप्त रूप में उपस्थित हो रहा है। नैरेटिव और डेटा फीडिंग का यह युद्ध प्रथम दृष्टया राजनीतिक सत्तान्तरण के लिए ही प्रतीत होता है, परन्तु सत्ता हस्तागति से समाजार्थिक ही नहीं, अपितु समानधर्मा समाज की सांस्कृतिक संरचना (एकसूत्रात्मक) में परिवर्तन का मार्ग सुलभ होता है। अत: वर्तमान समय में नैरेटिव ही सत्तार्जन का मार्ग प्रतीत हो रहा है। नैरेटिव रचने-परोसने वाले भलीभांति जानते हैं कि सत्ता हस्तागमन से शेष सब कुछ नियन्त्रित एवं संचालित किया जा सकता है। अथ नैरेटिव कथा।

आपके द्वारा प्रयुक्त एक-एक शब्द नये नैरेटिव (आयाम) उपस्थित कर सकता है। इसमें शब्द की महिमा के साथ-साथ उसकी अर्थवत्ता का प्रतीकात्मक एवं विषयोचित रूपान्तरण सृजनात्मकता के विविध पहलुओं से सिचिंत होता है। वर्तमान नैरेटिव की भाषा और भाव देख कर यह स्पष्ट हो जाता है कि नैरेटिव जनित आयाम सकारात्मकता एवं सामाजिक बाह्य-आन्तरिक स्वास्थ्य को सर्वहितकर बनाने की अपेक्षा शब्दाडम्बर एवं वाक्चातुर्य से भरपूर हैं। विघ्नकारी और विघटनकारी हैं। अर्थात् ऐसे नैरेटिव से कोई निर्णायक पक्ष उजागर नहीं होता, अपितु सामाजिक परस्पर मतभिन्नता को ही बढ़ावा मिलता है और सुहृद समानधर्मा समाज दिग्भ्रमित होकर दृश्य-अदृश्य रूप से विखण्डित होता है।

ऐसे समय में, मौन भी नैरेटिव की सम्भावनाओं से मुक्त नहीं रह जाता। यदि आपका बोलना घातक है, तो चुप रहना भी कम घातक नहीं है। चयनात्मक बोलना और बोलने से चयनात्मक बचना (मौन) भी कम घातक नहीं है। हाँ, बोलते समय किसी भी प्रकार की अति से बचना चाहिए, और यह जान लेना चाहिए कि चयनात्मक चुप्पी समस्या का समाधान नहीं हो सकती। सन्त कबीर ने 'अति सर्वत्र वर्जयतेÓ का सन्देश देते हुए 'अति का भला न बोलना, अति की भली न चुपÓ कहा है, परन्तु कबीरदास तत्कालीन अराजक शासन काल के बावजूद बीच बाज़ार में खड़े होकर बोलने (आलोचना) का दुस्साहस करते थे। वे सत्ता, समाज एवं धर्म की कटु आलोचना करने से कभी नहीं बचे। यद्यपि उन्होंने 'अति का भला न बोलनाÓ कहा है, परन्तु तत्कालीन समाज में उनकी कथनी अति का ही अतिक्रमण थी और वे कोड़े खाकर भी चुप न रह सके। अर्थात् स्पष्ट है कि समयावधान से समयोचित बोलना अत्यावश्यक है। इससे व्यक्ति के आत्मविश्वासहीन एवं कर्महीन न होने का प्रमाण मिलता है।

इधर नैरेटिव खड़ा करने वालों की ओर से प्रखर राष्ट्रवादियों के विरुद्ध मुद्दों की खोज ही नहीं की जा रही है, अपितु नित नवीन एवं मनगढ़न्त मुद्दे सृजित किये जा रहे हैं और आरोपित नैरेटिव में उन्हें तोते की भाँति कैद करने का प्रयास किया जा रहा है। और, स्वयं को राष्ट्रवादी अथवा राष्ट्रवादियों का सत्यमित्र मानने वाले चयनात्मक चुप्पी साध कर गंभीर भावमुद्रा धारण कर बैठे जा रहे हैं। ऐसे गंभीर भावमुद्राधारी, राष्ट्रवाद के पताकाधारियों को खुल कर मारक और प्रहारक लिखने के लिए प्रेरित कीजिए, तो उनके प्राण कण्ठ को आ रहे हैं। नैरेटिव का काउण्टर नैरेटिव प्रस्तुत करने के बजाय वे सोच रहे हैं कि सुवा (तोता) भाव से राष्ट्रवाद का गुणगान कर अभाव से मुक्त होना भी हुआ, और इधर समुचित भाव भी बढ़ ही गया है, तो चयनात्मक चुप्पी धारण करके स्वार्थ का सन्धान जारी रखा जाय। वे भूल रहे हैं कि चयनात्मक चुप्पी से नया नैरेटिव उभर कर आ रहा है, जो कल्पनातीत रूप से घातक अर्थात् संगठनात्मकता को क्षत-विक्षत करने वाला सिद्ध हो रहा है।

स्पष्ट है कि 2024 के आम चुनाव अपनी सीमाओं से परे जाकर नैरेटिव की लड़ाई से ही जीता जा सकता है। जीत का मार्ग काउण्टर नैरेटिव से ही निकलेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था- 'तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व।Óअर्थात्, हे अर्जुन! तुमने देख ही लिया है कि तुम्हारे युद्ध न करने के बावजूद भी प्रतिपक्षी बचेंगे नहीं, अत: तुम युद्ध करो। इससे तुम्हें सहज ही यश प्राप्त होगा। मैंने तुम्हें प्रत्यक्ष दिखा भी दिया है कि यह सब होकर ही रहेगा। यह समय श्रीकृष्ण को स्मरण कर अर्जुन भाव से युद्धरत (मौन त्याग कर मुखर और प्रखर) होने का है। मौन सफलता का मन्त्र नहीं, नये नैरेटिव के लिए निमन्त्रण है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में शिक्षक हैं)

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