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जलियांवाला बाग : न्यास गठन में पारदर्शिता

प्रहलाद सिंह पटेल

Update: 2019-11-22 11:10 GMT

जलियांवाला बाग हर भारतवासी के लिए किसी भी तीर्थ से कमतर नहीं है। यह जगह हमारे लिए जीवित तीर्थ है। जलियांवाला बाग हिन्दुस्तान के लोगों के बलिदान, संघर्ष का गवाह है। वो तपस्या, वो संघर्ष जो हमने सालों किया है। जिसे हमने अपना जीवन देकर जीवित रखा है। जलियांवाला बाग की मिट्टी सिर्फ मिट्टी नहीं है, हमारे लिए ऐसा चंदन है, जिसे हर भारतीय माथे पर लगाकर गौरवान्वित होता है और बलिदानियों की श्रद्धा में अपना सिर झुका लेता है। इस मिट्टी के हर कण में हमारे पुरखों का खून शामिल है। इस मिट्टी मेें शहीदों के बलिदान की आज तक खुशबू आती है। यही वजह थी कि सरकार ने फैसला किया कि इस पवित्र मिट्टी को हमारे राष्ट्रीय संग्रहालय में होना चहिए। जिसका दर्शन करके हमारे देशवासी अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर सकें। आने वाली पीढिय़ा इस बलिदान से परिचित हो सके। बलिदान और देशभक्ति का प्रतीक यह मिट्टी हमारी राष्ट्रीय धरोहर के रूप में स्थापित हो सकें।

जलियांवाला बाग जैसे पवित्र तीर्थ स्थल के लिए न्यास का गठन राजनैतिक सोच को आधार बनाकर नहीं किया जा सकता है। समाज में या देश में कुछ स्थान राजीनीति से बहुत ऊपर होते हैं। लिहाजा हमें भी इनके बारे में राजनीति और दल से ऊपर उठकर सोचना चाहिए। यही वजह थी कि इस न्यास के गठन के समय हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ध्यान आया कि इस न्यास पर हर देशवासी का हक है बजाय किसी एक राजनैतिक दल के। हमने पुनर्गठन का विचार किया। हमने कहा कि किसी भी एक राजनैतिक दल के व्यक्ति को नामित करना न केवल इस न्यास के साथ बल्कि पूरे देश के साथ अन्याय होगा।

13 अप्रैल 1919 को हुई इस अमानवीय त्रासदी की सिर्फ याद ही हमारी आत्मा को झकझोर देती है। जब अग्रेंजों ने निहत्थे देशवासियों का नरसंहार किया था। जिसमें महिलाएँ बच्चे बुजुर्ग सभी शामिल थे। इस तरह की तानाशाही अमानवीय कार्रवाई पूरी दुनिया में कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती।

इस दर्दनाक हादसे के बाद देश के लोगों ने तय किया कि इस जगह पर एक स्मारक बनाया जाए। इसकी अगुआई मोतीलाल नेहरू ने की। उनकी अध्यक्षता में दिसंबर 1919 में अमृतसर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 34वां सत्र किया था। जलियांवाला बाग को इसके 34 निजी मालिकों से 50 हजार रूपए में खरीदा गया। यह राशि लोगों के सहयोग से जमा की गई। इसका पंजीकरण 20 सितंबर 1920 को किया गया।

1920 से 1951 तक बाग का स्वामित्व और प्रबंधन न्यासियों के पास रहा। जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक अधिनियम 2 मई 1951 से प्रभावी हुआ था। न्यास की पहली बैठक 9 दिसंबर 52 को आयोजित की गई, इस बैठक में खाली मकानों के अधिग्रहण के लिए 50 हजार रूपए की रकम स्वीकार की गई। न्यास की अगली बैठक 29 दिसंबर 1953 को आयोजित की गई। इस बैठक में 14 हजार 988 रूपए की लागत से अतिरिक्त 12 खाली मकानों के अधिग्रहण का अनुमोदन किया गया। मकानों के अधिग्रहण के लिए स्वीकृत पिछली निधियों में से दो हजार 572 रुपए की राशि बच गई थी। इसलिए 12 हजार 416 रूपए की शेष राशि केंद्र सरकार और पंजाब सरकार ने साझां की थी। 29 दिसंबर 53 को आयोजित बैठक में दीवार के चारों तरफ लोहे की बाड़ लगाने के लिए 577 रूपए की राशि भी स्वीकृत की गई। भारत सरकार ने स्मारक के पुनर्विकास के लिए 2006-07 के दौरान 7.51 करोड़ रूपए की राशि स्वीकृत की इन तमाम जानकारियों से साबित होता है कि इस न्यास के लिए जब भी राशि जुटाई गई या तो इस देश की जनता ने दी या फिर न्यास ने कभी राज्य सरकार ने तो कभी केंद्र सरकार ने। यानि कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने कभी अपने दल के फंड से कोई रकम मुहैया नहीं कराई। कांग्रेस के किसी भी पदाधिकारी की कोई रसीद या चैक देखने को नहीं मिलता।

जलियांवाला बाग के न्यास का गठन जब 1951 में किया गया, उस समय जवाहरलाल नेहरू, डॉ. सैफुद्दीन किचलू और मौलाना अब्दुल कमाल आजाद को आजीवन न्यासी बनाया गया। इसके साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष, पंजाब के राज्यपाल, पंजाब के मु यमंत्री और केंद्र सरकार द्वारा नामित तीन व्यक्ति न्यास के सदस्य होंगे, ऐसा तय हुआ, लेकिन कांग्रेस इस न्यास के प्रति कितनी गंभीर थी, इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का निधन 27 मई 64, सैफुद्दीन किचलू का निधन 9 अक्टूबर 63 और आजाद का निधन 22 फरवरी 58 को हो गया। लेकिन इनकी जगह भरी नहीं गई। सरकार ने किन लोगों को इसमें नामित किया। इससे संबंधित दस्तावेज सरकार के पास नहीं है।

यह न्यास किस तरह काम कर रहा था इसका प्रमाण 1970 में देखने को मिला। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने न्यासियों की ओर से 19 फरवरी 70 को एक संकल्प पारित किया। अध्यक्ष के रूप में इस संकल्प पर इंदिरा के हस्ताक्षर तो देखने को मिलते हंै, लेकिन वे इस न्यास में कब शामिल हुई, किस रूप में शामिल हुई, इसकी जानकारी नहीं मिलती। उन दिनों वे देश की प्रधानमंत्री थी और कांग्रेस अध्यक्ष बाबू जगजीवन राम थे। यानि न्यास में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में बाबू जगजीवन राम शायद शामिल नहीं थे, तो इंदिरा जी न्यास में कैसे थी, इस पर कांग्रेस चुप है। इसके बाद सात अगस्त 1998 को फिर एक न्यास की बैठक हुई। इसकी अध्यक्षता कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी ने की। जबकि उस समय देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। जिन्हें अध्यक्षता के लिए नहीं बुलाया गया। यानि इस न्यास को नियम कायदे की बजाय सुविधा के अनुसार चलाया गया।

इस न्यास की सरंचना में एक बार फिर 2006 में संशोधन किया गया। प्रधानमंत्री इसके अध्यक्ष होंगे, लेकिन अपने कार्यकाल में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी इसकी अध्यक्षता की हो इसके प्रमाण नहीं मिलते। इसके अलावा कांग्रेस के अध्यक्ष, संस्कृति मंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, पंजाब के राज्यपाल, पंजाब के मु यमंत्री और केंद्र सरकार द्वारा नामित तीन सदस्य होंगे, ऐसा तय हुआ। 2005 से 2010 तक के लिए पूर्व प्रधानमंत्री आईके गुजराल को नामित किया गया, जिन्हें प्रधानमंत्री रहते हुए कभी नहीं बुलाया गया। उन्हीं गुजराल जी को बाद में सदस्य बनाया गया। अब सरकार को लगा कि इस न्यास को गंभीरता से लिया जाना चाहिए और हमारी सरकार ने इसमें कुछ बदलाव करके राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया।

(लेखक केंद्रीय राज्य मंत्री संस्कृति और पर्यटन स्वतंत्र प्रभार हैं)

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