भारत का स्वत्व बोध ही हिन्दवी स्वराज्य की सार्थकता

हिन्दवी स्वराज्य स्थापना दिवस

Update: 2023-06-01 20:06 GMT

रमेश शर्मा

छत्रपति शिवाजी महाराज पूरे भारत में स्वत्व स्वाभिमान और आत्मनिर्भर समाज की रचना करना चाहते थे । अपने इस संकल्प को आकार देने के लिए ही आक्रमणकारी सत्ताओं के बीच हिन्दवी स्वराज्य की नींव रखी गई थी ।

वह ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रियोदशी विक्रम संवत् 1731 (ईस्वी सन1674) की तिथि थी जब दक्षिण भारत के रायगढ़ किले में हिन्दवी स्वराज्य यनि हिन्दू पदपादशाही की नींव रखी गई थी । इसी दिन शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था। उस वर्ष यह तिथि 6 जून को थी । इस वर्ष यह तिथि 2 जून को पड़ रही है । इसलिए इस वर्ष वर्षगांठ का यह आयोजन 2 जून से होगा। यह स्वाभिमान उत्सव कहीं एक सप्ताह सप्ताह तो कहीं पूरे पन्द्रह दिन चलता है। चूंकि शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक उत्सव पूरे दस दिन चला था। यह आयोजन शिवाजी महाराज की माता जीजाबाई और समर्थ स्वामी रामदास जी के निर्देशन में हुआ था। इसलिए यह केवल राज्याभिषेक आयोजन भर न था। अपितु इसे संपूर्ण भारत राष्ट्र के स्वाभिमान और स्वत्व जागरण के उत्सव का स्वरूप प्रदान किया था। वह काल-खंड साधारण नहीं था। वह मुगल बादशाह औरंगजेब द्वारा भारत में भारत्व के दमन अभियान का दौर था। औरंगजेब ने 1665 में सभी सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों और मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश निकाला था। बल, भय और लालच से मतान्तरण का अभियान चलाया जा रहा था । भारत के मूल निवासियों के समक्ष अपनी ही मातृभूमि पर प्राण बचाने और पेट भरने का संकट सामने था। उन विषम और विपरीत परिस्थितियों में शिवाजी महाराज ने स्वत्व और स्वाभिमान जागरण अभियान आरंभ किया वह भी अपने चारों ओर आक्रमणकारी सत्ताओं के भीषण दबाव के बीच और यह उनकी संकल्पशक्ति थी कि उन्होंने पूरे भारत को दासत्व से मुक्ति का मार्ग दिखाया। हिन्दवी स्वराज्य या हिन्दू साम्राज्य की स्थापना इतिहास का यह अद्भुत प्रसंग है जिसके उदाहरण दुनिया में बहुत कम देखने को मिलते हैं । शिवाजी महाराज का संकल्प केवल अपना साम्राज्य स्थापना करना भर नहीं था अपितु संपूर्ण भारतवासियों स्वत्व जागरण का संदेश देना था इसलिए इसका नाम हिन्दवी स्वराज्य रखा गया। समुद्र सतह से लगभग पन्द्रह सौ मीटर ऊंचाई पर बने रायगढ़ किले में इस संकल्प को आकार देने के लिए बनारस के आचार्य गागा भट्ट, माता जीजाबाई, समर्थ स्वामी रामदास सहित भारत के कौने-कौने से पहुंचे संत और स्वराज समर्थक प्रतिनिधि साक्षी बने। वह आयोजन और वह क्षण भारतीय संदर्भ के लिए जितना अविस्मरणीय है, इतिहास में उसका उल्लेख उतना ही अल्प है । इसके जो भी कारण रहे हों लेकिन आज भारतीय जन जहां एक ओर विश्व की महाशक्तियों के बीच भारत राष्ट्र के नाम और स्थान को प्रतिष्ठित करने के अभियान में लगे हैं वहीं दूसरी ओर अपने अतीत के पन्नों में विखरे गौरव पलों को संकलित करने का काम भी आरंभ हुआ है। इस श्रम साधना से जो गौरवमयी तथ्य सामने आए हैं वे प्रत्येक भारतीय का शीश उन्नत करने वाले हैं। यह तथ्य हमें बोध कराते हैं कि भारत ने कभी भी दासत्व की पूर्णता को स्वीकार नहीं किया । यह ठीक है कि परिस्थिति जन्य विवशताओं के चलते भारतीय पूर्वजों ने कहीं स्वयं को सीमित किया और कहीं शीश भी झुकाया लेकिन उनके हृदय में स्वत्व और स्वाभिमान का भाव सदैव जाग्रत रहा। इसलिए भारत में भारत का अस्तित्व जीवित रह पाया। अन्यथा हम देख लें पूरी दुनिया को आक्रांताओं और दमन से सबका स्वरूप बदल गया। जीवन संस्कृति और संस्कार सब इतिहास का अंग हो गए पर भारत में स्वत्व का भाव अपने अतीत के गौरव के साथ स्थित है और इसी झलक हमें हिन्दवी स्वराज्य में मिलती है । चारों ओर तनाव दबाव और आक्रमणों के बीच स्थापित हुआ था हिन्दवी स्वराज्य । दक्षिण से गुजरात तक पांच सुल्तान और उत्तर में शक्तिशाली मुगल । पर शिवाजी महाराज ने सबसे टक्कर ली । चारों ओर मोर्चा साधा । कभी संगठित शत्रुओं का सामना किया कभी कूटनीतिक कौशल से । इनमें कोई ऐसा नहीं जो उनके युद्ध कौशल और रणनीति से पराजित न हुआ हो । उन्होंने दक्षिण में आदिलशाही और निजामशाही को ही पराजित नहीं किया अपितु मुगल सेना को भी पराजित किया और युद्ध का व्यय वसूला । शिवाजी महाराज ने अपनी शक्ति का विस्तार अपने पिता के रहते ही कर लिया था । यह उनकी माता जीजाबाई के संस्कार और गुरु समर्थ स्वामी रामदास की शिक्षा थी कि उन्होंने अपने पिता के रहते अपने साम्राज्य की विधिवत घोषणा नहीं की। इसका कारण यह था कि उनके पिता शाहजी आदिलशाही में सेनापति थे और उन्होंने अपने राजा को वचन दिया था कि शिवा स्वतंत्र शासक नहीं बनेंगे। इसीलिए शिवाजी महाराज ने पिता के रहते स्वयं को संयमित किया। शिवाजी महाराज के पास पूना को केन्द्र मानकर लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर लंबे और लगभग अस्सी किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में पूर्ण आधिपत्य हो गया था, यहां उनकी अपनी सेना थी । लेकिन तब वे स्वयं को पिता की ओर से आदिलशाही की धरोहर ही बताते थे। जब पिता का देहान्त हुआ तब शिवाजी महाराज ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और राज्याभिषेक की घोषणा कर दी। जिसका नाम उन्होंने हिन्दवी स्वराज दिया। उनके मन में अपनी भावी सत्ता और भारत राष्ट्र में स्वाभिमान की पुनर्प्रतिष्ठा का एक पूरा स्वरूप था जो तत्कालीन परिस्थितियों का प्रतिकार करने और सुधार करने के संकल्प के साथ तैयार हुआ था। जिसकी झलक अभियान में देखने को मिली। शिवाजी महाराज वे भयानक परिस्थितियां कभी नहीं भूले थे जो उन्होंने बचपन से देखीं और सुनी थीं । वे उन समाचारों से बहुत विचलित थे कि आक्रमणकारियों ने बनारस में मंदिर तोड़कर मूर्तियों को सीढ़ियों में लगवाया था। वे तुलजा भवानी के उपासक थे । यह मंदिर भी तोड़ दिया गया था। चिपलूर में भगवान परशुरामजी मंदिर और पंढरपुर के बिढोवा मंदिर को भी ढहा दिया गया था। स्त्रियों का अपमान तो मानों हमलावरों के सैनिकों के खून में था । शिवाजी महाराज के सामने वह विवरण स्पष्ट था किस प्रकार निजाम ने पूना पर हमला कर पूरा नगर विध्वंस किया था, कत्लेआम किया था । स्त्रियों के चीत्कार से आसमान गूंज गया था । इस हमले का वीभत्स वर्णन आज भी इतिहास के पन्नों पर है कि तब पूना में लाशें उठाने वाला भी कोई न बचा था। ऐसी तमाम बातों ने शिवाजी महाराज के भीतर एक श्रेष्ठ सैनिक और संस्कृति रक्षक बनने का संकल्प जगाया था । वे अपनी बाल्य वय में ही सैनिक अभ्यास करने लगे थे । उन्होंने बालपन में ही टोलियां गठित करने और पीड़ितों की सेवा का काम आरंभ कर दिया था। कोई सैनिक वहां रहने वाले किसी परिवार को या सैनिकों की टुकड़ी किसी गांव को प्रताड़ित करती तो उनकी सेवा के लिए पहुंचने वाली टोली शिवा की होती । (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)हिन्दवी स्वराज्य स्थापना दिवस

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