शिक्षा व्यवस्था में गुरु की उपस्थिति: बदलते आयाम

Update: 2023-07-06 20:31 GMT

गिरीश्वर मिश्र

गुरु सकारात्मक परिवर्तन के सूत्रधार के रूप में स्वीकृत अवधारणा के रूप में चला आ रहा है। उसके साथ सम्पर्क में आ कर एक अनुभवहीन और कोमलमति बच्चा दक्षता की उस उन्मुक्त राह पर चलने को अग्रसर होता है जिसकी दिशाएँ वह स्वयं तय करने की स्थिति में पहुँच जाता है। इस अतिक्रामी परिवर्तन की कुंजी थमाने का काम गुरु का होता है। संक्षेप में कहें तो गुरु विद्यार्थी के इर्दगिर्द फैले-पसरे बंधनों को काट कर, उनसे मुक्त करते हुए उसे स्वायत्त और स्वतंत्र बनाता है। पर यह सब देश-काल के संदर्भ में होता है। समाज की ओर से शिक्षक को यह दायित्व मिला है कि वह वर्तमान में रहते हुए अतीत और भविष्य को जोड़ने का काम करता रहे।

आम लोगों के मन में गुरु के बारे में यह दृढ़ धारणा बन गई है कि शिष्य को ज्ञान देकर उन्मुक्त करना उसका स्वभाव है, कुछ वैसे ही जैसे पुष्प का खिल कर सुगंध बिखेरना या फिर चिड़ियों द्वारा गाना गाना।

अब विकास और प्रगति ही जीवन की परिधि निर्धारित कर रहे हैं। इसके फलस्वरूप तेज़ी से धन-सम्पदा अर्जित करने को ही सभी लोग लक्ष्य और माध्यम दोनों के रूप में स्वीकार करते जा रहे हैं। इन सबके लिए लोग शॉर्टकट की राह अपना रहे हैं। ऐसे में शैक्षिक जगत विभिन्न स्तरों पर साहित्य-चोरी, मिथ्याचार, आर्थिक कदाचार, लैंगिक शोषण, मानसिक प्रताड़ना और द्वेष भाव का वातावरण फैल रहा है और शिक्षा की गुणवत्ता के साथ लागातार समझौते हो रहे हैं। शिक्षा का अध्ययन-अध्यापन इस प्रवृत्ति का ज़बरदस्त शिकार हो रहा है। शिक्षा केंद्र शिक्षा की जगह निजी महत्वाकांक्षाओं को साधने के उपकरण बन रहे हैं। चूँकि यह सब राजनीति के संरक्षण में हो रहा है इसलिए सब कुछ को छूट मिल जाती है। स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाने के लिए शिक्षक प्रशिक्षण एक धंधा का रूप ले चुका है और उसमें सुधार के प्रयास बड़े ही आधे अधूरे मन से हुए हैं।

अयोग्य शिक्षकों के साथ गुरु की छवि धूमिल हो रही है और सालों साल एड हाक व्यवस्था के साथ अध्यापन का कार्य अपेक्षित स्तर पर नहीं हो पा रहा है। कई पीढ़ियाँ इसी माहौल में तैयार हो चुकी हैं। आज अधिकांश संस्थाएँ अध्यापकों की बढ़ती कमी, शिक्षण-प्रशिक्षण की सुविधाओं का अभाव और पाठ्यक्रमों तथा पाठ्यचर्या की कालबाह्यता की समस्याओं से वर्षों से लगातार जूझ रही हैं। इन सबसे शिक्षा की गुणवत्ता के साथ समझौता हो रहा है।

सन 2020 की नई शिक्षा नीति ने कई मूलभूत बदलावों का संकेत किया था, चर्चाएँ भी खूब हुईं पर शिक्षा अभी भी अस्त-व्यस्त है, अस्पष्टताएँ भी बनी हुई हैं। इस बीच निजी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और विद्यालयों की धूम मची हुई है जो कई-कई गुना मनचाही फ़ीस ले रहे हैं । दूसरी ओर आईआईटी और आईआईएम और ऐसी ही कुछ संस्थाओं को छोड़ दें तो बड़ी सरकारी शिक्षा संस्थाओं पर से जनता का विश्वास घटता जा रहा है। शिक्षा के अतिरिक्त अन्य विषयों पर नीति निर्माण और उसे लागू काने में जो मुस्तैदी सरकार की ओर से दिखती है वह शिक्षा तक आते-आते शून्य की ओर बढ़ने लगती है।

इस माहौल में गुरु और शिष्य अब प्रोफेशनल और क्लायंट की भूमिका में आ रहे हैं। शिक्षा समाज की ज़रूरत होती है और उसका रिश्ता रोज़गार से जुड़ गया है क्योंकि नगरीकरण और औद्योगिकीकरण के साथ जीवन-यापन के दूसरे रास्ते बंद होते जा रहे हैं। आज जो कुछ भी संसाधन मिल सकता है वह शिक्षा द्वारा ही सम्भव हो पा रहा है। इसलिए शिक्षा पर दबाव भी बड़ी तेज़ी बढ़ता जा रहा है। इस प्रसंग में गौरतलब है कि भारत की बढ़ती जनसंख्या में युवा-वर्ग का अनुपात ही सर्वाधिक है। उपर्युक्त बदलाव की फलश्रुति यह हो रही है कि ग़ुरु एक व्यक्ति के रूप में किसी अन्य व्यवसायी की भाँति होता जा रहा है। उच्चतम ज्ञान की सफलता तनख्वाह के पैकेज से आंकी जाने लगी है और उसी के हिसाब से ज्ञान देने-पाने के व्यापार की क़ीमत भी तय होने लगी है । साथ ही ज्ञान के नित्य नए नए और जटिल से जटिल क्षेत्र भी उभरने लगे हैं। ख़ास तौर पर ज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ज्ञान की नई-नई विशिष्टताएँ स्थापित हो रही हैं। ऐसे में प्रतिभा के साथ प्रशिक्षण भी अत्यन्त आवश्यक होता जा रहा है। संचार, स्वास्थ्य, कृषि और शिक्षा सभी क्षेत्रों में आज कृत्रिम बुद्धि की बात हो रही है और उसके हानि लाभों का आकलन हो रहा है । चैट जीपीटी शिक्षक को विस्थापित करने को उत्सुक खड़ा हो रहा है।

हमें बड़ी सावधानी से सोचना होगा कि इस तरह के उपाय शिक्षा में कहाँ रहेंगे। फ़िलहाल वह एक मानव की कृति है पर मानव नहीं है । हमारी सोच में कहीं कमी है और हमें उस विश्वदृष्टि का विधान किया गया जिसमें मनुष्य और सारी सृष्टि को ध्यान में रख कर जीवन का विचार किया गया था। उसमें जीवन और कर्म के एक भिन्न कि़स्म के दर्शन का विकास भी निहित है। इसमें तप, त्याग और संतोष के जीवन मूल्यों का अधिक महत्व होगा। इसकी परम्परा मिथकों में ही नहीं आधुनिक युग में भी चलती रही है परंतु काल का खेल कुछ ऐसा कि दुर्भाग्य से आज के युग में ये विचार प्राचीन और अनुपयोगी लगने से व्यर्थ घोषित किए जाने लगे हैं। दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर जिस तरह जलवायु परिवर्तन और जीवन के सामने खड़ी चुनौतियों की बात की जा रही है उसके लिए हमें शिक्षा के तीनों अंगों - गुरु, शिष्य और ज्ञान - के मायने फिर से समझने होंगे।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि के पूर्व कुलपति हैं)

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