शौचालय क्रांति के अगुआ का अवसान

उमेश चतुर्वेदी

Update: 2023-08-16 20:48 GMT

साल 2012 की गर्मियों का कोई दिन, द्वारका में भगवान कान्हा की आरती के बाद मंदिर के पुजारी ने कान्हा की प्रिय नन्हीं-नन्हीं बांसुरी कुछ श्रद्धालुओं को बांटी। एक बांसुरी वहां मौजूद रहे उस शख्सियत को भी मिली, जिसे दुनिया शौचालय क्रांति के अगुआ के रूप में जानती थी। उस शख्सियत को ऐसा महसूस हुआ कि कान्हा की उन पर कृपा है और वे उनसे कुछ विशेष कराना चाहते हैं। कुछ दिन बाद दिल्ली लौटे तो कान्हा के धाम वृंदावन के लिए उनके पास सुप्रीम कोर्ट का पैगाम पड़ा था। वृंदावन की विधवाओं की देखभाल के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत ने उनकी मदद की अपेक्षा की। विधवाओं की दुर्दशा से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई कर रही अदालत की अपेक्षा को उस शख्सियत ने लपकने में देर नहीं लगाई और वृंदावन की हजारों विधवाओं की देखभाल में तत्काल जुट गए।

कान्हा की नगरी में कान्हा की अपेक्षा पूरी करता रहा उस शख्सियत को कान्हा ने उसी दिन अपने पास बुला लिया, जब समूचा देश आजादी के सतहत्तरवें जश्न के उमंग में सराबोर था। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक भी अपने मुख्यालय में पूरे उत्साह से अपने लोगों के साथ झंडारोहण कर रहे थे। इसी बीच उनका दिल प्राकृतिक रूप से गिरफ्तार हो गया। उन्हें आनन-फानन में देश के सबसे नामी अस्पताल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान पहुंचाया गया, तब तक शौचालय क्रांति का यह सूत्रधार अनंत यात्रा पर निकल चुका था, पीछे छोड़ गया था वह नश्वर शरीर, जिसके जरिए उसने धरती पर उन लाखों लोगों की सेवा की, जिन्हें अछूत और भंगी कहा जाता है।

दो अप्रैल 1943 को बिहार के वैशाली जिले के रायपुर बघेल गांव में जन्मे बिंदेश्वर पाठक की चाहत अपराध विज्ञान का व्याख्याता बनने की थी। लेकिन नियति को उनके जरिए कुछ बड़ा कराना था। नियति का ही खेल रहा कि सागर विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए जाते वक्त उन्हें हाजीपुर स्टेशन पर उनके एक रिश्तेदार और उनके जानकार एक वकील ने ट्रेन से उतार लिया। उन्हीं वकील साहब की सिफारिश पर उन्हें साल 1968 में बिहार गांधी शताब्दी समिति में नौकरी मिली। शुरू में उन्हें यहां अनुवादक का दायित्व मिला, और फिर बाद में उन्हें गांधी के परम कार्य अछूतोद्धार और मैला मुक्ति की दिशा में काम करने के लिए धकेल दिया। लेकिन इस कार्य को उन्होंने सहज रूप से स्वीकार कर लिया। हाथ से मैला ढोने की प्रथा से वे बचपन से ही परिचित थे। गांवों की महिलाओं की शौच समस्या का भान शुरू से ही था। इसकी वजह से उनके अंतर्मन में कहीं न कहीं शौचालय क्रांति का विचार चलता रहा। भंगियों की स्थिति देख वे सहज करूणा से भरे रहे। उनकी इस सोच को मजबूती मिली विश्व स्वास्थ्य संगठन की पुस्तिका 'एक्स्क्रीटा डिस्पोजल इन रूरल एरियाज एंड स्माल कम्युनिटीजÓ यानी ग्रामीण इलाकों और निचले समुदायों में मल निस्तारण और बेहतर शौचालय प्रणाली। डॉक्टर पाठक को दूसरी पुस्तक खुद उसके सर्वोदयी लेखक राजेंद्र लाल दास ने दी थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन की पुस्तिका से मिले विचारों के आधार पर उन्होंने शौचालय का मॉडल बनाया और उसे सुलभ नाम दिया। इसे लागू करने में कई किंतु-परंतु हुए। डॉक्टर पाठक को बिहार सरकार से कुछ अनुदान भी मिला,लेकिन परियोजना जब तक लागू होती, तब तक या तो अधिकारी बदल जाते या अनुदान रोक दिया जाता। इसी कशमकश में उन्हें साल 1973 में बिहार के आरा में प्रोजेक्ट मिला। उन्होंने शौचालय बनाया। इसी साल सुलभ संस्थान की नींव रखी गई। पटना में रिजर्व बैंक के सामने शौचालय बनाने का काम मिला, वह मॉडल सफल रहा और फिर तो डॉक्टर पाठक ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज देश का शायद ही कोई शहर और बड़ा कस्बा होगा, जहां सुलभ के शौचालय नहीं होंगे। सबसे बड़ा सुलभ शौचालय कांप्लेक्स महाराष्ट्र के कोल्हापुर में है। जहां हर साल मेला लगता है।

सुलभ शौचालय के जरिए डॉक्टर पाठक ने हिंदू वर्ण व्यवस्था में ठीक विपरीत छोर पर बैठे दो जातियों ब्राह्मण और अछूत को एक साथ लाए। उन्होंने शौचालय क्रांति के जरिए जहां महिलाओं और कमजोर समुदायों को शौचालय की सहूलियत मुहैया कराई, वहीं सार्वजनिक शौचालयों के रख-रखाव और देखभाल के लिए ब्राह्मणों और दलितों को एक साथ नौकरियां दीं। जिस दौर में राजनीतिक उद्वेगों के जरिए जातियों के बीच खींचतान और तनाव चल रहा है, सुलभ के किसी भी प्रांगण में कभी नहीं सुना गया कि जातीय आधार पर किसी का विवाद हुआ हो।

हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा के खिलाफ ही बिंदेश्वर पाठक ने सामाजिक क्रांति की ही अगुआई नहीं की, बल्कि इस पेशे से मुक्त हुए लोगों के लिए रोजगार के साधन तक मुहैया कराए। हाथ से मैला ढोने वाली महिलाओं और पुरूषों के लिए तरह-तरह के रोजगार मुहैया कराए गए। उन्होंने राजस्थान के अलवर में साल 2008 के दिसंबर में अछूत समुदाय के लोगों के लिए सार्वजनिक रूप से मंदिर प्रवेश का आयोजन किया। जिसे उन्होंने धरती और आसमान का मिलन कहा था।

बिंदेश्वर पाठक ने जिंदगी की शुरूआत संघर्षों के साथ की थी। शौचालय के लिए काम करने की वजह से उनके ससुर उनसे नाराज रहे। इस संघर्ष को उन्होंने ताजिंदगी याद रखा और जब भी उनके सामने कोई भूखा, कमजोर और जरूरतमंद पहुंचा, उसकी उन्होंने खुलकर मदद की।

साल 2017 की शुरूआती गर्मियों में इन पंक्तियों के लेखक के सामने वाराणसी में एक वाकया हुआ। वाराणसी में अपने दम पर छोटा अनाथ आश्रम चलाने वाली एक फ्रेंच महिला हैं, जो साइकिल से ही चलती हैं। हर साल क्रिसमस के दौरान वह अपने देश लौट जाती हैं और बसंत की शुरूआत में वाराणसी लौटती हैं। उस साल जब वे फ्रांस में थीं, नोटबंदी लागू हो गई। जब लौटी तो नोट वापसी की तारीखें खत्म हो चुकी थीं। उनकी संस्था रजिस्टर्ड भी नहीं हैं। उनके पास कुछ हजार नोट पड़े थे। जब यह बात बिंदेश्वर पाठक को पता चली तो उन्होंने उस महिला को अपने पास बुलाया और जितने नोट उनके पास बचे थे, उससे कुछ ज्यादा ही उन्हें दे दिए। तब उन्होंने कहा था कि इस महिला का नेक काम रूकना नहीं चाहिए।

सामाजिक क्रांति के अगुआ रहे पाठक अध्ययवसायी और विद्वत्त पूजक भी थे। उन्होंने न जाने कितने लेखकों, कलाकारों की भी मदद की। जब भी उन्हें पता चलता कि फलां लेखक, कलाकार या पत्रकार संकट में है, उसकी सामर्थ्य अनुसार मदद करने में वे पीछे नहीं रहते थे। अछूतोद्धार, विधवाओं की मदद और शौचालय क्रांति की दिशा में किए उनके कार्यों की ही वजह से सुलभ इंटरनेशनल को अंतरराष्ट्रीय गांधी शांति सम्मान से नवाजा गया था। प्रधानमंत्री मोदी की प्रेरणा से उन्होंने वाराणसी के अस्सी घाट को अपने खर्च से खूब चमकाया। अस्सी घाट की सफाई उदाहरण है। डॉक्टर पाठक इंजीनियर नहीं थे, लेकिन उन्होंने जिस तरह की शौचालय क्रांति की, वह अनूठी है। समाज शास्त्र के अध्ययवसायी थे, शायद यही वजह है कि उन्होंने अपनी इंजीनियर बुद्धि से सामाजिक ढांचे में ऐसा हस्तक्षेप किया, जिसका नतीजा सहयोग और सामाजिक सद्भाव रहा। डॉक्टर पाठक की आत्मा आजादी के ही दिन आजाद हो चुकी है, लेकिन सुलभ शौचालयों की श्रृंखलाएं उनके सामाजिक योगदान को याद दिलाती रहेंगी।

(लेखक प्रसार भारती के सलाहकार हैं)

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