आपातकाल के अंधकारमय दौर में, जब आवाज उठाना ही अपराध बन गया था, तब भी कुछ नौजवानों ने सत्य और आज़ादी की मशाल बुझने नहीं दी। ऐसे ही एक युवक थे भोपाल के एडवोकेट मनोहर पाठक, जिन्होंने सत्ता की मनमानी के सामने झुकने से इनकार किया। जेल की यातना, परिवार की चिंता और भविष्य की अनिश्चितता-सब कुछ दांव पर लगाकर उन्होंने विरोध का रास्ता चुना
भोपाल के एडवोकेट मनोहर पाठक उन युवाओं में से थे जिन्होंने इंदिरा गांधी सरकार की हठधर्मिता को चुनौती देने का साहस दिखाया। 25 जून 1975 को जब देश पर आपातकाल थोप दिया गया, तब वे एलएलबी अंतिम वर्ष के छात्र थे और ‘राष्ट्रीय युवा मोर्चा’ के अध्यक्ष के रूप में सामाजिक कार्यों में सक्रिय थे। इससे पहले, 1974 में उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विधानसभा चुनाव लड़ा था और बाद में बाबूलाल गौर के साथ जनसंघ की सदस्यता लेकर जेपी आंदोलन से भी जुड़े।
सरकार ने विरोध की हर आवाज को दबाने के लिए मीसा जैसी कठोर धाराएँ लागू कर दी थीं। किसी को न प्रदर्शन की अनुमति थी और न सभा की। मनोहर पाठक बताते हैं, “आपातकाल के शुरुआती दिनों में हमने भारत टॉकीज पुल के उद्घाटन पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया था। कुछ साथियों को पुलिस ने पकड़ लिया, हम किसी तरह बच निकले। लेकिन अगस्त 1975 में पुलिस घर पहुँची और मुझे मीसा के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।”
जेल जीवन की कठिनाइयाँ न केवल उन्होंने स्वयं झेलीं, बल्कि परिवार को भी भुगतनी पड़ीं। वे बताते हैं, “पहले छह महीने तक किसी से मिलने की अनुमति नहीं थी। छह माह बाद पिता मिले और अगले छह माह बाद पत्नी को मिलने की अनुमति मिली। फिर तीन महीने बाद 15 दिन की पैरोल मिली। उसी दौरान चुनाव की घोषणा और आपातकाल की समाप्ति की खबर आई।”
जेल में हुई पहली मुलाकात जीवनभर स्मरणीय रही। पिता ने सख्ती से कहा, “राजनीति के चक्कर में अपना भविष्य खराब मत करो।” लेकिन आंदोलन की आग और अन्याय के खिलाफ लड़ने का जज़्बा इतना प्रबल था कि पिता की बात अनसुनी कर दी। पाठक कहते हैं, “वो सिर्फ राजनीति नहीं थी, एक मिशन था—सच्चाई के पक्ष में खड़ा होने का।”
जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और वकालत को ही पेशा बनाया। पारिवारिक सहयोग ने उन्हें फिर से खड़ा होने का हौसला दिया। वे बताते हैं, “संयुक्त परिवार था, पिता रेलवे में नौकरी करते थे, इसलिए आर्थिक कठिनाई नहीं हुई। पर मानसिक तनाव बहुत था। परिवार को समाज की बातें सुननी पड़ीं, लेकिन वे डिगे नहीं।”
आज एडवोकेट मनोहर पाठक भोपाल नोटरी संघ के अध्यक्ष हैं और नगर निगम व ट्रिब्यूनल के शासकीय अधिवक्ता के रूप में भी सेवाएँ दे चुके हैं। भरे–पूरे परिवार के साथ वे गर्व से कहते हैं, “आपातकाल ने हमें सिखाया कि अन्याय के सामने खामोशी भी एक अपराध है।”