विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस समाज एवं परिवार के निर्माण की दिशा में वरिष्ठ नागरिकों द्वारा किए गए प्रयासों को मान्यता देने के लिए मनाया जाने वाला एक प्रयोजनात्मक अवसर एवं उत्सव है। यह दिन उन तरीकों को खोजने के लिए भी मनाया जाता है कि कैसे समाज में बुजुर्ग लोगों की उपेक्षाओं एवं उनके प्रति बरती जा रही उदासीनता की त्रासदी से उन्हें मुक्ति देकर उन्हें सुरक्षा कवच मानने की सोच को विकसित किया जाये ताकि वृद्धों के स्वास्थ्य, निष्कंटक एवं कुंठारहित जीवन को प्रबंधित किया जा सकता है। वृद्धों को बंधन नहीं, आत्म-गौरव के रूप में स्वीकार करने की अपेक्षा है।
वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। चिंतन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि वृद्धों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को रोकें।
नये विश्व की उन्नत एवं आदर्श संरचना बिना वृद्धों की सम्मानजनक स्थिति के संभव नहीं है। वर्तमान युग की बड़ी विडम्बना एवं विसंगति है कि वृद्ध अपने ही घर की दहलीज पर सहमा-सहमा खड़ा है, वृद्धों की उपेक्षा स्वस्थ एवं सृसंस्कृत परिवार परम्परा पर काला दाग है। परिवार के वृद्ध हमें कभी बोझ के रूप में दिखाई न दें, हमें यह कभी नहीं सोचना है कि इनकी उपस्थिति हमारी स्वतंत्रता को बांधित करती है। उन्हें पारिवारिक धारा में बांधकर रखा जाये। लेकिन हम सुविधावादी एकांगी एवं संकीर्ण सोच की तंग गलियों में भटक रहे हैं तभी वृद्धों की आंखों में भविष्य को लेकर भय है, असुरक्षा और दहशत है, दिल में अन्तहीन दर्द है। इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से वृद्धों को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। हम पारिवारिक जीवन में वृद्धों को सम्मान दें, इसके लिये सही दिशा में चले, सही सोचें, सही करें। इसके लिये आज विचारक्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्तिक्रांति एवं परिवार-क्रांति की जरूरत है।
हमारा भारत तो बुजुर्गों को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में वृद्ध माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है। कटु सत्य है कि वृद्धावस्था जीवन का अनिवार्य सत्य है। जो आज युवा है, वह कल बूढ़ा भी होगा ही, लेकिन समस्या की शुरुआत तब होती है, जब युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों को उपेक्षा की निगाह से देखने लगती है और उन्हें अपने बुढ़ापे और अकेलेपन से लड़ने के लिए असहाय छोड़ देती है। आज वृद्धों को अकेलापन, परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षा, तिरस्कार, कटुक्तियां, घर से निकाले जाने का भय या एक छत की तलाश में इधर-उधर भटकने का गम हरदम सालता रहता। वृद्ध लोगों के लिये यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं।
अनुभव के अकूत खजाने के सहारे ही दुनिया भर में बुजुर्ग लोगों ने अपनी अलग दुनिया बना रखी है। जिस घर को बनाने में एक इंसान अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है, वृद्ध होने के बाद उसे उसी घर में एक तुच्छ वस्तु समझ लिया जाता है। बड़े बूढ़ों के साथ यह व्यवहार देखकर लगता है जैसे हमारे संस्कार ही मर गए हैं। बुजुर्गों के साथ होने वाले अन्याय के पीछे एक मुख्य वजह सामाजिक प्रतिष्ठा मानी जाती है। तथाकथित व्यक्तिवादी एवं सुविधावादी सोच ने समाज की संरचना को बदसूरत बना दिया है। सब जानते हैं कि आज हर इंसान समाज में खुद को बड़ा दिखाना चाहता है और दिखावे की आड़ में बुजुर्ग लोग उसे अपनी शान-शौकत एवं सुंदरता पर एक काला दाग दिखते हैं। भौतिक जिंदगी की भागदौड़ में नई पीढ़ी नए-नए मुकाम ढूंढने में लगी है, आज वृद्धजन अपनों से दूर जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर कवीन्द्र-रवीन्द्र की पंक्तियां गुनगुनाने को क्यों विवश है-'दीर्घ जीवन एकटा दीर्घ अभिशापÓ, दीर्घ जीवन एक दीर्घ अभिशाप है। (लेखक पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)