फिर आ गई भोपाल गैस त्रासदी बरसीः 39 साल बाद भी न तो पीड़ितों को मिला न्याय, न जहरीले कचरे का हुआ निपटान

गौरतलब है कि वर्ष 1984 में मप्र की राजधानी भोपाल में 2 और 3 दिसंबर की दरम्यानी रात्रि में यूनियन कार्बाइड कारखाने की गैस के रिसाव से हजारों की मौत हो गई थी, जबकि हजारों प्रभावित व्यक्ति आज भी उसके दुष्प्रभाव झेलने को मजबूर हैं। उस त्रासदी की वजह से सबसे ज्यादा पीड़ा शायद महिलाओं को ही उठानी पड़ी थी। महिलाओं को अपने पिता, पति और पुत्र के रूप में सैकड़ों लोगों को खोना ही पड़ा, लेकिन अनेक महिलाओं को हमेशा के लिए मातृत्व सुख से भी वंचित रहना पड़ा।

Update: 2023-12-02 17:13 GMT

भोपाल । मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में वर्ष 1984 में दो-तीन दिसंबर की रात को हुई विश्व की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी को लोग अब तक भूल नहीं पाए हैं। इस त्रासदी को 39 साल बीत गए हैं, लेकिन अब भी यहां के लोग इसका दंश झेलने को मजबूर है। इसकी याद आते ही पीड़ित सिहर जाते हैं। यूनियन कार्बाइड कारखाने से जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट का रिसाव हुआ और हजारों लोग मौत के मुंह में चले गए थे। रविवार को इस भीषणतम त्रासदी की बरसी फिर आ गई, लेकिन अब तक पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाया है और न ही यूनियन कार्बाइड परिसर में पड़े कचरे को आज तक नष्ट नहीं किया जा सका है और निकट भविष्य में इसके निपटान की कोई उम्मीद भी नजर नहीं आ रही है।

गौरतलब है कि वर्ष 1984 में मप्र की राजधानी भोपाल में 2 और 3 दिसंबर की दरम्यानी रात्रि में यूनियन कार्बाइड कारखाने की गैस के रिसाव से हजारों की मौत हो गई थी, जबकि हजारों प्रभावित व्यक्ति आज भी उसके दुष्प्रभाव झेलने को मजबूर हैं। उस त्रासदी की वजह से सबसे ज्यादा पीड़ा शायद महिलाओं को ही उठानी पड़ी थी। महिलाओं को अपने पिता, पति और पुत्र के रूप में सैकड़ों लोगों को खोना ही पड़ा, लेकिन अनेक महिलाओं को हमेशा के लिए मातृत्व सुख से भी वंचित रहना पड़ा।

भोपाल गैस कांड के 39 साल बीत चुके हैं। इस त्रासदी के पीड़ितों के जख्म आज भी हरे हैं। एक शोध में यह तथ्य सामने आया है कि भोपाल गैस पीड़ितों की बस्ती में रहने वालों को दूसरे क्षेत्रों में रहने वालों की तुलना में किडनी, गले तथा फेफड़ों का कैंसर 10 गुना ज्यादा है। इसके अलावा इस बस्ती में टीबी तथा पक्षाघात के मरीजों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। इस गैस त्रासदी में पांच लाख से भी ज्यादा लोग प्रभावित हुए थे, जिनमें से हजारों लोगों की मौत तो मौके पर ही हो गई थी और जो जिंदा बचे, वे विभिन्न गंभीर बीमारियों के शिकार होकर जीवित रहते हुए भी पल-पल मरने को विवश हैं। इनमें से बहुत से लोग कैंसर सहित बहुत सी गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं और घटना के 39 साल बाद भी इस गैस त्रासदी के दुष्प्रभाव खत्म नहीं हो रहे हैं।

विषैली गैस के सम्पर्क में आने वाले लोगों के परिवारों में इतने वर्षों बाद भी शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम बच्चे जन्म ले रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक गैस त्रासदी से 3787 की मौत हुई और गैस से करीब 55,8125 लोग प्रभावित हुए थे। हालांकि कई एनजीओ का दावा रहा है कि मौत का यह आंकड़ा 10 से 15 हजार के बीच था तथा बहुत सारे लोग अनेक तरह की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के भी शिकार हुए। विभिन्न अनुमानों के मुताबिक करीब आठ हजार लोगों की मौत तो दो सप्ताह के भीतर ही हो गई थी जबकि करीब आठ हजार अन्य लोग रिसी हुई गैस से फैली संबंधित बीमारियों के चलते मारे गए थे।

शिवराज सरकार द्वारा कुछ साल पहले यूनियन कार्बाइड परिसर में पड़े लगभग 350 मी टन कचरे का निपटान गुजरात के अंकलेश्वर में करने का निर्णय लिया गया था और उस समय गुजरात सरकार भी इसके लिए तैयार हो गई थी, लेकिन गुजरात की जनता द्वारा इसको लेकर आंदोलन किए जाने के बाद गुजरात सरकार ने कचरा वहां लाए जाने से इनकार कर दिया। वहीं गुजरात सरकार द्वारा कचरा नष्ट करने से इनकार करने के बाद सरकार ने मध्य प्रदेश के धार जिले के पीथमपुर में कचरा नष्ट करने का निर्णय लिया और 40 मी. टन कचरा वहां जला भी दिया था, लेकिन यह मामला प्रकाश में आने के बाद यहां विरोध में किए गए आंदोलन के बाद स्वयं मध्यप्रदेश सरकार ने इससे अपने हाथ खींच लिए।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने नागपुर में डीआरडीओ स्थित इंसीनिरेटर में कचरे को नष्ट करने के आदेश दिया, लेकिन महाराष्ट्र के प्रदूषण निवारण मंडल ने इसकी अनुमति नहीं दी और महाराष्ट्र सरकार ने भी नागपुर में कचरा जलाने से इनकार कर दिया। प्रदेश सरकार ने एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट की शरण ली और न्यायालय नेनागपुर स्थित इंसीनिरेटर के निरीक्षण के आदेश दिए, लेकिन न्यायालय को यह बताया गया कि वहां स्थित इंसीनिरेटर इतनी बड़ी मात्रा में जहरीला कचरा नष्ट करने में सक्षम नहीं है। सरकार द्वारा महाराष्ट्र के कजोला में भी कचरा नष्ट करने पर विचार किया गया, लेकिन प्रदूषण निवारण मंडल द्वारा अनुमति नहीं दिये जाने से यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया। जिससे आज तक परिसर में पड़ा हजारों टन कचरा जहां था वहीं आज भी पड़ा है।

इस कचरे के होने से जहां भूमिगत प्रदूषण फैल रहा तो वहीं कई प्रकार की बीमारियां भी बनी रहती हैं, हालांकि सरकार द्वारा गैस पीडितों के लिए पानी एवं आवास की व्यवस्था की गई है, लेकिन पीडि़त लोगों का कहना है कि सरकार द्वारा उन्हें नाम मात्र सुविधा दी गई है। गैस पीडि़तों की लड़ाई लड़ रहीं रचना डींगरा का कहना है कि गैस पीडितों को मिला पैसा अधिकारी और नेता दीमक की तरह चट कर गए हैं। इन 39 सालों में कई सरकारें आई, लेकिन गैस पीड़ितों को आज तक ठीक तरह से न्याय नहीं दिला पाईं।

भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन के सदस्यों का कहना है कि दुनिया की सबसे बड़ी गैस त्रासदी का असर आज भी दिख रहा है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) के अधीन संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च ऑन एनवायरमेंटल हेलट ने एक शोध में यह पाया था कि जहरीली गैस का दुष्प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर भी पड़ा। इसके कारण बच्चों में जन्मजात बीमारियां हो रही हैं। उन्हेंने आरोप लगाते हुए कहा कि आइसीएमआर की रिपोर्ट सरकार ने प्रकाशित ही नहीं होने दी, बल्कि रिपोर्ट को दबा लिया गया। जहरीली गैस का दुष्प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर भी पड़ा। इसके कारण बच्चों में जन्मजात बीमारियां हो रही हैं। आईसीएमआर की रिपोर्ट सरकार ने प्रकाशित ही नहीं होने दी। रिपोर्ट को दबा लिया गया।

कैसे हुआ हादसा

यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से करीब 40 टन गैस का रिसाव हुआ था। इसकी वजह थी टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का पानी से मिल जाना। इससे हुई रासायनिक प्रक्रिया की वजह से टैंक में दबाव पैदा हो गया और टैंक खुल गया और गैस रिसने लगी। लोगों को मौत की नींद सुलाने में विषैली गैस को औसतन तीन मिनट लगे।

पर्यावरण पर असर

यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे के कारण आस-पास का भूजल मानक स्तर से 562 गुना ज्यादा प्रदूषित हो गया। कारखाने में और उसके चारों तरफ तकरीबन 10 हजार मीट्रिक टन से अधिक कचरा जमीन में आज भी दबा हुआ है। बीते कई सालों से बरसात के पानी के साथ घुलकर अब तक 14 बस्तियों की 50 हजार से ज्यादा की आबादी के भूजल को जहरीला बना चुका है। सीएसई के शोध में परिसर से तीन किलोमीटर दूर और 30 मीटर गहराई तक जहरीले रसायन पाए गए।

क्या बनता था इस कारखाने में


यूनियन कार्बाइड कारखाने में कारबारील, एल्डिकार्ब और सेबिडॉल जैसे खतरनाक कीटनाशकों का उत्पादन होता था। संयंत्र में पारे और क्त्रसेमियम जैसी दीर्घस्थायी और जहरीली धातुएं भी इस्तेमाल होती थीं। सरकार का कृषि विभाग उन कीटनाशकों का एक बड़ा खरीददार था। भोपाल कारखाने से कीटनाशकों का निर्यात दूसरे देशों को किया जाता था और उससे भारत को निर्यात शुल्क की आय होती थी। जानकारों का कहना है कि कीटनाशकों की आड़ में यह कारखाना कुछ ऐसे प्रतिबंधित घातक एवं खतरनाक उत्पाद भी तैयार करता था, जिन्हें बनाने की अनुमति अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों में नहीं थी।

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