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महाराज पहले कार्यकर्ता तो बनें, फिर अध्यक्ष

सुबोध अग्निहोत्री

Update: 2019-05-29 02:45 GMT
 आपको तो आपकी प्रजा ने ही हरा दिया

सिंधिया राजवंश के महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया की गुना-शिवपुरी संसदीय क्षेत्र से अप्रत्याशित हार बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में राहुल गांधी के बाद ज्योतिरादित्य सशक्त राजनेता के रूप में उभरे हैं। लेकिन कांग्रेस के दोनों ही दिग्गज जब चुनाव में परास्त हो गए तो शिखर पर शून्य उपस्थित हो गया है।

सिंधिया की हार का प्रमुख कारण उनका स्वभाव और व्यवहार है। वे आजादी के 70 वर्ष बाद भी अपने को राजवंश की राजशाही से मुक्त नहीं कर पाए हैं। वे स्वयं को तो महाराज मानते हैं लेकिन प्रजा को अपनी प्रजा नहीं समझते। इसीलिए यह पराजय ज्योतिरादित्य की नही वरन उनके अहंकार की पराजय है।

वे जब भी ग्वालियर पधारते हैं तो स्टेशन पर अगवानी के लिए कार्यकर्ताओं के हुजूम की आकांक्षा रखते हैं, ये अलग बात है कि दिल्ली से धौलपुर तक वे भले असामान्य हों, पर मुरैना से ग्वालियर तक उनके मन में राजभाव जागृत हो जाता है। और वे इसी अपेक्षा से ग्वालियर की धरती पर उतरते हैं कि हजारों कार्यकर्ता उनकी न सिर्फ अगवानी करें वरन उनकी जय जय कार भी करें। ऐसे समर्पित कार्यकर्ताओं को महाराज देते क्या हैं? यह कभी उन्होंने सोचा? कांग्रेस का कार्यकर्ता वर्षों से उनके स्वागत के लिए स्वयं के खर्चे से स्टेशन पहुँचता है और जयकारे लगाता है। लेकिन महाराज गाड़ी में बैठ सीधे महल पहुंच जाते हैं। वहाँ भी कार्यकर्ता की कोई पूछ परख नहीं होती।

ऐसा ही व्यवहार शिवपुरी गुना के कार्यकर्ताओं के साथ है। महाराज की छत्रछाया में पले बढ़े एक कांग्रेसी कार्यकर्ता ने सिंधिया की कार्यशैली बताते हुए कहा कि महाराज का व्यवहार आम कांग्रेसी के प्रति रूखा और शुष्क है। कोई कार्यकर्ता महाराज से मिलने दिल्ली जाता है तो उनसे मुलाकात में ही दो दिन लग जाते हैं। सुबह कोठी से निकलने के पहिले ही गाड़ी पोर्च में लग जाती है। निकलते ही महाराज गाड़ी में बैठते हैं और दो घंटे में लौटने की बोलकर हाथ हिलाते हुए निकल जाते हैं। दिल्ली जैसे महानगर में कार्यकर्ता उनकी प्रतीक्षा में भूखा प्यासा खड़ा रहता है। दो घंटे की कहकर जाने वाले महाराज चार घंटे बाद लौटते हैं और सीधे कोठी में प्रवेश कर जाते हैं। यह है महाराज का अपने ही कार्यकर्ताओं से मेल मिलाप का लेखा जोखा। सही कहें तो वे चुनिंदा लोगों से ही मिलते हैं। कार्यकर्ताओं को तो वे दर्शन देते हैं, न उनके सुख दु:ख की बात और न ही उनके आने का कारण पूछा जाता है।

सही माने में वे कांग्रेस को कांग्रेस न समझ स्वयं को ही कांग्रेस समझते रहे हैं। कितना ही निष्ठावान कार्यकर्ता हो, लेकिन वह कांग्रेस की जगह सिंधिया को जाने और माने। तो ही वह कार्यकर्ता माना जाता है। रही सही कसर उनके स्वनामधन्य विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी पाराशर पूरी कर देते हैं।

कै. माधव राव सिंधिया में यह बात नहीं थी। वे सहज भाव से कार्यकर्ताओं से मिलते थे। तब कांग्रेस के कार्यकर्ता और जनता उन्हें स मान देते थे और वे भी कार्यकर्ता की चिंता करते थे। लेकिन ज्योतिरादित्य जी स्वयं को तो महाराज मानते हैं पर प्रजा को प्रजा नहीं।

यदि आप राजवंशीय स्वभाव के अनुरूप अशोक सिंह को टिकट दिलाने में उदारता दिखाते तो राजवंश के लक्षण दिखाई पड़ते। लेकिन महाराज में इतनी भी उदारता नहीं। अशोक सिंह आपकी प्रजा के अंश भी थे और कांग्रेस के कार्यकर्ता भी। फिर उदारता दिखाने में कंजूसी क्यों? राजवंश में रची बसी वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे से सीख लीजिये। जिस शिवपुरी में आप 29 हजार से हारे, उसी शिवपुरी से वे लगभग २९ हजार वोटों से पांच माह पूर्व ही जीती हैं। यह बुरा मानने वाली बात नहीं, चिंतन करने वाली बात है। आप मान्य हैं। श्रद्धा के पात्र हैं। वि यात राजवंश के प्रतिनिधि हैं। आपकी पराजय से आपके कार्यकर्ता हताश हैं, निराश हैं। आपकी पराजय से कांग्रेस डूब सी गई है। इसलिए जरूरी है कि आप जनता के प्रति जवाबदेह बनिये। स्वयं में सुधार लाने के प्रयास करने होंगे। उद्घाटन और शिलान्यास से काम नहीं चलेगा।

आप अपने पिताश्री की नीतियों का अनुशरण कीजिये। हार जीत तो चलती रहती है वाला मुहावरा औरों के लिए है आपके लिए नहीं। आपकी हार तो हार ही है। आपकी दादी और हम सबकी राजमाता का त्याग, तपस्या को आपने भी देखा है। वे आज भी पूज्य हैं और कल भी पूज्य ही रहेंगी। क्या भाजपा और क्या कांग्रेस। वे जनता के प्रति समर्पित थीं। वे सबसे मिलती थीं।

सिंधिया जी की हार के बाद अब उनके सेवादार भी खुल कर बोलने लगे हैं। कहते हैं कि महाराज के पीछे लग कर हम लोग आर्थिक रूप से दिवालिये हो गए हैं। चुनाव के दौरान महाराज का हुक्म होता है। आप अशोकनगर, आप चंदेरी, किसी को मुंगावली तो किसी को ब होरी भेज दिया जाता है। सारा खर्चा स्वयं उठाओ, स्थानीय कार्यकर्ता बाहरी लोगों की सेवा में जुट जाते हैं और जब जीत का जश्न मनता है तो चापलूस आगे आ जाते हैं। सेवादारों को भी जब सेवा का फल नहीं मिलेगा तो बेचारे कब तक लगे रहेंगे। गुना शिवपुरी के लोग भी महल से भेजे गए सेवादारों से नफरत करने लगे हैं। सिंधिया जी की पराजय का मूल कारण यह भी है कि वे न तो स्वभाव से उदार हैं और न ही आर्थिक रूप से कार्यकर्ताओं की मदद करते हैं। कुछ सेवादार ऐसे जरूर हैं जो सिंधिया जी की ओट में बड़ी सप्लाई और ठेके लिए बैठे हैं। ये लोग भाजपा सरकार में भी मजे मारते रहे हैं। और वे ही महाराज के कृपा पात्र बने हुए हैं। जिनका जनाधार शून्य है वे टिकिट भी पा जाते हैं और हारने के बाद भी महाराज के खास बने बैठे हैं।

महाराज! ये सारी कथा आपके उन सिपहसालारों जी व्यथा है जो अब यह सहन नही कर पा रहे हैं। जब अभी यह हाल है तो प्रदेश अध्यक्ष का पद मिलने के बाद क्या होगा। प्रदेश अध्यक्ष तो बहुत लचीला होना चाहिए। सबको साथ लेकर चलने वाला होना चाहिए। क्या महाराज ये सब कर पाएंगे? कांग्रेस संभागीय क्षत्रपों की पार्टी है। विंध्य में अजय सिंह के बाद फिर दिग्विजय सिंह, सुरेश पचौरी, कमलनाथ अनुयायी क्या सिंधिया जी को स्वीकार करेंगे और क्या सिंधिया जी उन्हें तरजीह नहीं देंगे? 

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