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आपातकाल के विरूद्ध अनाम योद्धा

26 जून 1975 को पूर्वान्ह जब हम तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की रायबरेली में आयोजित एक सभा में पहुंचे तो वहां हमें यह घोषणा सुनाई पड़ी कि देश में आपातकाल लग गयी है और किसी प्रकार की सभा या सामूहिक मिलन की अनुमति नहीं है।

Update: 2018-06-25 10:05 GMT

26 जून 1975 को पूर्वान्ह जब हम तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की रायबरेली में आयोजित एक सभा में पहुंचे तो वहां हमें यह घोषणा सुनाई पड़ी कि देश में आपातकाल लग गयी है और किसी प्रकार की सभा या सामूहिक मिलन की अनुमति नहीं है। सभा स्थल पर एकत्रित लगभग दो हजार लोग तितर बितर होने लगे और मंच पर बैठे कांग्रेसी नेता मायूस होकर नीचे उतर गये। आपातकाल लागू होने की घोषणा वहां के जिलाधिकारी कर रहे थे। यद्यपि हमें 25-26 जून की अर्धरात्रि में ही दिल्ली से पत्रकार स्व. भानु प्रताप शुक्ल का फोन मिल चुका था कि प्रदेश में आपातकाल लागू हो गयी है और प्रमुख सभी गैर कांग्रेसी नेता या तो अपने घरों में नजरबंद कर दिये गये हैं या फिर गिरफ्तार कर लिये गये हैं। तथापि हमें इसका अनुमान नहीं था कि कांग्रेस की सभा भी या उनके कार्यक्रम नहीं हो सकते। सामान्यतया उस दिन समाचार पत्र विलम्ब से आये और किसी में आपातकाल या उसके प्रभाव का उल्लेख नहीं था।

वहां से लौटने के बाद हमें अपने कार्यालय में यह सरकारी सूचना दी गयी कि कोेई भी समाचार बिना पूर्व सेंसर के नहीं भेज सकते। तात्पर्य यह कि जो समाचार हम लिखते थे उसे पहले सूूचना विभाग को भेजना पड़ता था और वहां से यथावत या काट-छांट से स्वीकृत किये हुए जो अंश प्राप्त होते थे। वही हम समाचार के रूप में भेज सकते थे। ऐसा कोई समाचार जिसमें आपात स्थिति का जिक्र हो या किसी राजनीतिक अथवा सामाजिक संगठन की गतिविधियों का उल्लेख हो पूूूर्णतया प्रतिबंधित हो गया था। कुछ पत्रकारों की पकड़ धकड़ के कारण बहुत से समाचार पत्र बंद हो गये और जो निकल भी रहे थे वह सरकारी बुलेटिन से अधिक और कुछ नहीं था। समाचार पत्रों के कार्यालयों में भी सेंसर अधिकारी बैठ गये थे और पूरे पत्र की छानबीन करने के बाद ही उसे प्रकाशित करने की अनुमति देते थे। जिसके कारण जहां बहुत से संस्करण बंद हो गये थे वहीं मूल संस्करण कभी कभी प्रात: 10 बजे तक प्रकाशित नहीं हो पाते थे।

कुछ समाचार पत्रों ने आपात स्थिति का विरोध करने के लिए संपादकीय को खाली छोड़ दिया था। उनके प्रकाशन को न केवल बाधित किया गया बल्कि प्रबंधक संपादक और प्रकाशकों को निरूद्ध भी किया गया। आपात स्थिति से भय का वातावरण इतना फैल गया था कि विधानसभा में भी लोग अपनी बात कहने का साहस नहीं कर पा रहे थे। देश में पुलिसिया राज का माहौल था। और फर्जी चार्जसीट के आधार पर लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा था। ऐसे माहौल में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मीसा मेंटीनेन्स आॅफ इन्टरनल सिक्योरिटी एक्ट और डीआईआर डिफेन्स आफ इण्डिया रूल के अन्तर्गत जो लोग गिरफ्तार हुए थे उनके परिवारों को आर्थिक एवं कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए जिन लोगों ने साहसपूूर्ण काम किया उनके योगदान पर आज तक पर्दा पड़ा हुआ है।

ऐसे ही योगदान करने वालों में एक थे बाबू सर्वजीत लाल वर्मा। जो मूलत: फैजाबाद जनपद के निवासी समाजवादी नेता 90 वर्षीय वकील जो इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में वकालत करते थे। विभिन्न जनपदों से डीआईआर के जो मामले उच्च न्यायालय में सुनवाई के लिए आते थे उनकी मुफ्त पैरवी करते थे। आवश्यकता होने पर धन का भी प्रबंध करते थे। उन्होंने समाजवादी और आचार्य नरेन्द्रदेव के सहयोगी होने के साथ-साथ उन्होंने सन 1948 में आचार्य जी के साथ ही उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। तब मेरठ कांग्रेस सम्मेलन में नीतिगत विवाद पर समाजवादी कांग्रेस से अलग हुए। मेरा उनके साथ संपर्क इसलिए हुआ क्योंकि अपने बड़े भाई की डीआईआर में गिरफ्तारी का मुकदमा लेकर उनके पास पहुंचा था।

मुकदमे की पैरवी करने के साथ-साथ उनको अपने ऊपर कितना दृढ़ विश्वास था इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब वे स्वयं मीसा बंदी बना लिये गये तो उन्होंने दो पत्र एक तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और दूसरा स्वास्थ्य मंत्री प्रभुनारायण सिंह को लिखा था। क्योंकि दोनों ही पत्र पहुंचाने का दायित्व उन्होंने मुझे ही सौंपा था। इसलिए उसे पढ़ने का अवसर भी मिला। उन्होंने समाजवादी होने के कारण दोनों के लिए वर्मा जी गुरू तुल्य थे। उनका पत्र पाकर जहां प्रभुनारायण सिंह के हाथ पांव फूल गये वहीं नारायण दत्त तिवारी ने मुझसे यह संदेश पहुंचाने के लिए कहा कि जैसी पत्र में अपेक्षा की गयी है एक महीने के भीतर तदनुरूप कार्रवाई कर दी जाय। तिवारी जी ने एक अवसर पर जब कि चन्द्रशेखर के अनुज कृपाशंकर मेरे पास ठहरे थे। मुझे बुलाकर उन्हें आर्थिक सहायता देने का भी प्रस्ताव किया था। इसे कृपा शंकर ने स्वीकार नहीं किया। तिवारी जी ने मीसा या डीआईआर से पीड़ित परिवारों को अनेक प्रकार से सहायता दी। ऐसे लोगों के परिवारों की यदि किसी ने बेखौफ होकर बड़े पैमाने पर सहायता की तो उनमें चन्द्रभानु गुप्त का नाम अग्रणी रहा है।

जिन लोगों ने आपातकाल के विरूद्ध सत्याग्रह कर गिरफ्तारी दी या जिन नेताओं को उनके घरों से पकड़ कर ले जाया गया। उनके बारे में बहुत कुछ लिखा और सुना गया है लेकिन जिन लोगों ने भूमिगत रहकर राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाये रखने और आवाम में आपातकाल के क्षोभ पैदा करने का महत्वपूर्ण कार्य किया उनकी बहुत चर्चा नहीं हुई है। ऐसे कुछ लोगों से मुझे भी सहयोगी के रूप में संपर्क का अवसर प्राप्त हुआ। उन लोगों में प्रमुख थे किसान मजदूर नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी, संघ के पूर्व सरसंघचालक रज्जू भैया और मूर्धन्य प्रचारक भाऊराव देवरस। जिन्होंने न केवल अपने संगठनों से संबंधित लोगों को प्रेरित किया अपितु विरोध भाव रखने वाले राजनीतिक व सामाजिक का भी मनोबल बढ़ाने का काम किया। यही नहीं प्रशासन तंत्र में अपने पूर्व संपर्क के आधार पर ऐसी पैठ पैदा की जिससे जेलों में बंद लोगों को अधिक पीड़ित नहीं होना पड़ा। ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों में मुख्य सचिव तक पद धारण करने वाले लोग शामिल थे। क्योंकि भूमिगत और प्रशासन तंत्र के बीच संदेश वाहक संदेशों के आदान प्रदान में सहभागिता का कई बार अवसर मिलने के कारण मैं उनके योगदान से परिचित हो सका।

आपात स्थिति में जहां खौफ का बोलबाला था वहीं कुछ स्थल ऐसे थे जहां खुलकर उनकी आलोचना होती थी उनमें विभिन्न जनपदों के बार संगठनों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी। प्रेसक्लब तथा कॉफी हाउस में लोग खुलकर आपात स्थिति की आलोचना करते थे। मुझे स्मरण है कि कानपुर प्रेसक्लब में एक कार्यक्रम के दौरान पाकिस्तान से आया हुआ एक पत्रकार रो पड़ा। जब मैंने उससे इसका कारण पूछा उसका उत्तर था कि आप लोग आपातकाल में भी प्रधानमंत्री और सरकार के विरूद्ध जिस तरह की खुली टिप्पणी कर रहे हैं वह हमारे देश में सामान्य स्थिति में भी उपलब्ध नहीं है। शायद उसे भारतीयों के जीन्स में विद्यमान लोकतांत्रिक परम्परा का संज्ञान नहीं था।

जहां मैं फैजाबाद जनपद के ही तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष स्व. सुरेन्द्र प्रताप सिंह की चर्चा किये बिना नहीं रह सकता जो न केवल आपातकाल प्रावधानों के मुखरित विरोधी थे बल्कि सरकारी नोटरी होने के बाद भी विरूद्ध लोगों को कानूनी मदद देने में सहयोग करते थे। ऐसे तमाम लोग हैं जिन्होंने आपातकाल के विरूद्ध जनमानस को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अनाम रहकर चले गये। आपातकाल की 43 वीं वर्षगांठ पर उनका पुण्य स्मरण करना मुझे इसलिए समीचीन लगा क्योंकि आजकल उस संविधान मानवाधिकार नागरिक स्वातंत्र्य मजहबी आस्था पर सबसे अधिक खतरे की बात वह लोग कर रहे हैं जिनके लिए ऐसा करने वाला प्रात: स्मरणीय है और इन मान्यताओं के अनुरूप सहनशीलता का आचरण अपनाये रखने वाला निंदनीय।

                                                                                                                                                                                        ( लेखक पूर्व राज्यसभा सदस्य हैं )


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